स्वास्थ्य

बीमार रहने का शौक

शीर्षक पढ़कर चौंकिये मत! बहुत से लोग होते हैं जिन्हें बीमार रहने और दवाइयां खाते रहने का शौक होता है। यह एक मानसिक बीमारी है। वे यह मानते हैं कि दवाइयां खाये बिना कोई जी ही नहीं सकता और स्वस्थ रह ही नहीं सकता। डाक्टर लोग भी अपने स्वार्थ के लिए उनके मन में यह बात बैठा देते हैं कि जिंदगी भर दवायें खाते रहो, ठीक रहोगे।

इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है। वे लोग अपने मिलने-जुलने वालों को अपनी बीमारियां गिनाते हैं और उनकी सहानुभूति प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। इसके साथ ही वे घमंड से यह भी बताते हैं कि उन्होंने अपने इलाज में इतने लाख या हजार रुपये खर्च किये हैं। (और अपने मन में कहते हैं ‘अबे, तेरी क्या औकात है?’)

ऐसे लोगों को विधाता भी ठीक नहीं कर सकता, क्योंकि जब उनसे अपना खान-पान सुधारने और कुछ योग-व्यायाम करने के लिए कहा जाता है, तो नहीं करते। वास्तव में वे कुछ करना ही नहीं चाहते और ऐसी जादू की पुड़िया या गोली की तलाश में रहते हैं जिसके गटक लेने से वे सही हो जायें। पर ऐसी कोई पुड़िया या गोली नहीं होती। इसलिए वे जिंदगीभर बीमार बने रहते हैं, दवायें खाते रहते हैं और अन्त में किसी अस्पताल में भरती रहकर परलोक सिधार जाते हैं।

ऐसे लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि दवायें खाना स्वास्थ्य का नहीं बीमारी का लक्षण है। बीमार रहना और दवायें खाना स्वाभाविक नहीं, बल्कि एकदम अस्वाभाविक बात है। केवल खान-पान सुधारने और थोड़ा सा समय योग-व्यायाम में देने पर वे सरलता से स्वस्थ हो सकते हैं और दवाइयों से छुटकारा पा सकते हैं। यदि अभी तक उनको कोई सही मार्गदर्शन करने वाला नहीं मिला, तो मेरी सलाह ले सकते हैं। मैंने पिछले 18 वर्षों से एक पैसे की भी दवा नहीं खायी है और पूर्ण स्वस्थ एवं क्रियाशील हूं। सलाह लेने के इच्छुक लोग मुझे ईमेल कर सकते हैं- [email protected]

विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “बीमार रहने का शौक

  • Man Mohan Kumar Arya

    श्री विजय जी का पूरा लेख एवं श्री गुरमेल सिंह जी के कमेंट्स पढ़े. लेख व कमेंट्स दोनों ही लाभप्रद हैं। आप दोनों ने जो बाते लिखी हैं वह आपके गहन अध्ययन एवं अनुभवों का परिणाम हैं। मैं स्वंय को भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे यह सब जानने का अवसर मिला हैं। आभार एवं धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप का छोटा लेख खालस सोना ही है और लोग इस को फालो करें तो तन्दृसत रह सकते हैं . मैं भी अभी तक जिंदा हूँ तो सिर्फ अपने बल बूते पर वर्ना आज कब का बिस्तरे में पड़ा होता . वैसे मशवरा भी है कि पहले तो अपनी खुराक का खियाल रखना चाहिए और दुसरे रोजाना वय्याम करना चाहिए . अगर कोई बीमारी आ भी जाए तो किसी अछे डाक्टर से इलाज करवाना भी चाहिए और साथ ही अपनी गल्तिआं भी सुधारते जाना चाहिए और जब अच्छी खुराक और ऐक्सर्साइज़ से ठीक हो जाएँ तो धीरे धीरे दुआइआन भी घटाते जाइए . मैंने देखा है कि यह हिउमन नेचर है कि पहले तो हम एक दम ऐक्सर्साइज़ शुरू कर देते हैं फल फ्रूट भी खाने लगते हैं , फिर अचानक धीरे धीरे भूलना शुरू कर देते हैं जिस से इतना नुक्सान हो जाता है, जैसे सट्रोक या हार्ट अटैक कि संभलना मुश्किल हो जाता है . यह एक तपस्य ही है जिस को रीलिजिअसली फालो करना चाहिए . दुसरे हर एक का इमूनसिस्तम इलग्ग इलग्ग है . कुछ लोग बहुत कम खाते हैं लेकिन फिर भी मोटे रहते हैं , कुछ लोग जी भर कर खाते हैं , फिर भी सलिम रहते हैं . इस की उधाहरण मैं खुद की देना चाहूँगा . मैं अपनी पत्नी से कम खाता हूँ फिर भी सारी उम्र वज़न कम करने की कोशिश में बिता दी लेकिन फिर भी कुछ भारी ही हूँ . मेरी पत्नी शुरू से ही साढ़े आठ स्टोन ही रही है . अगर मैं मामूली सा भी इग्नोर करूँ तो भार जल्दी बड जाता है लेकिन मिसज़ को कोई फर्क नहीं पड़ता , इसी लिए किसी को बीलीव ही नहीं होता कि वोह ६८ की है और क्रिसमस को ६९ हो जायेगी . वोह ५० की लगती है और इसी तरह मेरी बड़ी बेटी ४७ की है और वोह वोह इस तरह लगती है जैसे अभी उस की शादी ही नहीं हुई और छोटी बेटी उस से बड़ी लगती है , वोह हर दम भार घटाने के चक्कर में रहती है . फिर भी एक असूल तो है ही कि अच्छी खुराक और और रोजाना ऐक्सर्साइज़ अपनी सिहत के लिए उपयोगी ही है .

    • विजय कुमार सिंघल

      आपकी बात सवा सोलहो आने सच है, भाईसाहब !

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