स्मृति के पंख – 22
दूसरे साल भी वह जन्द्र हमने दस हजार रुपये ठेके पर ले लिया। पिछले साल से काफी महंगा था। फिर भी लगता था फायदा होगा। जिस बात का डर था खान के नाम से ही वह खत्म हो गया। जन्द्र की रोटी कभी-कभी सब्जी आलू की बना लेते, नहीं तो नहर पर पुदीना होता था। उसकी चटनी काफी सारी बना लेते, जैसे कि सब्जी हो। तंदूर की रोटी हरिकृष्ण बना लेता था। साथ में प्याज और लस्सी। बहुत स्वाद आता था उस खाने का। अब अनाज का भी राशन हो गया। सरकारी भाव गंदम का बीस रुपये मन था। जबकि जन्द्र में 40 रुपये मन आटा बिक रहा था। रात को चोरी छिपे खच्चरों पर लाद कर वह लोग ले जाते। दो दफा रास्ते में उनका नुकसान हो गया। जिस इलाके में गंदम ले जाते, वहाँ अनाज की बहुत कमी थी। हमने खान से इनकी बात कराई। खान ने कहा- दो घंटे के अंदर मैं लोगों को खतरे की हद से पार कर दिया करूँगा। इस दो घंटे में कोई आयेगा तो नहीं, फिर भी तुम्हें संभालना होगा। हम भी खुश थे कि हमारे पास भी स्टाक ना बचे तो ठीक है क्योंकि सरकारी भाव 20 रुपये मन था और हमसे 40 रुपये मन ले जाते थे। खान के साथ होते हुये भी वह लोग पूरी हिफाजत से रात को अपना माल ले जाते।
एक दिन थाना से सिपाही आया। कहने लगा- “आपको इंस्पेक्टर साहिब ने बुलाया है।” इंस्पेक्टर का नाम उसमान खान था और वह सुर्खपोश था। मुझे बिठाकर कहने लगा- “तेरे पास जन्दर है।” मैंने कहा- “ठीक है।” कहने लगा- “लोगों के लिये आटे गंदम का कोई बंदोबस्त नहीं है। न तो मरदान से मिल रही है, न ही पेशावर से आई है।” वह रिसालपुर में सिविल महकमे का जिम्मेदार आफिस इंस्पेक्टर पुलिस था और मिलेट्री का बिग्रेडियर। छोटी जगह थी। इंतजाम के लिये इससे ज्यादा कोई बंदोबस्त नहीं था। मिलेट्री स्टेशन होने की वजह से कारोबार अच्छा था। मैंने कहा- “जनाब तो मैं क्या खिदमत कर सकता हूँ।” उसने कहा- “जब तक यह किल्लत है, तुम आटे का बंदोबस्त कर दो। यह बातचीत खानदाना है। इसमें पुलिस का रौबदार और बजौर करने वाली बात नहीं है।” मैंने कहा- “जनाब गंदम राशन 20 रुपये मन है। हमारे जन्दर का 10000 सालाना का ठेका है। 10000 ऊपर खर्चा बैठता है। 20000 हजार कमा लूं तो जान बचेगी। फिर अपने बच्चों का भी पेट पालना है। इस भाव में गंदम फिरोख्त करके हम यह काम नहीं कर सकते। जन्दर में और देहात में 40 रुपये मन गंदम बिक रही है। इस नुकसान को कैसे पूरा करेंगे?” उसने कहा, ‘जो भी सोच सकते हो, सोचो। तुम्हें भी नुकसान न हो और लोगों को भी आटा गंदम मिलता रहे। कुछ ही दिनों की बात है। इंसानी नाते ऐसा करना होगा।’ फैसला हुआ कि 3 हिस्सा गंदम 1 हिस्सा जौ, 15 बोरी आटा काफी होगा, यह तुमने देना होगा। मैं पर्ची डालूँगा, उसी हिसाब से सप्लाई करना होगा। मैंने कहा- ‘जनाब, एक अड़चन और है। यह जन्दर मरदान में है और आटा लाना होगा जिला पेशावर से, जो कानूनन मना है। अगर कभी माल पकड़ा गया तो?’ उसने जुबानी यकीन दिलाया कि अव्वल तो यह होगा नहीं, और हुआ तो मैं संभाल लूँगा।
रात को 2-3 बजे खान को हमराह लेकर 15 बोरी आटा रोजाना पहुँचाना और पर्ची पर तकसीम करना। सुबह ही लम्बी कतारें लगी होती। इस तरह कुछ दिन रिसालपुर की आटे की सप्लाई चलती रही सरकारी भाव 20 रुपये मन सुनकर हमने देहात से गंदम 25-30 रुपये मन शुरू कर दी। तकरीबन 500 बोरी का स्टाक हमारे पास था, जब एक रात पुलिस ने छापा मारा। स्टाक को ताला लगा गई। इतना स्टाक होना या रखना कोई जुर्म न था, जो आटा सप्लाई पेशावर जिला होता था वह जुर्म था केस चला। हरबाब साहब की अदालत में उसमान खान हमारी कानूनी मदद तो नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने एक सिफारिश हमें नौशहरा में हरबाब साहब के दिये ढूंढ़ दी।
हमारा डिफेन्स यह था कि नहर के एक तरफ का इलाका जिला पेशावर है और दूसरी तरफ जिला मरदान में है। इस दरम्यान नहर के अन्दर पानी में लकड़ी का चक्का घूमता है। मरदान और पेशावर के शामेलात इलाका में यह जन्दर है। अरबाब साहब की सिफारिश आदमी मिल कर आने के बाद थोड़ा हौसला हुआ, वरना काफी नुकसान व जुर्माने का भी डर था। पेशी पर हाजिर हुये तो अरबाब साहब ने कहा- “तांगा मंगाओ, मैं मौका देखने जाऊंगा।” दो तांगे मंगवाये, एक में अरबाब साहब, सरकारी वकील और पुलिस के दो आदमी थे, दूसरे में हम लोग बैठे। मौका देखने के बाद हमने चार रोटी का बंदोबस्त किया था लेकिन अरबाब साहब नहीं माने। उसने कहा- “तुम्हारी रोटी नहीं खानी” और दूसरी तारीख पर हमारे हक में फैसला दे दिया और लिखा कि दोनों जिलों के गंदम की सप्लाई भी आ सकती है और भेजा भी जा सकता है।
इन्हीं दिनों पेशावर से पिताजी के स्वर्गवास होने का तार आया। मैं घर पर नहीं था। मुझे इत्तलाह देने का समय भी न था। दूसरे दिन घर आने पर पता चला। सब घर वाले पेशावर चले गये थे। एक बदनसीब मैं था, जिन्हें पिताजी की मरने की खबर दूसरे दिन मिली। उनके आखिरी दर्शन भी न कर पाया और न ही उनकी अर्थी को कंधा ही दे सका। सिर्फ वह फोटो देख सका, जिसमें सुभाष हैरत से दादाजी की लाश को तक रहे हैं कि आज मुझे उठाते क्यों नहीं। रमेश का जन्म सन् 1945 में हुआ था।
मिलिटरी के दो सरदार भाई रिसालपुर में तकरीबन 400 फौजों की यूनिट का थोड़ा काम करते थे। भ्राताजी की उनसे काम करने की बातचीत हुई। भ्राताजी ने कहा मैं इसी यूनिट के साथ जा रहा हूँ मैं इनसे काम भी सीख लूँगा और काम अगर अच्छा हुआ (जैसा कि लगता है) तो अपना काम लेने की कोशिश करूँगा। भ्राताजी उनके साथ कोयम्बटूर पर चले गये। 6 माह तक उनसे काम रहा। उनके बाहर जाने पर मुझ पर बोझ तो पड़ा, लेकिन भ्राताजी की ख्वाईश थी और अब जन्दर का काम भी खत्म था। 6 माह में तकरीबन तीन हजार का मुनाफा हुआ और हमें काम अच्छा लगा। उसके बाद एक दूसरा ठेकेदार फारूख खान एण्ड ब्रदर्स रावलपिण्डी का था। मद्रास के 2000 फौजियों का काम था उनके पास। काम भी ज्यादा था और फौजी भी हिन्दू थे। भ्राताजी ने उनसे भी काम की बात की। पहले सरदार भाइयों ने सिर्फ काम दिया था, हमसे रुपये नहीं लिये थे, लेकिन फारूख खान एण्ड ब्रदर्स को 10000 हजार रुपये लगाने के लिये हमने कह दिया। बातचीत सब जुबानी थी। 10-11 हजार रुपया हमारा वहाँ लग गया। कुछ ही अरसा बाद रिसालपुर से नौशैहरा तब्दीली हो गई उनकी। भ्राताजी नौशेहरा आ गये। नौशेहरा कोई दूर न था, 2 या ढाई मील का फासला था। एक दूसरे की खबर दे सकते थे। लेकिन उसी दौरान पंजाब में गड़बड़ शुरू हो गई। मद्रास फौजियों को पंजाब भिजवा दिया गया।
(जारी…)
लेखक ने आजीविका के लिए बहुत कष्ट उठाये थे और मेहनत की थी. यह इस कड़ी से स्पष्ट होता है.
बहुत मुश्किल भरी जिंदगी पड़ कर समझ में आती है . पड़ कर एक बात मालूम हो जाती है कि उस वक्त हिन्दू मुस्लिम में इतनि नफरत नहीं थी जो बाद में होनी शुरू हुई .
लेख आद्योपांत पढ़ा। लेख के तथ्यों से परिचित हुआ। आत्मकथ्य के लेखक के जीवन व संघर्षों की जाकारी हुई। धन्यवाद।