पिंडदान
पड़ोस की माता जी का
परसों देहावसान हो गया था,
बरसों से सिर्फ महीने की
पहली तारीख पर पैसे भेजने वाले,
बेटे बहु तुरंत विदेश से
पहली ही फ्लाइट पकड़
आ गए,
शमशान की सभी तैयारी
हो चुकी थी,
उनके आते ही
बाकी खाना पूर्ति भी हो गयी,
आज माता जी को कलश में डाल
उनकी अनंत यात्रा के लिए
विदा करने गंगा ले जा रहा है,
वो बेटा जिसके आने की राह
देखते देखते माता जी की आँखें पथरा गयीं,
सुना वहां पिंडदान भी करेगा सुपुत्र
पिंड के आटे में चुपचाप गूँथ देगा
अपना अफ़सोस,
अँजुरी भर उदासी जल में घोल
नहला देगा माँ को,
रोली-मोली से सज्जित घड़े में बंद
कुपित माँ नहीं कह पाएगी
अपनी शिकायतें,
जो वो हमेशा करना चाहती थी
पर बेटे के अलावा सबने समझीं,
बेटे के प्यार को भूखी माँ
यात्रा पर निकलने से पहले खा लेगी
जौ और काले तिल बेटे के हाथ से,
फिर उतर जाएगी माँ
घाट की सीढ़ियाँ से गंगा के
पवित्र जल में,
लिए बहोत कुछ
अनकहा सा,
गंगा अपने अंदर सब
समा लेती है,
ज़िन्दगी के किस्से,
अकेलेपन का दर्द,
बेटे का इंतज़ार,
और मिल जाएगी
माता जी के अकेलेपन में
उनके रोदन से मोहल्लेवालों को
अनंत शान्ति ……………
____ प्रीति दक्ष
कविता पढ़कर आँखें सरस हो गयीं। शायद अधिकांश माताओं व पिताओं के साथ कुछ कुछ ऐसा ही होता आ रहा है। कविता के लिए बधाई।
aabhaar aapka man mohan ji ..
बहुत मार्मिक कविता ! आज के युग का सच यही है.
dhaynwaad vijay ji
aabhar aapka vijay ji.