स्मृति के पंख – 20
सन् 1941 में बेटी निर्मला का जन्म हुआ। जैसा कि राज और पृथ्वीराज को छोटी उमर में खिलाता रहा था, निर्मला को वैसे नहीं खिला सका। और कुछ समय बाद बहन रामसेना के लड़के रामप्रकाश का जन्म हुआ। उसके बाद बहन की टांगों में तकलीफ रहने लगी। थोड़े समय बाद उनका देहान्त हो गया। रामप्रकाश के छोटा सा रह जाने पर हमने दूसरी बहन शांतिदेवी का रिश्ता भी दीनानाथ से कर दिया। जिसकी शादी हमारे रिसालपुर जाने के बाद हुई। मशीन का काम संभालना भ्राताजी के बस की बात ना थी। उसने अपने ससुराल वालों को बुला लिया। भ्राताजी अक्सर बाहर होते। मशीन पर उनके ससुरजी और साले साहब काम करते। जब कभी भ्राताजी से भेंट होती उन्हें परेशान ही देखता। उन्होंने मुझे कभी कुछ नहीं कहा और मैं भी पूछने की हिम्मत ना कर सका।
इस दौरान भ्राताजी ने निजदे पेशावर बम्बी में दूसरी मशीन लगी लगाई खरीद ली। उस पर उसने ससुरजी को जिसका नाम लाला दुनीचन्द था भेज दी, लेकिन कुछ दिन बाद ही मेरे पास आये और कहने लगे थोड़े अर्से के लिये तुम बम्बी वाली मशीन पर चले आओ। बहुत मुश्किल था, पिताजी बहुत बीमार थे। दुकान और कारोबार की थोड़ी हालत अब संभाली थी। फिर भी भ्राताजी का कहना टाल ना सका और बम्बी चला गया। भ्राताजी मुझे समझा गये, इतना डीजल खत्म होने पर इतनी पिसाई की रकम होनी चाहिये। तकरीबन 25 बोरी जौ और बीस बोरी गंदम स्टाक में है। खत्म होने पर मंडी से अनाज खरीद लेना।
मैं वहाँ चार-पांच दिन ही रहा। एक स्कूल का मास्टर मेरे पास आया और कहने लगा बहुत रद्दी आटा भिजवाया है। तुमने कांशीराम तो बहुत ख्याल रखता था। मैंने कहा वापिस भिजवा दो, मैं आटा बदल दूँगा। थोड़ी देर बाद जब लाला दुनीचन्द, जिनको मैं मासड़जी कहा करता था, आये तो मैंने पूछा, ‘मास्टरजी आटे के बारे में बहुत शिकायत कर रहे थे।’ मेरी यह बात सुनकर जैसे उसे घबराहट सी होती है और जेब से पैसे निकालकर कहने लगा, ‘हां मास्टर आटा ले गया था। मैंने अभी रोकड़ में दर्ज नहीं किया।’ तो मुझे ऐसे लगा जैसे यह पैसे उसने जेब में ही रख लिये थे। मुझे तो रात को नींद ही नहीं आई। दूसरे दिन मैं वापिस चला आया। भ्राताजी को सिर्फ इतना कहा, मैं वहाँ नहीं रह सकता। कल आप पूछोगे कि काम का क्या बना, तो मैं आप कोई जवाब ना दे पाऊंगा। मेरा मशवरा है उस मशीन को वहाँ से उठवा कर यहाँ किसी नजदीकी गाँव में लगवा लो, जहाँ से दोनों की देखभाल कर सको। मेरी सलाह उन्हें अच्छी लगी और वहाँ से उठवाकर शिशदी के नजदीक वे बाराबाड़ा में लगवा ली। कुछ समय तो भ्राताजी ने काफी दौड़धूप भी की और मेहनत भी, लेकिन नतीजा अच्छा नहीं निकला। नुकसान और परेशानी बढ़ती गई।
इन्हीं दिनों हमने हरिद्वार जाकर पृथ्वीराज के मुंडन संस्कार करने का इरादा किया। भ्राताजी तो जा ना सके, हमारे साथ गये थे हरिकिशन खन्ना और विद्या बहन, ईश्वर सिंह और उनके बीवी बच्चे, इंद्रसेन मेरा साला और उनकी बीवी, मंगलसेन धवन और उनके बीवी बच्चे। इस यात्रा में खूब आनन्द रहा।
कुछ अर्सा बाद भ्राताजी आये कहने लगे, ‘एक बात है, जिसकी मुझे चिन्ता है। मैं बारांबाड़ा रहता हूँ, ससुराल वाले रिशक्की। मेरे से उन्होंने एक हजार रुपये का स्टाम्प लिखवाया है, जबकि मुझे एक दफा तीन सौ रुपये की बहुत जरूरत थी, उनसे लिये थे और अभी तक दे नहीं सका। एक तो मुझे मुनाफा नजर नहीं आता दूसरे स्टाम्प वाली बात खटकती है। मैं उनसे जान छुड़ा कर वह मशीन फिरोख्त करवाना चाहता हूँ। तीन सौ रुपया मेरे पास है नहीं, इसीलिये बात नहीं कर पाता। मैंने कहा कोई चिंता की बात नहीं है। अगर आपकी ऐसी मर्जी है तो रुपया लेकर उनसे बात कर लेते हैं। मेरे पास दुकान पर तो रुपया नहीं था। इतनी रकम भी उन दिनों बहुत भारी रकम होती थी। लेकिन मेरी हर जरूरत सकीना से पूरी हो जाती थी। उस समय भी मैंने उससे पांच सौ रुपया लिया और भ्राताजी के साथ रिशक्की आ गया, जो हमारे गाँव से सिर्फ डेढ़ मील के फासले पर थी। जब मासड़जी से बात की तो उन्होंने कहा हमने तीन सौ लेना है। उसका ख्याल था, शायद हम रुपया नहीं दे सकते, लेकिन मैंने कहा, ‘स्टाम्प ले आओ और रुपया ले लो।’ स्टाम्प लेकर उनसे बोल दिया कि मशीन की चाबियां हमें दे दो। मकान में दो चार दिन रहना है तो रहो, हमने मशीन फरोख्त करनी है। और कुछ दिन बाद वह मशीन भ्राताजी ने फरोख्त कर दी। बारांबाड़ा वाली मशीन पर आटे की सप्लाई रिसालपुर छावनी भी करने लगे।
मेरा गाँव में अच्छा कारोबार था। सिर्फ पिताजी की बीमारी से बेहद परेशान था। काफी देसी, डाक्टरी इलाज कराने से कुछ फायदा ना हुआ। पिताजी को घर में बांधकर रखना पड़ता, क्योंकि बच्चे उन्हें परेशान करते और कभी किसी को पत्थर मार दिया, तो बहुत मुश्किल बनेगी। बांधते समय मुझे पिताजी बुरा भला कहते और मैं रोता रहता। कितना बदनसीब बेटा हूँ, पिताजी को बांध रहा हूँ। सन् 1943 को सुभाष का जन्म हुआ, पिताजी की दिमागी हालत ठीक न थी। फिर भी सुभाष के जन्म से वह बहुत खुश लगते। मुझे ऐसा लगता जैसे उनकी सोच ठीक हो रही है। इतना खुश पिताजी को थोड़े अर्से में कभी नहीं देखा था। टेकचन्द के जन्म पर भी सन् 47 में पिताजी इतने खुश नहीं थे, जितने आज थे। टेकचन्द का जन्म बहुत मन्नतों से हुआ था। भ्राताजी के इससे पहले लड़के मर जाते थे। टेकचन्द के लिये भगवान से प्रार्थनायें की गई कि मालिक इसको लम्बी उम्र देना।
अब भ्राताजी ने बाराबाड़ा वाली मशीन फरोख्त करके रिसालपुर छावनी में करियाना की दुकान खोल ली थी सदर बाजार में। दुकान के पीछे ही रिहायशी क्वार्टर थे। भ्राताजी काफी देर से इस दुकान की ख्वाहिश का इंतजार करते रहे। तकरीबन एक साल का इंतजार इस दुकान को मिलने में भ्राताजी ने बिताया और फिर वह रिसालपुर चले गये। वहाँ जल्द ही भ्राताजी का काम जम गया। उनको अकेले काम संभालना मुश्किल था और मुझे पिताजी की बीमारी के कारण चिंताओं ने घेर रखा था। भ्राताजी ने मेरे सामने तजवीज रखी रिसालपुर गाँव में इकट्ठा काम करने की। अकेले मेरे से काम संभाला भी नहीं जाता और पिताजी की देखरेख भी मिलकर कर लेंगे। आखिर तो हमने गाँव छोड़ना ही है। शहरी जिन्दगी देहाती जिन्दगी के अपेक्षा बहुत अच्छी है। परन्तु मैं दो बातें सोच रहा था। एक, कारोबार को छोड़ना जो कि गाँव में अब खासा अच्छा था मुश्किल था। दूसरे, भ्राताजी को भी बाहर बहुत ठोकरें खाते देख चुका था। लेकिन अब मुझे लगता कि अकेले भ्राताजी बाहर कामयाब नहीं हो सकते। फिर मैंने भ्राताजी के मशविरे से इत्तफाक कर लिया।
गाँव के लोग मेरे गाँव छोड़ने से बहुत खफा थे। लेकिन पिताजी की हालत देख उन्हें समझाना पड़ा। लेकिन चाचीजी और सकीना मेरे इस फैसले से बहुत नाराज थीं। चाचीजी ने घर आकर हमें बहुत समझाया हमारे सहन में अर्बी का बड़ा ढेर पड़ा था। उसने कहा बेटी गंगामूर्ति यह अर्बी भी बाहर मिलनी मुश्किल होगी, जैसा कि अब आपके पास ढेरों पड़ी है। अगर तुम्हें रुपये की जरूरत है, तो मैं किशोरी को कह कर रुपये की मदद भी कर सकती हूँ। उन दिनों किशोरी लाल तलवाड़ भाईयों में सबसे अच्छा कमाता था। मरदान में सेना में मैनेजर था। चाचीजी मुझे अपने नौ बेटों की तरह ही अपना एक बेटा समझती। लेकिन हम मजबूर थे। जो फैसला हो चुका था। उसे बदलना मुश्किल था। दुख तो मुझे भी बहुत था गाँव छोड़ने का, लेकिन लगता अब गाँव छोड़ना ही पड़ेगा। सकीना ने तो बोलचाल ही बंद कर दी, लेकिन जब कभी उसे मिला, वह बहुत मायूस थी और फिर हमने गाँव छोड़ दिया।
(जारी…)
कितने मुश्किल दिन थे वोह , एक तरफ पिता जी बीमार और दुसरी तरफ आर्थिक मुश्कलें .जिंदगी कितनी गुन्झालदार है .
लेखक के व्यक्तित्व, विचार शक्ति एवं पारिवारिक निर्णयों से प्रभावित हूँ।
लेखक और उनके बड़े भाई ने आजीविका के लिए कितने कष्ट उठाये थे, सोचकर ही आश्चर्य होता है.