एक जीवन ऐसा भी
दुनिया चाँद पर पहुँच गयी
मानव-मशीन का किया खोज
आज भी जानवर की जिंदगी
जिते हैं खानाबदोश
कभी यहाँ कभी वहाँ
न रहते हैं कोई आवास में
डूबा है समाज उनका
अज्ञान और अंधविश्वास में
न अमिरों को उनकी चिंता है
न सरकार को उनपर ध्यान
कोई नहीं समझता है
उनमें भी है खून और जान
जिस जीवन को जिंदगी में
हम एकदिन नहीं जी सकते हैं
खानाबदोश के ऐसा ही
बदतर जीवन रोज कटते हैं
धरती माँ उसे सुलाती है
वृक्ष देता है छाँवनी
आकाश चादर ओढ़ाता है
रौशनी देती है चाँदनी
काश ! उसे भी कोई संगठन
मानव का मूल्य बताता
शिक्षा से विभूषित करके
सभ्य जीवन जिना सिखलाता
-दीपिका कुमारी दीप्ति
सही बात है , खाना बिदोशों को साइंस के किया माने ! यह उन्ती , यह साइंस का फैदा तो तब ही होगा जब भूखे को अन्न मिलेगा , सोने को घर मिलेगा .
सुन्दर कविता!!
अच्छी कविता !