गीतिका
रातों को चाँद सितारों से कहते हम अपने अफसाने
पलकों की ठंडी सेजों पर जो स्वप्न सजाये अनजाने
होंठों से बाहर आ न सकी छिप गईं हृदय के कोने में
उसके- मेरे मन की बातें, या मैं जानूं या वो जाने
कुछ ना बोले वो सकुचाए, हम भी थे थोड़े घबराये
मुस्काते नयनों की भाषा ने भाव रच दिए मनमाने
जिस दिन से उनसे प्रीत जुड़ी महका मेरे मन का उपवन
इक खुशबू से महकीं सांसें जब अधर लगे थे मुस्काने
कब बाबुल का छूटे अँगना, कब सजना का पहनूं कंगना
यह सपना था जो जीवन को कुछ अर्थ दे गया अनजाने
— लता यादव
ग़ज़ल बहुत सुन्दर है .
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !