आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (प्रस्तावना)
प्राक्कथन
जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार।।
सियाराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
काफी समय पूर्व मैंने अपनी आत्मकथा का पहला भाग अर्थात् अपने विद्यार्थी जीवन की कहानी ‘मुर्गे की तीसरी टाँग’ उर्फ ‘सुबह का सफर’ लिखी थी और कुछ समय पूर्व ही इसका दूसरा भाग अर्थात् अपने अधिकारी जीवन की कहानी ‘दो नम्बर का आदमी’ उर्फ ‘आ ही गया बसन्त’ लिखकर समाप्त की है। मेरे कई मित्रों और सहकारियों ने इनको पढ़ा और पसन्द किया है, हालांकि ये भाग अभी तक अपने कम्प्यूटर पर ही प्रकाशित किये हैं। फिर भी उनकी सफलता से प्रोत्साहित होकर मैं अपनी आत्मकथा का तीसरा भाग अर्थात् अपने प्रबंधकीय जीवन की कहानी लिखने का साहस कर रहा हूँ।
हालांकि यह कहानी मेरी अपनी है और किसी अन्य की कहानी बताना इसका उद्देश्य नहीं है, फिर भी इसमें मैंने अपने उन कई कार्यालयीन सहयोगियों और वरिष्ठों के गुणों और अवगुणों की चर्चा आवश्यकता के अनुसार की है, जिनके साथ मेरे जीवन का यह समय गुजरा है। प्रशंसा के साथ ही कई लोगों की मुझे आलोचना भी करनी पड़ी है, परन्तु मुझे इस बात का कोई खेद नहीं है और न मैं इसके लिए उनसे कोई क्षमायाचना करना चाहता हूँ। पिछले भागों की तरह सत्य और असत्य का यथार्थ निरूपण करना ही इस भाग का भी उद्देश्य है। हाँ, यदि कोई सज्जन मेरे कथन या प्रस्तुतीकरण में कोई तथ्यात्मक भूल बताने की कृपा करेंगे, तो उसे सुधारने के लिए मैं सदा तैयार रहूँगा। मैं स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज के इस उपदेश, जो आर्य समाज के 10 नियमों में भी शामिल है, का पालन करता हूँ कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए सर्वदा तैयार रहना चाहिए।
आत्मकथा के इस भाग के लिए भी मैंने एक विशेष शीर्षक पसन्द किया है- ‘एक नजर पीछे की ओर’। इस शीर्षक का तात्पर्य यह है कि अपने जीवन सफर में हम प्रायः पीछे छूट चुके रास्तों पर नजर डालते हैं कि हमने वास्तव में कितनी यात्रा तय कर ली है। आधी जिन्दगी गुजर जाने के बाद जिन्दगी की दिशा बदलने का प्रश्न प्रायः समाप्त हो जाता है और जो रास्ता पहले से चुना होता है उसी पर आगे बढ़ते जाने की इच्छा होती है। फिर भी आत्म संतुष्टि के लिए पहले ही तय किये जा चुके रास्तों पर नजर डालने की इच्छा होती है, ताकि हमें अपनी जीवन यात्रा की सार्थकता का विश्वास हो जाये।
अपनी आत्मकथा का पहला भाग मैंने अध्यायों में बाँटकर लिखा था और दूसरे भाग को लगातार उपन्यास शैली में लिखा है। इस भाग के लिए भी मैंने उपन्यास शैली को अपनाया है परन्तु विषयान्तर के लिए उपशीर्षकों का भी उपयोग किया है। मेरा यह तीसरा प्रयास कैसा बन पड़ा है, इसकी परख सुधी पाठकों को ही करनी उचित है। अस्तु।
आत्मकथा का यह तीसरा भाग सन् 1996 से सन् 2010 तक की अवधि का है और सन् 2009 में लिखना प्रारम्भ किया गया था, जब मैं इलाहाबाद बैंक के अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, पंचकूला (हरियाणा) में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के रूप में सेवा कर रहा था। यह भाग सन् 2011 में तब जाकर पूरा हुआ, जब मैं पंचकूला से लखनऊ स्थानांतरित हो गया था। तब से अब तक कुछ जानकारियाँ पुरानी हो गयी हैं, इसलिए इस भाग को यथा सम्भव सुधार कर छपवा रहा हूँ। आवश्यक होने पर यथा स्थान पादटीप भी दे रहा हूँ।
– विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
पादटीप- आत्मकथा के पहले दोनों भाग धारावाहिक रूप से अपनी पत्रिका ‘जय विजय’ की वेबसाइट पर प्रकाशित हुए हैं. इनको पाठकगण ने बहुत पसंद किया है. अतः उनके ही आग्रह पर यह तीसरा भाग भी वेबसाइट पर डालने का साहस कर रहा हूँ. आशा है कि यह भाग भी सबको पसंद आएगा.
विजय भाई , मैंने आप की जीवन कथा के पहले दो भाग पड़ कर बहुत आनंद लिया है और आप की कथा का यह भाग बहुत ही रोचक होगा , ऐसा मैं पहले दो भागों को पड़ने के बाद कह सकता हूँ .
धन्यवाद, भाई साहब. आपको पसंद आएगा तो मेरा परिश्रम सफल हो जायेगा.
नमस्ते एवं धन्यवाद महोदय। आत्मकथा के प्रकाशित होने वाले भाग को पढ़ने व जानने की तीव्र इच्छा है। आज की क़िस्त में प्रस्तुत तथ्यों व विचारों के लिए भी हार्दिक धन्यवाद। गुरुकुल में ब्रह्मचारियों के उपनयन व दीक्षांत के अवसर पर उपदेश दिया जाता था कि जीवन में “सत्यम वद धर्म चर”. सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग उसी शिक्षा का क्रिन्यान्वित या व्यवहारिक रूप है। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।
प्रणाम मान्यवर ! आभार !