सामाजिक

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की राष्ट्र को सामाजिक देन

ओ३म्

यदि डेढ़ शताब्दी व उससे पूर्व हमारा देश सामाजिक कुरीतियों, रूढि़यों, विषमताओं और अन्धविश्वासों से ग्रसित न होता तो महर्षि दयानन्द को आर्यसमाज की स्थापना करने की आवश्यकता ही नहीं थी। आर्यसमाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ही विश्व व देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, परतन्त्रता, सामाजिक विषमता व असमानता को दूर कर सत्य व न्याय पर आधारित नियमों व सिद्धान्तों का प्रचार और प्रसार करना था। आज इस लेख में हम महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की हमारे भारतीय समाज को क्या देनें हैं, इस पर चर्चा कर रहे हैं। हमारे लेख का आधार प्रो. जयदेव आर्य, हिसार के इस विषय पर प्रस्तुत विचार हैं जो आर्यसमाज, कलकत्ता ने अपनी मासिक पत्रिका आर्यसंसार के एक विशेषांक में प्रकाशित किये थे।

महर्षि दयानन्द के प्रादुर्भाव से पूर्व सन्त-सम्प्रदाय जनता को तुझको परायी क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू’ तथा संसार मिथ्या है’ आदि मन्त्र पढ़ाता हुआ केवल आत्मोद्धार का उपदेश करता था। निठल्ले और निकम्में साधुओं की संख्या वृद्धि पर थी। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द ने आर्य के छठे, नौवें तथा दसवें नियम में हर व्यक्ति द्वारा सामाजिक उन्नति के प्रयत्न को आवश्यक ठहराया। दसवां नियम तो समाज-शास्त्र का सार है जिसके अनुसार हमें स्वतन्त्रता उन्हीं कार्यों के करने व न करने में है, जिनका प्रभाव केवल हम तक ही सीमित रहे, पर समाज को प्रभावित करने वाले कार्यों में हमें अपनी इच्छा को प्रधानता न देकर समाज हित को ही सर्वोपरि समझना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने पाखण्डी मूर्ख साधुओं की राज्य द्वारा कृषि कार्यों में नियुक्ति और संन्यास लेने से पूर्व परीक्षा का विधान किया। महर्षि ने जिस अछूतोद्धार आन्दोलन को जन्म दिया उसी के परिणामस्वरूप कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता रहे स्वामी श्रद्धानन्द ने तिलक-फण्ड में से पांच लाख रूपये की राशि पृथक निकाल कर अमृतसर में 1919 की कांग्र्रेस में अछूतोद्धार कार्यक्रम को कांग्रेस-कार्यक्रम में सम्मिलित करने का प्रस्ताव पारित करवाया, जिसे बाद में गान्धी और मालवीय जी ने भी अपनाया। महर्षि दयानन्द की शिक्षा से प्रभावित बड़़ोदा के महाराजा गायकवाड़ ने अछूतों की शिक्षा का प्रबन्ध कर राष्ट्र को डा. भीमराव अम्बेदकर जैसा महान् विधिवेत्ता प्रदान किया। स्वामी श्रद्धानन्द की कृपा से ही लाखों अछूत मुसलमान होकर पाकिस्तान समर्थक बनने से बचे। महर्षि द्वारा प्रदत्त शुद्धिमन्त्र का यदि हिन्दू-समाज और काशमीरी पण्डित विरोध न करते तो न पाकिस्तान के समर्थक इतने रहते और न काशमीर की समस्या आज हमारे सम्मुख होती। यह ध्यातव्य है कि महर्षि दयानन्द ने राज्य के स्थायित्व के लिये महाराजा काश्मीर को शुद्धि-व्यवस्था बनाकर भेजी थी जिसके अनुसार शुद्धि करने के इच्छुक महाराज को वहां के पण्डितों के विरोध ने रोक दिया था। महर्षि दयानन्द ने उन सब लोगों को जिन्हें हिन्दू मलेच्छ या शूद्र कह कर घृणा की दृष्टि से देखते थे, वैदिक धर्म में आने, आर्य कहलाने तथा वेद पढ़ने का अधिकार प्रदान कर अपनी सार्वभौमिकता का परिचय दिया तथा निरन्तर रिसने वाले हिन्दूसमाजरूपी तालाब को, जिसमें से पानी बाहर तो निकलता रहता था परन्तु अन्दर नहीं सकता था, खाली होने वा भावी आपदाओं से बचा लिया।

महर्षि दयानन्द के प्रभाव के परिणामस्वरूप बाल, वृद्ध तथा बहुविवाहों, कन्यावध तथा यज्ञों में या देवी-देवता आदि पर पशुबलि के विरूद्ध जनमानस में तीव्र आक्रोश जागृत हुआ और लाखों कन्याओं और पशुओं की प्राण-रक्षा हुई। श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा देखे गये विधवा विवाहप्रथा के स्वप्न को मूत्र्तरूप देने का श्रेय महर्षि दयानन्द के आर्यसमाज द्वारा प्रसारित स्त्रीपुरूष समानाधिकार तथा सर्वजनकल्याण की भावना को ही है। महर्षि ने ही विधर्मियों की गोद में जाने वाले अनाथ बच्चों को सर्वप्रथम सुध ले फिरोजपुर में सर्वप्रथम अनाथालय खोला जिसके बाद उनके अनुयायियों ने देहरादून, भिवानी, दिल्ली आदि अनेक शहरों में अनाथालय खोल कर अनाथ बच्चों के धर्म की रक्षा की। महर्षि ने भारत के इतिहास में रेवाड़ी में सर्वप्रथम गोशाला खोली। महर्षि ने समुद्र-यात्रा पर लगे हिन्दू धर्म के प्रतिबन्ध का सप्रमाण खण्डन कर संसार में वैदिक-धर्म प्रसार तथा व्यापार के महत्व को बढ़ाया। हिन्दुओं का पण्डों द्वारा सर्वस्व हरण करनेवाली दानप्रथा, जिसके अधीन लड़कियों का पण्डों को दान तथा मूर्तियों से विवाह तक पुण्य समझा जाता था, का महर्षि दयानन्द ने विरोध कर दान, श्रद्धा तथा शक्तिअनुसार लोकोपकारी विद्यादि कार्यों के लिये ही उचित है’, के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। स्त्रियों का दम घोटनेवाली पर्दाप्रथा समाप्त हुई तथा स्त्रियों को समाज में सम्मानजनक स्थान मिला। जहां स्वामी शंकराचार्य ने कन्याओं का पाण्डित्य केवल गृहतन्त्र तक ही सीमित रखा था वहां महर्षि दयानन्द ने उन्हें बालकों के समान ही सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा, यज्ञोपवीत तथा वेदाध्ययन का अधिकार दिलाया। महर्षि दयानन्द ने गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्णव्यवस्था निर्धारण में अन्य वर्ण को प्राप्त हुई सन्तानों के विनिमय में दूसरे वर्ण से आई सन्तानों को देने-दिलाने का विधान करके तो आज के तथा कथित साम्यवाद को भी कहीं पीछे छोड़ दिया था। इतना ही नहीं, महर्षि दयानन्द ने स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार देकर तथा वैदिक यज्ञ अनुष्ठानों में यज्ञ की ब्रह्मा” के गौरवमय शीर्षस्थ धार्मिक पद पर आरूढ़ कराया। उनके यह सभी कार्य अपने समय की समग्र क्रान्ति के सूचक हैं जिनका सुपरिणाम आज के समाज पर दृष्टिगोचर हो रहा है।

महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की उपर्युक्त सामाजिक देन की ही तरह से अनेक और देनें हैं जिनमें हम सर्वांगीण धर्म, विचार स्वातन्त्र्य, दार्शनिक देन, साहित्यिक देन, ऐतिहासिक देन, शैक्षणिक देन, विवाह-व्यवस्था देन, राजनीतिक देन, आर्थिक देन, वैज्ञानिक देन, राष्ट्रीय देन आदि अनेक देनों को सम्मिलित कर उन पर विचार प्रस्तुत कर सकते हैं। इन सब विषयों को हम भविष्य के लिए छोड़ते हैं। महर्षि दयानन्द की एक सर्वप्रमुख देन ईश्वर के सच्चे स्वरूप का प्रकाश, युक्ति व तर्क संगत ईश्वरोपासना व उसकी प़द्धति की पुस्तक सन्ध्योपासना तथा यज्ञ आदि का पुनरूद्धार आदि अनेक कार्य भी हैं। महर्षि दयानन्द के जीवन पर समग्र दृष्टि डालने पर वह विश्व के इतिहास में भूतो भविष्यति” पुरूष दृष्टिगोचर होते हैं। उनके देशोपकारक व प्राणी मात्र के हित के लिए किए गये कार्यों को स्मरण कर हम उनको नमन करते हैं और इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

 

4 thoughts on “महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की राष्ट्र को सामाजिक देन

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा . अगर लोग समझें तो बहुत तब्दीलिआन आ सकती हैं . अब तो लोग पड़ लिख गए हैं , छोटी जातिओं को ऊपर उठाने की जरुरत है ताकि देश का विकास ज़िआदा हो . रूडिवादी विचार का खंडन होना चाहिए . दयानंद जी के विचारों को फैलाने की जरुरत है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पढ़ने एवं पसन्द करने के लिए हृदय से आपका आभार। आपके विचारों से पूर्णतयः सहमत हूं। लोग सच्चाई व सुधार को तब समझेंगे जब वेदों का धुंआधार प्रचार होगा। इसके लिए हमें समाज में प्रचलित गलत व बुरी मान्यताओं का खण्डन एवं सत्य वैदिक मान्यताओं का तर्क, युक्ति, प्रमाण व दृष्टान्तों के आधार पर पोषण करना होगा। सरल, सुबोध, जनसामान्य की भाषा में छोटी छोटी पुस्तकों को तैयार कर ईसाईयों की तरह उसे घर घर पहुंचाना होगा। लोग उन्हें पढ़े, चर्चा करें, शंका समाधान करें, इसके लिए लोगों को प्रोत्साहित भी करना होगा। स्वयं का आचरण उच्च कोटि का रखना होगा। तभी सामाजिक तबदीलियां आ सकती है, जिसका आपने उल्लेख किया है। यह भी कहना है कि अब लोग पढ़ लिख तो गये हैं परन्तु उनमें सच्चे धार्मिक ज्ञान का अभाव है और अधिकांश लोग आर्थिक स्वार्थों के साथ काम, क्रोध, लोभ व मोह से ग्रस्त हैं। मैं यह भी अनुभव करता हूं कि जब तक संसार में मत-मतान्तर व गुरूडम विद्यमान रहेंगे, इसके अनुयायी व नेता अपनी संख्या बढ़ाने में लगे रहेंगे जिससे सामाजिक समरसता उत्पन्न नहीं हो सकती। ऐसा ही बिगाड़ राजनैतिक दल भी करते हैं जो अपने लाभ के लिए लोगों को आपस में बांटते हैं। इन सब से सामाजिक परिवर्तन लाने में बाधा उत्पन्न होती है। लोगों को उपर उठाने के लिए निःशुल्क व उच्च कोटि की अनिवार्य नैतिक व सामयिक शिक्षा का प्रबन्ध करना होगा। लोगों के जीवन से मांसाहार, मदिरापान, नशा, तम्बाकू व तामसिक भोजन को छुड़ाने के साथ उनमें वैदिक ग्रन्थों, सत्यार्थ प्रकाश व व्यवहारभानु आदि के नियमित व दैनन्दिन स्वाध्याय की आदत डालनी होगी। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि सत्यार्थ प्रकाश ईश्वर ज्ञान वेदों की व्याख्या मात्र है न कि अन्य मतों व धर्मों की भांति कोई साम्प्रदायिक ग्रन्थ। यदि हमारे सभी दलित, पिछड़े बन्धु व परिवार अपने जीवन से नशा, मांसाहार, तामसिक भोजन छोड़कर वेदों व विज्ञान आदि की शिक्षा पर अधिकाधिक ध्यान देने के साथ वैदिक ईश्वरोपासना एवं अग्निहोत्र यज्ञादि कर्तव्यों का पालन व शाकाहारी भोजन, फलाहार, गोदुग्धाहार करने पर ध्यान दें, तो उनका सुधार व उत्थान हो सकता है। आर्यसमाज इस कार्य में उनका सहयोग कर सकता, यदि वह लेना चाहें। परन्तु आजकल नैतिक उत्थान चाहने वाले लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं। आपके बहुमूल्य समाज सुधार के पक्षधर सभी विचारों का हृदय से सम्मान करता हूं और आपको हार्दिक धन्यवाद देता हूं।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख. महर्षि ने आर्य समाज के लिए जो दस नियम तय किये थे, उनसे ही यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक देश वासी की उन्नति हो इसकी कैसी इच्छा स्वामी जी में थी. सदा समाज के हित में सोचने वाले ऐसे महामानव बिरले ही होते हैं.

    • Man Mohan Kumar Arya

      धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपकी अभियुक्ति युक्ति युक्त है। महर्षि दयानंद के सारे कार्य मानवमात्र के हितकारी हैं एवं उनमे देश काल का पक्षपात नहीं है परन्तु लोग अपने आप को अपनी पूर्व धारणाओं व मतमतांतरों की संकीर्ण मान्यताओं से मुक्त नहीं कर पाये। इसके लिए इन मतों के मठाधीश भी अपने पन्थानुयायिओं को दिग्भ्रमित करने के दोषी हैं। जिस प्रकार परमात्मा ने निष्पक्ष होकर यह सृष्टि प्राणिमात्र के सुख भोग के लिए बनाई है उसी का अनुसरण कर महर्षि दयानंद जी ने भी अपनी सभी मान्यताएं और सिद्धांत सभी मनुष्यों के हित व कल्याण के लिए प्रस्तुत वा प्रचारित किये। इसमें उन्होंने अपने और पराये का पक्षपात नहीं किया है।

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