स्मृति के पंख – 24
हम दोनों गढ़ीकपूरा पहुँचे। जैसा सुना था वैसा ही देखा। गुरुद्वारा के पास ससुर को मिला। मिलेट्री का पहरा लगा था, फिर भी ऐसी सख्ती न थी कि कोई मिलकर बातचीत न कर सके। तजवीज हुआ कि सामान और कौशल्या को मैं साथ ले जाऊँ। उन्होंने कहा मरदान कैम्प में हमारे जाने का ख्याल है। मैंने कहा फिर भी कोई बात नहीं, मैं कुछ सामान और कौशल्या को साथ ले जाता हूँ। मैने हादिलशाह का टांगा मंगवाया (जिसके टांगे पर हमेशा चला करता था)। उसमें सामान और कौशल्या को लेकर वापस आ गया। बाकी परिवार वाले बाद में मरदान कैम्प में आ गये। अब रोजाना किसी न किसी जगह से फसादियों के लूटमार खबरें आने लगीं।
रघुनाथ के पास 4-5 थान कपड़े बाकी रह गये थे जो बिक नहीं सके थे। बाद में उसने डेढ़ गुना भाव में फरोख्त करके मुझे रकम दे दी। हमारा रहना वहाँ मुश्किल हो गया, लेकिन मेरा गहना सारा रहन पड़ा था और रुपये हमारे पास नहीं थे। मुझे ज्यादा फिकर गहनों की थी। मैंने रघुनाथ से कहा, ‘भाई, हालात तो रोजाना बिगड़ रहे हैं। अगर हमें जाना पडा तो मेरा सारा गहना रहन पड़ा है।’ रघुनाथ ने कहा- कितने रुपये देने हैं। मैंने कहा- 5-6 हजार होगा। उसने कहा- रुपये मुझसे ले लो और गहना छुड़ा लो। इस तरह जेवर छूट गये।
इन्हीं दिनों गुरु गोसाई देवकीनन्दन हमारे पास आये हुए थे। उन्होंने कहा- अब यहाँ रहना मुश्किल है और जाने का कह रहे थे। हमने कहा- गुरुजी कौन सी आफत आई है। पहले भी तो मुसलमानों के राज आए हैं, हिन्दू उनमें रहते ही थे। अब भी हम रह लेंगे। ज्यादा से ज्यादा हम पर टैक्स का बोझा डालते जायेंगे। हम इन्हीं से वसूल कर इन्हें ही देते जायेंगे। यह इक्का दुक्का फसाद तो गुण्डे लोग करते हैं। पंजाब के हालात बहुत खराब सुन रहे थे, लेकिन फिर भी हम मन नहीं बना सके। स्पेशल गाड़ियों का आना जाना और उनमें कत्ल के वाकयात भी सुनते रहते। एक स्पेशल गाड़ी तीन दिन रिसालपुर रुकी रही कि किसी ने भी इंडिया जाना है। काफी लोग चले गये, हम नहीं गए।
उन दिनों हरिकिशन खन्ना अस्पताल में थे, उनकी लात पर फोड़ा निकला था। मरदान में जेहरे इलाज थे। उनको छोड़ना मुश्किल लगता था। उनके आने पर ही सोचेंगे। अस्पताल का इंचार्ज डाक्टर हिन्दू था। उसने मुझे कहा- दवाई और पट्टियां मैं दे देता हूँ। तुम घर ही इलाज करते रहना। मेरी तब्दीली हो गई है और मैं नहीं चाहता कि कोई हिन्दू मरीज अस्पताल में रहे। फिर हरिकिशन और विद्या बहन रिसालपुर आ गये। एक सुबह, गाँव से जो रिसालपुर दूध लाते थे, हमें आकर कहा के बहुत लोग रिसालपुर की तरफ आ रहे हैं, जिनके पास असला भी है और दीगर छोटे-मोटे हथियार भी। जल्दी ही बाजार में दुकानदारों ने मीटिंग की और बिग्रेडियर के पास पहुँचे। बिग्रेडियर एक सिख सरदार था। हमारी बातचीत सुनकर उसने मिलेट्री का एक दस्ता जीपों में फौरन भेज दिया। हम जब वापिस आये तो काफी मिलेट्री आ पहुँची थी। किसी की जुर्रत नहीं पड़ी कि हमला कर सके। लेकिन अब इक्तयार जरूरी था।
बिग्रेडियर ने अपने इर्दगिर्द तीन कोठियां खाली करवा दीं व कुछ खेमे भी लगवा दिए। सब हिन्दुओं को कहा कि सामान लेकर इधर आ जाओ। दिन को काम करने जाओ, रात को इधर आ जाया करो। हम लोगों ने इस तरह आरजी कैम्प बनवा दिया। अब घर के सामान का क्या करें। ले जाना तो मुश्किल है। पहले जो गाड़ी गई थी, उन लोगों ने बहुत सामान गाड़ी में भर लिया था। हमने सोचा अगर मालगाड़ी से सामान बुक हो जाय, तो ठीक रहेगा। तकरीबन 15 परिवारों ने फैसला कर लिया। हमने स्टेशन मास्टर से 300/- रुपये फी बैगन रिश्वत देकर 7 बैगन बुक करवा लीं। घर का सब सामान अपना, भ्राताजी, माताजी, माताजी के बाक्स में नगद रुपया भी था, बुक करवा दिया। हम खुश थे कि थोड़े में काम बन गया। अब जाना हुआ तो आसानी से जा सकेंगे हमारे पड़ोसी थे दुनीचन्द। वे कुरुक्षेत्र में थे, उनका सामान भी हमारे बेगन में था, बेगन कुरुक्षेत्र के लिये बुक करवा दी।
14 अगस्त आजादी के ऐलान के बाद सुबह हम उठे, तो हमारी बिल्डिंग पर पाकिस्तानी झंडा लगा था। बिल्डिंग हिन्दू की थी, बाजारों में भी पाकिस्तानी झंडे व जुलूस निकल रहे थे। हिन्दू लोग कैम्पों में थे। अब हमें भी बाजार आकर दुकान खोलना मुश्किल लगता। फिर भी हम आते जाते रहते, शाम को कैम्प में चले जाते। अब तक मर्दान के नवाब ने हिन्दुओं को पनाह दे रखी थी, अब उसने भी वह कह दिया कि अब तक तुम लोग मेरी हिफाजत में थे, अब पाकिस्तानी हुकूमत है। तुम लोगों को स्पेशल गाड़ी में बैठाने की जिम्मेवारी मैं लेता हूँ। नवाब के ऐसा कहने पर मरदान से लोगों का निकास शुरू हो गया। नवाब होती की सरपरस्ती में हिन्दू लोग मर्दान में महफूज थे। अब वो बात खत्म हो गई। दस पन्द्रह दिन बाद हमें किसी ने कहा कि हमारे बेगन जो बुक हुए थे, वो नौशहरा स्टेशन पर खाली कर रहे हैं। अब तो बड़ी फिकर हुई। मैंने और किशनचन्द (जो हमारे गाँव का था) ओवरसियर लगा था। उसके पास जीप थी। हम दोनों नौशहरा स्टेशन पहुँचे अपने आप को मुसलमान बनाये हुये। यार्ड स्टेशन पहुँचे तो तीन बेगन खाली हो चुके थे चार अभी खड़े थे। हमने चैकीदार को सलाम किया और पूछा भई इन बेगनों में क्या है। कहने लगा काफिरों का सामान है, तीन का सामान निकाल लिया है। अभी बाकी खोलने हैं।
इधर मालूमात करके मैंने किशनचन्द से कहा कि स्टेशन मास्टर को मिलते हैं। अभी हमारी बेगन खड़ी है। अगर रिश्वत देने से काम बन सके तो फिर बुक करवा लेंगे। प्लेटफार्म पर जब बढ़े स्टेशन मास्टर के कमरे में पुलिस वाले खड़े थे। हमने सोचा कि इनके निकल जाने पर बातचीत करते हैं। लेकिन स्टेशन मास्टर ने पुलिस वालों से कह दिया कि हिन्दू प्लेटफार्म पर फिर रहे हैं, पकड़ लो। एक सब इंस्पेक्टर व चार सिपाही थे। हमें स्टेशन मास्टर के कमरे में ले गये। साथ में गंदी जबान चलाने लगे। हमारी तलाशी ली, 50 रुपये मेरे पास थे और 20-25 किशनचन्द के पास थे। साथ में दो-चार गालियां सुना दीं। दो-चार धक्के देकर हमें आगे कर दिया। नौशहरा स्टेशन से निकलकर सामने ठाकुरदास का कारखाना व कोठी थी। उसके साथ सामने वाली सड़क दरियाई सिंध को जाती थी और दूसरी तरफ जाने वाली सड़क पर रवाना किया। उस समय खौफ हुआ। भगवान का सिमरन किया। मुझे लगा ये पुलिस वाले गोली मारकर लाशों को सिंध में धकेल देंगे। हमारा वजूद खत्म होगा, किसी को पता लगना भी मुश्किल होगा कि हम कहाँ खो गये। सामने मौत का साया घूम रहा था और पीछे से पुलिस का धक्का।
दवाखाना की पिछली तरफ मोहल्ला था। उसकी दूसरी गली से साईकिल पर सवार उसमान खान निकला, हमारे नजदीक पहुँचा। मैंने और पुलिस वालों ने उसे सलाम किया। मुझे कहने लगा किधर आये थे और पुलिस से कहने लगा इन्हें किधर ले जा रहे हो। मैंने अपना सब बयान उसे सुना दिया। कहने लगा- कितने भोले हो आजकल कोई सामान या माल को रखता है। तुमने ऐसी गलती क्यों की? फिर सब-इंस्पेक्टर से बोला- इन लोगों की हिफाजत से कैम्प पहुँचाना और कहीं मत ले जाना और मुझे कहा- शाम को चार बजे जीप लेकर आऊंगा और तुम्हें ले जाऊंगा। किशनचन्द ने कहा- हमारी अपनी जीप स्टेशन पर खड़ी है। मैं ओवरसियर हूँ, महकमे की जीप है। अभी से वही जीप ले लो, जब शाम को जाना हुआ, तो उसी पर चले जायेंगे। मुझे लगा जैसे भगवान को मेरी करुणा पुकार पर आना पड़ा या उस संकट काल में गरीबों को आटा सप्लाई करने का अच्छा काम किया, जिसका बदला भगवान ने दिया। जो भी हुआ ईश्वर का करिश्मा था। 4 बजे हमको उसमान खान रिसालपुर ले आया।
(जारी…)
लेखक ने उन दिनों में जो मानसिक तनाव झेला होगा उसके बारे में सोचकर ही काँप जाता हूँ. उस समय ऐसे ही कष्ट लाखों करोड़ों देश वासियों को झेलने पड़े थे. गाँधी की अहिंसा के तमाम दावों के बावजूद जमकर हिंसा हुई थी. इसका जिम्मेदार कौन है?
बहुत बुरे दिन थे वोह , मैंने तो अपने गाँव में ही मुसलमानों को जाते देखा था , जो पाकिस्तान में हो रहा था वोह तो बहुत वैह्शिआना था . इस वक्त भी मैं एक पंजाबी लेखिका की जीवनी पड़ रहा हूँ जिस में उस ने सभ कुछ देखा और झेला . वोह लेखिका कैनेडा में रहती थी और मैंने उस को इमेल भी किया लेकिन वोह इस दुनीआं से जा चुक्की है . वोह उस वक्त दस साल की थी .
पूरा विवरण पढ़ा। देश के विभाजन और पाकिस्तानी इलाके के हिन्दुवों की पीड़ा को अनुभव किया। इसे पढ़कर मनुस्मृति का श्लोक “धर्मो एव हटो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।” स्मरण हो आया। ईश्वर ऐसे दिन किसी को न दिखाए।