गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

रातों को चाँद सितारों से कहते हम अपने अफसाने
पलकों की ठंडी सेजों पर जो स्वप्न सजाये अनजाने

होंठों से बाहर आ न सकी छिप गईं हृदय के कोने में
उसके- मेरे मन की बातें, या मैं जानूं या वो जाने

कुछ ना बोले वो सकुचाए, हम भी थे थोड़े घबराये
मुस्काते नयनों की भाषा ने भाव रच दिए मनमाने

जिस दिन से उनसे प्रीत जुड़ी महका मेरे मन का उपवन
इक खुशबू से महकीं सांसें जब अधर लगे थे मुस्काने

कब बाबुल का छूटे अँगना, कब सजना का पहनूं कंगना
यह सपना था जो जीवन को कुछ अर्थ दे गया अनजाने

— लता यादव

लता यादव

अपने बारे में बताने लायक एसा कुछ भी नहीं । मध्यम वर्गीय परिवार में जनमी, बड़ी संतान, आकांक्षाओ का केंद्र बिन्दु । माता-पिता के दुर्घटना ग्रस्त होने के कारण उपचार, गृहकार्य एवं अपनी व दो भाइयों वएकबहन की पढ़ाई । बूढ़े दादाजी हम सबके रखवाले थे माता पिता दादाजी स्वयं काफी पढ़े लिखे थे, अतः घरमें पढ़़ाई का वातावरण था । मैंने विषम परिस्थितियों के बीच M.A.,B.Sc,L.T.किया लेखन का शौक पूरा न हो सका अब पति के देहावसान के बाद पुनः लिखना प्रारम्भ किया है । बस यही मेरी कहानी है

2 thoughts on “गीतिका

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ग़ज़ल बहुत सुन्दर है .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !

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