मनुष्य समाज के लिए हानिकारक फलित ज्योतिष और महर्षि दयानन्द
ओ३म्
सृष्टि का आधार कर्म है। ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति तीन अनादि, नित्य और अविनाशी सत्तायें हैं। सृष्टि प्रवाह से अनादि है परन्तु ईश्वर के नियमों के अनुसार इसकी उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय-उत्पत्ति का चक्र चलता रहता है। जीवात्माओं को कर्मानुसार ईश्वर से जन्म मिलता है जिसमें वह पूर्व जन्मों के कर्मों का फल भोगते हैं व मनुष्य जन्म में पुराने कर्मों के भोग के साथ नये कर्म भी करते हैं। जीवन का उद्देश्य धर्म, कर्म, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। जो निष्काम कर्म किये जाते हैं वह मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते हैं और सकाम कर्म भोग अर्थात् जन्म-जन्मान्तर में सुख व दुःख की प्राप्ति कराते हैं। महाभारत काल व उसके बाद के कुछ सहस्र वर्षों तक यही मान्यता, सिद्धान्त व विश्वास समाज व देश-विदेश में प्रचलित रहे। महाभारत काल के बाद धीरे-धीरे सारे देश में अज्ञानान्धकार बढ़ता गया। उस काल में सुख व दुखों का आधार कर्मों पर आधारित न मानकर उसे ग्रहों व उपग्रहों आदि आकाशीय पिण्डों सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र आदि ग्रहों की स्थिति व उनके फलों को माना जाने लगा। इसके पीछे इसको प्रचलित करने वालों का अज्ञान व स्वार्थ ही मुख्य कारण दिखाई पड़ते हैं। अज्ञानता व अन्धविश्वासों के कारण फलित ज्योतिष ने समाज व देश में अपना स्थान बना लिया जिसके अनेक दुष्परिणामों में परतन्त्रता, दासता, निर्धनता, सार्वत्रिक पतन सहित विदेशियों व विधर्मियों की गुलामी भी सम्मिलित है।
ईश्वर की कृपा से देश के अच्छे दिन आये और ईश्वरीय ज्ञान वेदों से सम्पन्न अपूर्व महापुरूष महर्षि दयानन्द सरस्वती का सन् 1863 में सामाजिक जगत में आविर्भाव हुआ। उन्होंने देश व समाज को कमजोर व हानि पहुंचाने वाले एक-एक कारण का पता किया और उस पर अपने वैदिक ज्ञान के आधार पर प्रकाश डाला जिससे पतन समाप्त होकर सर्वत्र उन्नति हो सके। महर्षि दयानन्द ने फलित ज्योतिष से जुड़े ग्रहों आदि के मनुष्य जीवन पर वर्तमान तथा भविष्य काल में पड़ने वाले सुख व दुःखों रूपी प्रभावों पर भी प्रकाश डाला। उनके विचारों को पाठकों के लाभार्थ यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। ग्रहों का फल होता है या नहीं? इस प्रश्न को उपस्थित कर महर्षि दयानन्द इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि जैसा पोपलीला का है वैसा नहीं किन्तु जैसा सूर्य्य व चन्द्रमा की किरण द्वारा उष्णता व शीतलता अथवा ऋतुवत्कालचक्र के सम्बन्धमात्र से अपनी प्रकृति के अनुकूल प्रतिकूल सुख-दुःख के निमित्त होते हैं। परन्तु जो पोपलीला वाले कहते हैं कि ‘सुनो महाराज ! सेठ जी ! तुम्हारे आज आठवां चन्द्र सूय्र्यादि क्रूर घर में आये हैं। अढ़ाई वर्ष का शनेश्चर पग में आया है। तुम को बड़ा विघ्न होगा। घर द्वार छुड़ाकर परदेश में घुमावेगा परन्तु जो तुम ग्रहों का दान, जप, पाठ, पूजा कराओगे तो दुःख से बचोगे।’ इन से कहना चाहिये कि सुनो पोप जी ! तुम्हारा और ग्रहों का क्या सम्बन्ध है? ग्रह क्या वस्तु हैं? (ज्योतिषी पोपजी का उत्तर) दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः। ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्।। देखों ! कैसा प्रमाण है-देवताओं के आधीन सब जगत्, मन्त्रों के आधीन सब देवता और वे मन्त्र व देवता ब्राह्मणों के आधीन हैं इसलिये ब्राह्मण देवता कहाते हैं। क्योंकि चाहे जिस देवता को मन्त्र के बल से बुला, उसको प्रसन्न कर, काम सिद्ध कराने का हमारा ही अधिकार है। जो हम में मन्त्रशक्ति न होती तो तुम्हारे से नास्तिक हम को संसार में रहने ही न देते।
(सत्यवादी का पोप जी से उत्तर व प्रश्न) जो चोर, डाकू, कुकर्मी लोग हैं वे भी तुम्हारे देवताओं के आधीन तो होंगे? देवता ही उन से दुष्ट काम कराते होंगे? जो वैसा है तो तुम्हारे देवता और राक्षसों में कुछ भेद न रहेगा। जो तुम्हारे आधीन मन्त्र हैं उन से तुम चाहो सो करा सकते हो तो उन मन्त्रों से देवताओं को वश में करके, राजाओं के कोष उठवा कर अपने घर में भरकर बैठ के आनन्द क्यों नहीं भोगते? घर–घर में शनैश्चरादि के तैल आदि का छायादान लेने को मारे–मारे क्यों फिरते हो? और जिस को तुम कुबेर मानते हो उस को वश में करके चाहो जितना धन लिया करो। विचारे गरीबों को क्यों लूटते हो? तुम को दान देने से ग्रह प्रसन्न और न देने से अप्रसन्न होते हों, तो हम को सूय्र्यादि ग्रहों की प्रसन्नता अप्रसन्नता प्रत्यक्ष दिखलाओ। जिस को 8वां सूर्य, चन्द्र और दूसरे को तीसरा हो उन दोनों का ज्येष्ठ महीने में बिना जूते पहिने तपी हुई भूमि पर चलाओं। जिस पर सूर्य देवता प्रसन्न हैं उन के पग, शरीर न जलने चाहियें और जिस पर सूर्य देवता क्रोधित हैं उन के जल जाने चाहिये तथा पौष मास में दोनों को नंगे कर पौर्णमासी की रात्रि भर मैदान में रक्खें। एक को शीत लगे दूसरे को नहीं तो जानों कि ग्रह क्रूर और सौम्य दृष्टि वाले होते हैं। और क्या तुम्हारे ग्रह सम्बन्धी (रिश्तेदार) हैं? और क्या तुम्हारी डाक वा तार उन के पास आता जाता है? अथवा तुम उन के वा वे तुम्हारे पास आते जाते हैं? जो तुम में मन्त्र–शक्ति हो तो तुम स्वयं राजा वा धनाढय क्यों नहीं बन जाओ? वा शत्रुओं को अपने वश में क्यों नहीं कर लेते हो?
नास्तिक वह होता है जो वेदों के अनुसार ईश्वर की आज्ञा के विरूद्ध पोपलीला चलावे। जब तुम को ग्रहदान न देवे जिस पर ग्रह है, वही ग्रहदान को भोगे तो क्या चिन्ता है? जो तुम कहो कि नहीं हम ही को देने से वे प्रसन्न होते हैं अन्य को देने से नहीं तो क्या तुम ने ग्रहों का ठेका ले लिया है? जो ठेका लिया हो तो सुर्य्यादि को अपने घर में बुला के जल मरो। सच तो यह है कि सुर्य्यादि लोक जड़ हैं। वे न किसी को दुःख और न किसी को सुख देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु जितने तुम ग्रहदानोपजीवी हो वे तुम सब ग्रहों की मूर्तियां हो क्योंकि ग्रह शब्द का अर्थ भी तुम में ही घटित होता है। ‘ये गृहणन्ति ते ग्रहाः’ जो ग्रहण करते हैं उन का नाम ग्रह है। जब तक तुम्हारे चरण राजा रईस सेठ साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुंचते तब तक किसी को नवग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य शनैश्चरादि मूत्र्तिमान क्रूर रूप धर उन पर जा चढ़ते हो तब विना ग्रहण किये उन को कभी नहीं छोड़ते और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे उन की निन्दा नास्तिकादि शब्दों से करते फिरते हो।
एक अन्य प्रश्न पोपजी की ओर से महर्षि दयानन्द करते हैं कि देखो ! ज्योतिष का प्रत्यक्ष फल। आकाश में रहने वाले सूर्य, चन्द्र और राहु, केतु का संयोग रूप ग्रहण को पहले ही कह देते हैं। जैसा यह प्रत्यक्ष होता है वैसा ग्रहों का भी फल प्रत्यक्ष हो जाता है। देखो ! धनाढ्य, दरिद्र, राजा, रंक, सुखी, दुःखी सब ग्रहों के प्रभाव से ही होते हैं। ज्योतिषियों की इस मान्यता का महर्षि दयान्द जी का उत्तर है कि (सत्यवादी) जो यह ग्रहणरूप प्रत्यक्ष फल है सो गणितविद्या का है, फलित का नहीं। जो गणितविद्या है वह सच्ची और फलितविद्या स्वाभाविक सम्बन्ध जन्य को छोड़ के झूठी है। जैसे अनुलोम प्रतिलोम घूमनेवाले पृथिवी और चन्द्र के गणित के नियम से स्पष्ट विदित होता है कि अमुक समय, अमुक देश, अमुक अवयव में सूर्य वा चन्द्रग्रहण होगा। जैसे- छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं भूमिभाः। (सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थ का वचन) और इसी प्रकार सूर्यसिद्धान्तादि में भी है अर्थात् जब सूर्य और भूमि के मध्य में चन्द्रमा आता तब सूर्यग्रहण और जब सूर्य और चन्द्र के बीच में भूमि आती है तब चन्द्रग्रहण होता है। अर्थात् चन्द्रमा की छाया भूमि पर और भूमि की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है। सूर्य प्रकाशरूप होने से सम्मुख छाया किसी की नहीं पड़ती किन्तु जैसे प्रकाशमान सूर्य वा दीप से देहादि की छाया उल्टी जाती है वैसे ही ग्रहण में समझो।
जो घनाढ्य, दरिद्र, प्रजा, राजा व रंक होते हैं वे अपने कर्मों से होते हैं ग्रह आदि से नहीं। बहुत से ज्योतिषी लोग अपने लड़के वा लड़की का विवाह ग्रहों की गणित विद्या के अनुसार करते हैं, पुनः उन में विरोध वा विधवा अथवा मृतस्त्रीक पुरूष हो जाता है। जो फल सच्चा होता तो ऐसा क्यों होता? इसलिये कर्म की गति सच्ची और ग्रहों की गति सुख दुःख भोग में कारण नहीं। भला ग्रह आकाश में और पृथिवी भी आकाश में बहुत दूर पर हैं इनका सम्बन्ध कत्र्ता और कर्मों के साथ साक्षात् नहीं। कर्मों का कर्त्ता व उन कर्मों के फलों का भोक्ता जीव और कर्मों के फलों को भोगानेहारा परमात्मा है। जो तुम ग्रहों का फल मानो तो इसका उत्तर दो कि जिस क्षण में एक मनुष्य का जन्म होता है जिस को तुम ध्रुवा त्रुटि मानकर जन्मपत्र बनाते हो, उसी समय में भूगोल पर दूसरे का जन्म होता है वा नहीं? जो कहो नहीं तो झूठ, और जो कहो होता है तो एक चक्रवर्ती राजा के सदृश भूगोल में दूसरा चक्रवर्ती राजा क्यों नहीं होता? हां ! इतना तुम कह सकते हो कि यह लीला हमारे उदर भरने की है तो कोई मान भी लेवे।
अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के दूसरे समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी कहते हैं कि जब किसी रोगी सन्तान के माता-पिता किसी ज्योतिषी के पास जा कर कहते हैं-‘हे महाराज ! इस को क्या हुआ है? तब वे कहते हैं कि –‘इस पर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं। जो तुम इन ग्रहों की शान्ति, पाठ, पूजा, दान कराओ तो इसको सुख हो जाय, नहीं तो बहुत पीडि़त होकर मर जाय तो भी आश्चर्य नहीं।’ ज्योतिषी के इस कथन का उत्तर महर्षि दयानन्द जी ने यह कहकर दिया है कि कहिये ज्योतिर्वित्! जैसी यह पृथिवी जड़ है वैसे ही सूर्यादि लोक हैं, वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कछ भी नहीं कर सकते। क्या ये मनुष्यों की तरह से चेतन हैं जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होके सुख दे सकें? (प्रश्न) क्या जो यह संसार में राजा प्रजा सुखी दुःखी हो रहे हैं यह ग्रहों का फल नहीं है? (उत्तर) नहीं, ये सब पाप पुण्यों के फल हैं। (प्रश्न) तो क्या ज्योतिषशास्त्र झूठा है? (उत्तर) नहीं, जो उसमें अंक, बीज, रेख गणित विद्या है वह सब सच्ची है, जो फल की लीला है वह सब झूठी है। (प्रश्न) क्या जो यह जन्मपत्र है सो निष्फल है? (उत्तर) हां, वह जन्मपत्र नहीं किन्तु उसका नाम ‘शोकपत्र’ रखना चाहिये क्योंकि जब सन्तान का जन्म होता है तब सब को आनन्द होता है। परन्तु वह आनन्द तब तक होता है कि जब तक जन्मपत्र बनके ग्रहों का फल न सुने। जब पुरोहित जन्मपत्र बनाने को कहता है तब उस के माता, पिता पुरोहित से कहते हैं-‘महाराज! आप बहुत अच्छा जन्मपत्र बनाइये।‘ जो धनाढ्य हों तो बहुत सी लाल पीली रेखाओं से चित्र विचित्र और निर्धन हो तो साधारण रीति से जन्मपत्र बनाके सुनाने को आता है। तब उस नवजात शिशु के मां-बाप ज्योतिषी जी के सामने बैठ के कहते हैं-‘इस का जन्मपत्र अच्छा तो है?’ ज्योतिषी कहता है-‘जो है सो सुना देता हूं। इसके जन्मग्रह बहुत अच्छे और मित्रग्रह भी बहुत अच्छे हैं जिन का फल धनाढ्य और प्रतिष्ठावान्, जिस सभा में बैठेगा तो सब के ऊपर इस का तेज पड़ेगा। शरीर से आरोग्य और राज्यमानी होगा।’ इत्यादि बातें सुनके पिता आदि बोलते हैं-‘वाह वाह ज्योतिषी जी! आप बहुत अच्छे हो।’ ज्योतिषी जी समझते हैं इन बातों से कार्य सिद्ध नहीं होता। तब ज्योतिषी बोलता है-‘ये ग्रह तो बहुत अच्छे हैं परन्तु ये ग्रह क्रूर हैं अर्थात् फलाने–फलाने ग्रह के योग से 8 वर्ष में इस का मृत्युयोग है।’ इस को सुन के माता पितादि पुत्र के जन्म के आनन्द को छोड़ के शोकसागर में डूब कर ज्योतिषी से कहते हैं कि ‘महाराज जी! अब हम क्या करें?’ तब ज्योतिषी जी कहते हैं-‘उपाय करो’। गृहस्थ पूछता है कि ‘क्या उपाय करें।’ ज्योतिषी जी प्रस्ताव करने लगते हैं कि ‘ऐसा कि ऐसा–ऐसा दान करो। ग्रह के मन्त्र का जप कराओ और नित्य ब्राह्मणों को भोजन कराओगे तो अनुमान है कि नवग्रहों के विघ्न हट जायेंगे।’ अनुमान शब्द इसलिये है कि जो मर जायेगा तो कहेंगे हम क्या करें, परमेश्वर के ऊपर कोई नहीं है। हम ने तो बहुत सा यत्न किया और तुम ने कराया, उस के कर्म ही ऐसे थे। और जो बच जाय तो कहते हैं कि देखो-हमारे मन्त्र, देवता और ब्राह्मणों की कैसी शक्ति है? तुम्हारे लड़के को बचा दिया। यहां यह बात होनी चाहिये कि जो इनके जप पाठ से कुछ न हो तो दूने तिगुने रूपये उन धूर्तों से ले लेने चाहिये और बच जाय तो भी ले लेने चाहिये क्योंकि जैसे ज्योतिषियों ने कहा कि ‘इस के कर्म और परमेश्वर के नियम तोड़ने का सामर्थ्य किसी का नहीं।‘ वैसे गृहस्थ भी कहें कि ‘यह अपने कर्म और परमेश्वर के नियम से बचा है, तुम्हारे करने से नहीं’ और तीसरे गुरू आदि भी पुण्य दान करा के आप ही वह सब सामग्री ले लेते हैं तो उनको भी वही उत्तर देना, जो ज्योतिषियों को दिया था।
महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त विचारों से फलित ज्योतिष का निस्सार व अविद्यायुक्त-ज्ञानहीन होना सिद्ध होता है। महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश में एक जाट और ज्योतिषी की कथा देकर बताया है कि जाट से दान पुण्य लेने के चक्कर में गांव के एक जाट ने उसे पीट डाला और कहा कि तुम्हें अपने वर्तमान का तो पता नहीं, हमें भविष्य बताने आये थे। एक अन्य कथा में जाट के पिता की मृत्यु पर एक पौराणिक पण्डित जी ने उसकी दूध देने वाली गाय दान में ले ली। सम्बन्धियों के दबाव व अनुभवी पण्डित जी के हथकण्डों के कारण मजबूरी में उस जाट को अपनी गाय देनी पड़ी जिससे उसके बच्चे दूध पीने से वंचित हो गये। पिता की तेरहवीं होने और मेहमानों के विदा होने के बाद जाट ने पण्डितजी से पिता का वैकुण्ठ में सकुशल होने का प्रमाण मांगा। जब कोई प्रमाण पण्डित जी नहीं दे सके तो वह जाट अपनी गाय खोलकर अपने घर ले गया और पण्डित जी से बोला कि जब पिताजी की कुशलता का प्रमाण मिले तो वह प्रमाण देकर गाय ले जाना। जिस समाज में ऐसे विवेकी बन्धु होते हैं वहां अज्ञानी, स्वार्थी व मिथ्या व अन्धविश्वासी लोगों की दाल नहीं गलती। जिन दिनों महर्षि दयानन्द जी ने फलित ज्योतिष का युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया था उन दिनों हमारा समाज व देश आज की तुलना में कहीं अधिक अज्ञान, अन्धविश्वासों व कुरीतियों से ग्रसित था। उनके प्रचार का परिणाम ही आज इन असत्य व अनुचित अन्धविश्वासों में कमी का होना है। हमारा समाज कितना अज्ञानी व अन्धविश्वासी है इसका ज्ञान आज भी मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद व जन्मना जातिप्रथा आदि का जारी रहना है। अतः आज पुनः पुरजोर इन मिथ्या विश्वासों के खण्डन की आवश्यकता है जिससे समाज इन बुराईयों से मुक्त हो सके। स्वामी दयानन्द जी का आरम्भ किया यह कार्य अधूरा है। आशा है कि उनके अनुयायी आर्यसमाजी बन्धु व समाज के विवेकी लोग समाज को अन्धविश्वासों व कुरीतियों से मुक्त कराने का प्रयास करेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख पड़ा और दो शब्दों में कहूँगा , astrologi ! a load of rubbish
आपके विचार यथार्थ हैं। मेरा भी यही मानना है। हार्दिक धन्यवाद।