कविता

~औरत की कीमत ~


आदमियत क्यों हर बार
भारी पड़ जाती है
औरत क्यों हर बार
दबी-कुचली बनी रह जाती है|
औरत क्यों ताकतवर होते हुए भी
कमजोर सी हो जाती है
औरत क्यों हर हाल में
हारी-हारी सी स्वंय को पाती है|

कितनी भी ऊँचाईयाँ छू ले
पर मर्दों की नजरों में
क्यों नहीं ऊँचाईयाँ पाती है
औरत क्यों स्वयं को ठगा सा पाती है
जिस दुनिया को बनाया उसी में खो जाती है
खुद को खोकर भी खाली हाथ रह जाती है
औरत क्यों ठगी-ठगी सी रह जाती है|

हर हाल हर परिस्थिति में
अपने को ढाल लेती है
मर्दों पर भी राज कर लेती है
फिर भी क्यों नजरों में ओ़छी होती है
इन मर्दों की जननी औरत
मर्दों में ही सम्मान नहीं पाती है
मर्दों की हाथ का क्यों
खिलौना बन रह जाती है
कुछ भी कितना भी कर ले
अंततः मर्दों की ही बात रह जाती है|

औरत की कीमत क्यों
मर्दों के आगे कम हो जाती है
औरत दुर्गा,सरस्वती ,काली है
पर मर्दों की दुनिया में क्यों खाली-खाली है|
+++ सविता मिश्रा +++

 

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

One thought on “~औरत की कीमत ~

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता, बहिन जी.

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