अपूर्ण मकसद !
जिंदगी का मकसद क्या है ?
अनादि काल से
यह प्रश्न अनुत्तरित खड़ा है,
उतर किसी ने न जाना
न किसीने इसका उत्तर दिया l
क्या खाना ,सोना और
फिर मर जाना
यही जीव की नियति है ?
पशु, पक्षी ,कीट, पतंग
नहीं है मस्तिष्क उनका उन्नत
उनमे नहीं उठते
जिज्ञासा का उच्च तरंग l
किन्तु मनुष्य….
उन्नत मस्तिष्क का मालिक है
खाना-पीना,सोना ,मरना
उनके जीवन का उद्येश्य नहीं है ,
इसके आगे उनकी खोज करना है
जिसने उसे बनाया है l
इसे इबादत कहें
या ईश्वर आराधना
होगा नाम अनेक
उद्येश्य है उनका पता लगाना l
किन्तु सोचो , कौन हैं ईश्वर ?
क्या है रूप ,आकृति-प्रकृति
क्या है उनका ठिकाना ?
आजतक किसी ने न जाना l
कोई कैसे करे इबादत ?
पूजा विधि का भी, नहीं कोई अंत
किन्तु कोई भी विधि नहीं है अचूक
शास्त्र भी है इसमें मूक l
हर विधि का निष्फल परिणाम निकलना
इंगित करता है जैसे,
“आँख मुंद कर अँधेरे में पत्थर फेंकना “l
हर पत्थर निशाना चुक गया
ईश्वर भी अँधेरे से बाहर नहीं आया
जीवन का मकसद उनका दर्शन
सदा अपूर्ण रह गया l
© कालिपद “प्रसाद”
बढ़िया !
बहुत अच्छी कविता है , सही तो है , आगे बढना ,कुछ करना , इस संसार को सुखी करने के लिए मिहनत करना ,यही तो तपस्य है , वर्ना आँखें मूँद कर अँधेरे में बैठने से कुछ नहीं होगा .