कविता

एक जीवन ऐसा भी

दुनिया चाँद पर पहुँच गयी
मानव-मशीन का किया खोज
आज भी जानवर की जिंदगी
जिते हैं खानाबदोश

कभी यहाँ कभी वहाँ
न रहते हैं कोई आवास में
डूबा है समाज उनका
अज्ञान और अंधविश्वास में

न अमिरों को उनकी चिंता है
न सरकार को उनपर ध्यान
कोई नहीं समझता है
उनमें भी है खून और जान

जिस जीवन को जिंदगी में
हम एकदिन नहीं जी सकते हैं
खानाबदोश के ऐसा ही
बदतर जीवन रोज कटते हैं

धरती माँ उसे सुलाती है
वृक्ष देता है छाँवनी
आकाश चादर ओढ़ाता है
रौशनी देती है चाँदनी

काश ! उसे भी कोई संगठन
मानव का मूल्य बताता
शिक्षा से विभूषित करके
सभ्य जीवन जिना सिखलाता

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

3 thoughts on “एक जीवन ऐसा भी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सही बात है , खाना बिदोशों को साइंस के किया माने ! यह उन्ती , यह साइंस का फैदा तो तब ही होगा जब भूखे को अन्न मिलेगा , सोने को घर मिलेगा .

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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