धर्म नहीं, श्रेष्ठता की होड़ है असल समस्या
क्या कभी आपने इस विषय पर कहीं भी, कभी भी कोई डिबेट या विश्व स्तरीय चर्चा आदि होते देखा या सुना है कि मनुष्य प्राणी विश्व के अन्य जीवों से श्रेष्ठ है या नहीं ? मेरे ख्याल से मनुष्य प्राणी ही सर्वश्रेष्ठ है; इस नतीजे पर पहुंचाने वाली ऐसी कोई डिबेट या चर्चा के जिक्र की संभावना भूतकाल में खोजने पर आदिमानव काल के अंत तक भी शायद ही कहीं मिले! क्यूँकि तब भले ही आज की भाँति मनुष्य और विज्ञान दोनों अपनी उपलब्धियों के चरम पर नहीं थे, अपितु विज्ञान का तो आरम्भ भी नहीं हुवा होगा | फिर भी मनुष्य प्राणी ने केवल अपने आप को जीवित और सुरक्षित रखने के तरीकों की अन्य प्राणियों की तुलना से ही यह जान लिया होगा कि भले ही शारीरिक क्षमता में कोई प्राणी उससे ज्यादा शक्तिशाली होगा, लेकिन इस क्षमता से भी बढकर उसके पास कुछ ऐसा है जो उसे उसके इस कमी को मात देकर बड़ी सहजता से उस शक्तिशाली प्राणी से अंत में श्रेष्ठ ही साबित करता है | और वह कुछ और कुछ नहीं बल्कि उसके अन्दर हर बात के लिए उठते क्यूँ ? कैसे ? कब ? आदि सवाल हैं| जो भूख प्यास की तरह शरीर के किस हिस्से में पैदा हो रहे हैं इसका भी पता न होने के बावजूद उसे बेचैन कर उनके जवाब पाने पर मजबूर कर देते हैं| और वह बाकी प्राणियों से ज्यादा सुरक्षित और ज्यादा अच्छा अपने आप को साबित होता देख पाता है ! लेकिन यही प्रक्रिया अन्य प्राणियों में या तो है ही नहीं या फिर उतनी प्रगतिशील नहीं जो उन्हें इंसानों से आगे ले जा सके यह सिद्ध होते ही मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ होने का बिगुल बज गया होगा और जो आज तक बज रहा है और उसपर किसी को कोई आपत्ति न कल थी, न आज है और न भविष्य में कभी रहेगी !
यहाँ मेरा आपको मानव उत्क्रांति पर ज्ञान झाड़ने का कोई उद्देश्य नहीं है ! फिर भी मैं चाहूँगा कि इस क्रम की हर एक सीढ़ी को आप गौर से जानें| इसमें जो श्रेष्ठता नामक एक अदृश्य भाव ने मनुष्य के अन्दर जन्म लिया वह कितना बेदाग़ और दुनिया में न केवल मनुष्य बल्कि अन्य सभी प्राणियों की उन्नति के लिए कितना सार्थक रहा ये जान पायेंगे | साथ साथ वही भाव आज की दुनिया आते आते अपने मूल निकशों से किस तरह भटक गया है ये श्रेष्ठता को लेकर उत्पन्न इन दोनों स्थितियों से आप भलीभांति परिचित होंगे | और इस लेख के उद्देश्य तक बिना किसी पूर्वाग्रह के पहुँच पायेंगे | ऐसा निवेदन मैं इसलिए करने पर मजबूर हूँ क्योंकि आज श्रेष्ठता की यह बीमारी सबसे अधिक कहीं पाई जाती है तो वह है धर्म ! और शायद ही कोई होगा जो धर्मों पर एक प्रकार के इस आरोप से असहमत होगा | हर धर्म का हर अनुयायी भले ही खुद ये कभी न कहता हो लेकिन दुनिया की यह दुर्गति दुनिया में धर्म श्रेष्ठता के होड़ की ही वजह से है ये तो वो जान ही रहा है ! मगर फिर भी अच्छे से अच्छे बुद्धिजीवी, अच्छे खासे पढ़े लिखे मॉडर्न लगने वाले लोग भी जहाँ धर्म के श्रेष्ठता की बात छिड़ी कि उसमे अपने धर्म की इज्जत बचाने या बढाने के लिए मुंह खोले बिना नहीं रह पाते !
आप अब अपने आप को ही देखिये आगे कुछ पढ़ने से पहले अवश्य ही आपने अब इस लेख के लेखक के नाम को पढ़ा होगा और नाम से ही ये आगे किस धर्म के श्रेष्ठता को चुनौती देने वाला है इसका अंदाजा लगा लिया होगा ! क्यूँ, सच कह रहा हूँ न ? और अब ये मेरे धर्म की श्रेष्ठता पर जितने सवाल उठाएगा उसका मुंहतोड़ जवाब देकर लेखक के अनुमानित धर्म के श्रेष्ठता की किन किन बातों से ऐसी की तैसी करूँगा इसका गणित भी आपके दिमाग में शुरू हो गया होगा ! बिलकुल !! कुछ लोग तो केवल इसी काम की वजह से इतने मशहूर हैं की इससे उनके मजहब को कम उन्हें खुद बहोत फायदा हो रहा है ! लेकिन इस लेख का यह विषय नहीं इसीलिए मूल विषय पर यहाँ तक आते आते उपजे इस सवाल पर आते हैं की क्या अपनी श्रेष्ठता का दावा करना गलत है ?
नहीं ! लेकिन इसके उत्तर के लिए हमें श्रेष्ठता को लेकर उसके दो महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देना होगा :-
१.जैसा की हमने शुरू में ही देखा कि श्रेष्ठता की भावना ही तो मानव उत्क्रांति की वह पहली सीढ़ी थी जिसने उसका जाने अनजाने विकास से परिचय कराया और एक आदिमानव को आज के मनुष्य तक का सफ़र तय कराया !
२. श्रेष्ठता न सिर्फ मनुष्य के बल्कि मनुष्यों से कनिष्ठ साबित हो चुके अन्य प्राणियों के अपने अपने समूह में भी आजीवन उनके जीवनचक्र से जुडी एक स्वाभाविक प्रक्रिया भी है यह तो अब हम कई नेशनल जियोग्राफी आदि कई चैनलों में देख ही रहे हैं कि चीटीं से लेकर शेरो तक में कोई न कोई एक अन्य से श्रेष्ठ होता है |
इसीलिए अपने अस्तित्व से जुडी किसी भी बात की श्रेष्ठता का दावा करना , उसपर अभिमान करना यह एक प्राकृतिक अभिव्यक्ति है ! ये होनी भी चाहिए ! लेकिन पहले आपकी श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति को ऊपर दिए श्रेष्ठता के जन्म और अस्तित्व से जुड़े दोनों पहलुओं की कसौटी पर जांच लेना चाहिए !
१. जिसमे पहली कसौटी है जरुरत ! क्या हम आज आदिमानव है ? नहीं | फिर ? हम उन्नत हैं ? बिलकुल हैं , पहले से कहीं उन्नत है ! तो फिर जाहिर है की हमें अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी आदिमानव को रही होगी !! पहली कसौटी तो यह है कि आज हमें अपनी किसी बात को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की कितनी जरुरत है ?
२. दूसरी आखिर हमें अपने आप को किस की तुलना में श्रेष्ठ साबित करना है ? उत्क्रांति के शुरूआती दौर में तो अन्य जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ है ये साबित होना मनुष्य के लिए जरुरी था क्योंकि अगर मनुष्य यह नहीं जान पाता तो निश्चित ही आज भी नंग-धडंग दिनभर केवल खाना खोज रहा होता ! लेकिन आप अपने आसपास देखिये कोई भी स्वस्थ इंसान आपको इस स्थिति में नहीं मिलेगा लेकिन अन्य जीव अब भी उसी स्थिति में हैं इसीलिए हम मनुष्य भी उनसे श्रेष्ठ के ओहदे पर बने हुवे हैं ! इसमे कोई शक शुबा होने की भी कोई गुंजाइश नहीं | तो मतलब आज भी दुनिया में ऐसे किसी सजीव का अस्तित्व नहीं है जिससे मनुष्य की श्रेष्ठता को चुनौती मिल सके ! फिर ? हमें अपने आप को या अपने से जुडी किसी बात को आखिर किसकी तुलना में श्रेष्ठ साबित करना है ?
अब अगर जरुरत है या नहीं यह तय करना हो तो हर उस स्थान को दिखिए जहाँ एक से ज्यादा लोग कुछ समय के लिए इकठ्ठा होते हो ! दूर से तो नहीं लेकिन उनके करीब आने पर आप को जरुर महसूस होगा कि कोई वहां अन्य से श्रेष्ठ स्वयं प्रतीत हो रहा है या फिर कोई ऐसा प्रतीत करवा रहा है !! और जहाँ इस अघोषित अपने आप जन्म लेती श्रेष्ठता का संतुलन बिगड़ा कि उसके बाद का नजारा आप रोज ख़बरों में देखते ही हो !
अब सवाल यह है की किसी न किसी का श्रेष्ठ होना या बनाया जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया या जरुरत है तो फिर इससे विवाद उत्पन्न होने का क्या कारण है ? कारण ये है कि श्रेष्ठता का अस्तित्व किसी न किसी की कनिष्ठता पर पूर्णत: निर्भर होता है ! तो जाहिर है जहाँ किसी का किसी से कनिष्ठ होना प्राकृतिक रूप से ही सिद्ध हो तो वहां उस कनिष्ठ ठहराए गए प्राणी को कोई आपत्ति नहीं होने से कोई विवाद नहीं होगा! और ये भी जाहिर है कि जहाँ विवाद है वहां किसी को किसी से कनिष्ठ होना स्वीकार्य नहीं होगा ! तो अब तक के लेख से यह भी जाहिर है कि जहाँ ऐसा विवाद होगा वहां सभी मनुष्य और सिर्फ मनुष्य ही होंगे ! क्यूँकि मनुष्यों को कनिष्ठ ठहरा सके ऐसा कोई सजीव अस्तित्व में होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता ! तो अब मनुष्य इस श्रेष्ठता की जरुरत को पूरी करे तो कैसे करे ? क्यूँकि एक छोटे से कुटुंब से लेकर राष्ट्र तक के समूह में उसके सुचारू रूप से संचालन हेतु मुखिया की जरुरत तो आज भी बरकरार है |
इसकी आधुनिक काल से पहले की स्वाभाविक और पारम्पारिक प्रक्रिया तो यह थी कि मुखिया उसी को स्वीकारा जाता है जो श्रेष्ठ हो ! और श्रेष्ठ होने के लिए किसी का मनुष्य भर होना पर्याप्त नहीं था तो ऐसे में करते तो क्या करते ? उन्होंने किसी की अन्य मनुष्यों से ज्यादा शारीरिक या ज्यादा प्रतिभायुक्त क्षमताओं को काल्पनिक दैवी शक्तियों से जोड़ना शुरू किया और उसे अपने समूह के निर्विवाद रूप से मुखिया बनाने का रास्ता खोज लिया | लेकिन बात यहीं तक थोड़े ही न थी ! अब अपने समूह को अन्य से ज्यादा श्रेष्ठ साबित कर उस क्षेत्र का मुखिया बनने जरुरत भी इसी स्वाभाविक क्रम का हिस्सा थी ! आज के सभी धर्म इसी के उदहारण है ! तो अब तक समाज में संचालन हेतु श्रेष्ठता की जरुरत को आधुनिक काल से पहले तक धर्म और उस धर्म के जन्मदाताओं ने पूरा किया !
और हम देखते हैं की इसी क्रम में विज्ञान युग की शुरुआत के बाद आज तक किसी नए धर्म के निर्माण या उसके निर्माता का कोई उदाहरण नहीं मिलता ! क्यूँकि जिस मुखिया को तय करने की प्रक्रिया के लिए श्रेष्ठता की जरुरत थी वह मुखिया और उसके लिए जरुरी श्रेष्ठता इन दोनों के पैमाने अब बदल चुकें हैं ! इसीलिए आज किसी भी देश का नेता चुनने की प्रक्रिया में धर्म और उस धर्म द्वारा निर्धारित श्रेष्ठता की कसौटियों का कोई इस्तेमाल नहीं होता और यहाँ तक की किसी धर्म के नाम से जाने जाने वाले देशों में तक इस काम के लिए अलग से संविधान है !! धर्म और धर्मग्रन्थ इस काम के लिए पूरी तरह अप्रासंगिक साबित हो चुके हैं !
तो यहाँ इस लेख से सिद्ध होता है कि एक तो हमें अब व्यक्तिगत रूप से किसी की भी श्रेष्ठ्ता को साबित करने की जरुरत ही नहीं रही ! और उसमे भी किसी धर्म द्वारा निर्धारित इश्वर या इश्वर द्वारा निर्धारित धर्म की श्रेष्ठता पर लड़ना तो निहायती बेवकूफाना होगा ! हाँ आप व्यक्तिगत रूप से मानिए ! लेकिन जहाँ मनवाने की कोशिश की वहीँ से आपका पुन: आदिमानव काल में सफ़र शुरू हो जाना तय होगा !
ऐसा किसी से मनवाना किसी धर्मग्रन्थ में लिखा भी हो तो मानव और मानव समूह के विकास के पडावों को देखते हुवे वह उस समय की हर समूह की मर्यादित क्षेत्र की छोटी से सीमा में एकवाक्यता रहे इस हेतु उस समय की प्रासंगिक जरुरत के लिए लिखा होगा न कि इतनी बड़ी दुनिया के अलग अलग भौगोलिक क्षेत्र के अलग अलग शारीरिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के सभी इंसानों को एक ही धर्म में रहने पर मजबूर करने के लिए लिखा होगा ! अगर इतना समझने लायक आज का मनुष्य नहीं होगा तो वास्तव में उसे अन्य जीवों से श्रेष्ठ कहलाने का हक़ नहीं रहेगा ! क्यूँ की जानवर भी शिकार कर के केवल अपने भोजन हेतु किसी दुसरे प्राणी को मारता है लेकिन किसी प्राणी को उसके लिए बनी जमीं में रहने से रोकता नहीं है और न ही अपनी ही गुफा में रहने की जिद करता है |
धर्म एक तात्कालिक व्यवस्था है! और हर धर्म में किसी समुह को श्रेष्ठ बनाने के लिए किसी अन्य को कनिष्ठ साबित करने के जो तरीके इश्वर या ईश्वरीय ग्रंथो के नाम से लागू किये गए इसके लिए यह श्रेष्ठता की होड़ ही जिम्मेदार है जिसे अब अपने समर्थन के लिए ईश्वरीय वाणी माने जाने वाले किसी ग्रन्थ की भी दरकार नहीं बची ! कुरान में शिया सुन्नी जैसा कुछ भी न लिखा होने के बावजूद दुनिया जो आज देखने पर मजबूर है ये उसी का नतीजा है ! उसी तरह ईसाईयों में भी कई मतप्रवाहों ने अपने अपने श्रेष्ठता को बरकरार रखने के लिए उस धर्म को कई पन्थो में विभाजित कर दिया ! हिन्दुओं ने बौद्ध , जैन , सिख आदि धर्मो को खुद से जनित घोषित कर दिया ! ये वास्तव में धर्म के श्रेष्ठता की होड़ ही है जिसके परिणाम एक आस्तिक और मासूम धर्मावलम्बी भुगतता है क्यूँकि उसे अपने पक्ष को सही साबित करना इज्जत का सवाल बन जाता है !
मुझे ये समझ नहीं आता की आखिर कोई अपने धर्म को प्रमोट करना ही क्यों चाहता है ? जब की वह खुद इसे ईश्वर रचित मानता है ! क्या सूरज की रोशनी को प्रमोट करना पड़ता है ? पानी को कोई जल कहे या फिर H२O लेकिन इससे उसके गुणों में कोई फर्क पड़ जाता है ? और अगर इसे मार्केटिंग कहे तो जब ये कहेंगे कि फल को मत देखो सिर्फ पेड़ की कीमत लगाओ तो ये कैसे संभव है ? और अगर इसमे इनकी कोई परोपकार की ही भावना है तो भाई धर्म प्रचार से होने वाले पूण्य से ज्यादा पूण्य प्राप्ति के ,परोपकार के और भी कई काम है जो आप ही के धर्म ग्रंथो में लिखे पड़े है ,उनको करो ! ताकि चावल के एक दाने से लोग जान सके कि चूल्हे में कितना दम है ! लेकिन आप इन सब को छोड़ सीधे झंडा उठाकर प्रचार के लिए निकल पड़ते हो ! पहले साबित तो करो कि आप का निमंत्रण बीरबल की खिचड़ी की दावत का नहीं है !!
आपने एक साधारण से काल्पनिक प्रश्न पर इतना बड़ा लेख लिख दिया, इसी से सिद्ध होता है कि स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की प्रवृत्ति आपमें भी है. व्यक्तियों में, दलों में, धर्मों में होड़ होना और दूसरों से स्वयं को बेहतर साबित करना भी ऐसी ही स्वाभाविक बात है. यह इसलिए भी जरुरी है कि अन्य विरोधी या प्रतिस्पर्धी अपने लोगों का बहकाकर पथभ्रष्ट न कर दें.
बाकी आपका लेख अंग्रेजी की इस कहावत का उदाहरण कहा जा सकता है- Much a do about Nothing.
आदरणीय सम्पादक महोदय टिपण्णी के लिए धन्यवाद ! आपकी टिपण्णी पर बस इतना ही कह सकता हूँ की श्रेष्ठता अपने लिए चुनौती की गुंजाइश हमेशा रखती है लेकिन अहंकार सीधा फैसला सुनाता है !