कविता

वह पागल लड़की

गर्दन झुका कर
पीली रौशनी में नहाई
वह लड़की गुमसुम सी
बैठी है चुपचाप
लैम्प पोस्ट के नीचे ——

ख्वाब देखा था उसने कभी
पढ़ेगी बहुत पढ़ेगी
उसकी दोस्ती थी
इसी पीली लैंप पोस्ट की रौशनी से
जबकि उसे करनी थी यारी
चूल्हे की जलती पीली लौ से—

बौखला सी जाती है
कभी कभी वह
अधपके चावल के
खौलते पानी की तरह
उबल कर बह जाना चाहती है
उफनते दूध की तरह
जबकि , उसे पढ़ना है, बहुत पढ़ना है—

माक्सॆ, लेनिन, और टाॅलस्टाय
को सोचती हुई वह लड़की
खुद एक बुत बन गई है—–

उसकी पुरानी दोस्ती है किताबों से
दीमक लगे उन किताबों पर
उसे हाथ फेरने की भी मनाही है
जबकि उसे कई शेल्फों के धूल झारने हैं
उसी मकड़जाले के उधेरबुन में
जकड़ी हुई वह लड़की
एक दिन पगली कहलाने लगी है
जबकि कल्पनाओं में रहने वाली वह लड़की
जीती है कहानियों व कविताओं में
जबकि उसे पढ़ना है , बहुत पढ़ना है
ओह
वह पागल लड़की ——

सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

2 thoughts on “वह पागल लड़की

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ऐसा भी होता है इस दुनीआं में यहाँ मन की बातें मन में ही रह जाती हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    अत्यन्त मार्मिक कविता ! किसी के सपने टूट जाने पर हालत पागलों जैसी हो जाती है और कुछ तो वास्तव में पागल हो जाते हैं.

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