ताजी खबर : ताजी कुंडलिया
गरमी से बेहाल हैं, पशु-पंक्षी-इंसान।
तड़प रहे दिन-रात अब, सूझे नहीं निदान।
सूझे नहीं निदान, हाल लाइट के ऐसे।
झलक दिखाने सिर्फ, रोज आती हो जैसे।
कह ‘पूतू’ कविराय, मनो लादे बेशरमी।
खींच रही जो खाल, मार निज कोडे गरमी॥
गरमी से बेहाल हैं, पशु-पंक्षी-इंसान।
तड़प रहे दिन-रात अब, सूझे नहीं निदान।
सूझे नहीं निदान, हाल लाइट के ऐसे।
झलक दिखाने सिर्फ, रोज आती हो जैसे।
कह ‘पूतू’ कविराय, मनो लादे बेशरमी।
खींच रही जो खाल, मार निज कोडे गरमी॥
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अच्छी कुंडली !