स्मृति के पंख – 25
बिग्रेडियर ने हमें चेतावनी दे दी थी कि मेरी तबदीली हो चुकी है लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम लोगों को नौशहरा कैम्प बाहिफाजत पहुँचा दूं तब जाऊँ। उनका अपना बच्चा नहीं था। मियां बीवी दोनों बच्चों को बहुत प्यार करते। बच्चों की बेसरो सामानी से उनका मन दुखी होता। कुछ लोगों को हवाई सफर से जाना था, उनकी सीट बुक थी। एक सज्जन थे ईश्वर दास वह हमारे पास अपना एक सूटकेस छोड़ गये थे कि यह तुम गाड़ी में ले आना। जहाज से जाना मुश्किल है। उसी भाई की सीट बुक थी। उसने वैसे ही कोशिश की शायद मैं ही चला जाऊं, लेकिन उसे जगह न मिल सकी। वह वापस आ गया। हमारे सामने जो सूटकेस उसने हमारे पास रखा था वह खोला। वह नोटों से भरा था। उसने गलती से दूसरा का सूटकेस उठा लिया और नोटों वाला छोड़ गया था। लोग इतने हवाजबख्ता थे कि बस इण्डिया पहुंच सकें किसी तरह। मजबूरन हमें अभी रुकना था बच्चे का जन्म होना था। कैम्प में ही कंवल का जन्म हुआ। हम कुछ दिन और रुकना चाहते थे, लेकिन आखिरी सामान बिग्रेडियर ने मंगवा कर कहा- तुम लोग नौशहरा जाओ। हमने परसों चले जाना है। उस दिन रवानगी जरूरी हो गई। पुलिस सामान चेक करके रवानगी की इजाजत देती थी।
हमने दो दिन पहले नौरोज खान को बुलाकर, जो गलाढेर का था और यहाँ चौकीदारी करता था, को अपनी चारपाईयां व दीगर सामान दे दिया और कहा कि खान को बोलना कि जिस जगह हमारा टेण्ट था उस जगह पर निशान लगाया और बतला दिया कि कोई चीज बची तो मैं इस जगह दबा दूँगा। वहाँ से जमीन उखाड़ कर खान ले जायें। जेवर जो पहना होता उसकी इजाजत तो दे देता पर सोना वगैरह की इजाजत नहीं थी और वह जब्त कर लेते। एक साइकिल भी खान के लिये नौरोज को दे दिया। मेरे पास 15-20 पाउंड थे। रास्ता में खाने के लिये जो मन पकाए उनमें उन्हें तल दिया। एक छोटा थैला था, उसमें खाने का सामान रखकर पृथ्वीराज के हवाले कर दिया, ताकि पुलिस को शुबहा न हो।
अब बन्दूक का सवाल था। इंस्पेक्टर ने कहा- हमारे हवाले में कर दो, तुम साथ नहीं ले जा सकते। मुझे उसमान खान की याद आ गई, अगर वह नजदीक होता, तो शायद बन्दूक साथ ले जाता। लेकिन उसकी तब्दीली पेशावर हो गई थी। मुझे कुछ दिन पहले बंदूक के 2 हजार मिलते थे, लेकिन मैंने बंदूक फरोख्त नहीं करनी थी। इंस्पेक्टर ने बंदूक लेकर मुझे एक पुर्जा लिख दिया कि वहाँ तुम्हें बंदूक मिल जायेगी। मैं माल खाना में जमा कर दूँगा। इंस्पेक्टर ने कहा कि कारतूसों की पेटी भी लाओ। मैंने बाकी कारतूस उस जगह जमीन में रख दिये, जहाँ खान को कहा था कि जमीन से ले जाना और पेटी के 10 कारतूस इंस्पेक्टर को दे दिये। हमारे पास और तो कोई सामान नहीं था। सरसरी सिपाहियों ने देखकर कहा कि जा सकते हो। फिर कहने लगा कि अगर बंदूक फरोख्त करनी है तो 200 रुपये ले लो। हमारे पास खर्च के लिये रुपये की तंगी थी। मैंने सोचा कि आगे पता नहीं क्या बनता है 200 रुपया ले ही लेना बेहतर था। 200 रुपये ले लिये।
आंसू भरी आंखों से जन्म भूमि को नमस्कार किया। जीवन के 35 सालों का नक्शा फिल्म की तरह सामने घूम रहा था। जिस धरती के जर्रे-जर्रे से प्यार था, वह सब बेगाना हो गया। उस वक्त मुंह से अचानक यह शेर निकला-
दरो दीवार पे हसरत की नजर करते हैं।
खुश रहो एहले वतन हम तो सफर करते हैं।।
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को।
फिर मिट्टी को माथे से लगाकर प्रणाम करते हुये लारी में बैठकर नौशहरा कैम्प में आ गए। इससे पहले कौशल्या देवी को मरदान कैम्प में उनके माता पिता के पास पहुँचा आया था। हमारे साथ अपना पूरा परिवार जानकी देवी, ताराचन्द, बड़ी बहन सीतादेवी, गौरज बहन, भाई सिरीराम, रघुनाथ, रामोदेवी व उनके बच्चे, भेजा राम और दीनानाथ। बहन विद्या मय परिवार के साथ थी।
5 दिन नौशहरा कैम्प में रहे। पाकिस्तान सरकार का ऐलान था कि जो सामान सिर पर उठाकर ले जा सकते हो, ले जाओ बाकी कुछ नहीं ले जाना। हमारे पास तो सामान ही बहुत कम था। कांटेदार तार लगी थी उसके बीच में जो रास्ता बना था वह इतना कम था कि हाथ में सामान नहीं ले जा सकते थे। बस जितना सामान सिर पर उठाया गया, वही जा सका। कैम्प से स्टेशन तक काफी रास्ता था। करीब डेढ़-दो मील भ्राताजी के पास बहन सीतादेवी का एक भारी नग था। स्टेशन तक जाने के लिये कई जगह सुस्तानें के लिये या तो भ्राताजी को व िनग भूल गया या उन्हें उठाना मुश्किल था। जो भी हुआ, वह नग रास्ता में खो गया। स्टेशन पर मालगाड़ी के छकड़ों में हमने सामान और खुद को ठूंस लिया। एक नग प्लेटफार्म पर ही भेजाराम दीनानाथ का रह गया।
शाम को सरहदी इलाका खत्म होने के बाद अटर के इस पार वहाँ कैम्प था, जहाँ इंडियन मिलेट्री का बंदोबस्त था और स्पेशल गाड़ियाँ चलने का भी बन्दोबस्त था। पहली गाड़ी से उतरकर वहाँ कैम्प में जाना था। एक फौजी, जो डयूटी पर था, उससे हमने पूछा कि टेªन में चढ़ने का क्या इंतजाम है। उसने कहा कि अगर सामान कम हो, तो जल्दी जाया जा सकता है। गाड़ियाँ तो रोजाना चलती हैं। यह ही गाड़ियां खड़ी हैं, कल 12 बजे चलेंगी। हिम्मत की बात है, जो चढ़ जाये वो चढ़ जाये। मेरे पास अपना कुछ सामान तो नहीं था, पड़ोसी राम लुभाया ने एक सूटकेस दिया था, जो छोटा था, लेकिन बड़ा भारी था। वह लोग सूदी ब्याजी का काम करते थे। मैंने अंदाजा लगाया कि शायद चांदी के जेवर होंगे, तभी इतना भारी है।
कैम्प पहुँचने पर पता चला कि माताजी और उनके साथ पृथ्वीराज, दोनों हमसे अलग हो गये हैं। आधीरात तक कैम्प में हम फिरते रहे, लेकिन वह लोग हमें नहीं मिले। सुबह 3 बजे तलाश फिर शुरू की और आवाजें भी साथ-साथ देते जाते। थोड़े ही फासले पर एक खेमा में रात में सो गये थे। हम से बिछड़ कर रात उन्होंने ठीक से गुजारी थी। जैसे हमें उसके बिछुड़ने की फिकर थी, माताजी को भी उसी तरह ज्यादा फिकर रही। लेकिन दूसरे दिन मिलने पर हम स्टेशन आ गये। चढ़ने की हिम्मत हो, तो गाड़ी में चढ़ जायें, वरना आसानी से चढ़ना न होता। हम एक गाड़ी में सवार हुये माताजी देवी तारा चन्द दूसरी गाड़ी में चढ़ सके। वहाँ बहुत सामान बिखरा पड़ा था। एक मिलेट्री वाले ने मुझसे कहा- कुछ उठाना हो, तो उठा लो। मैंने कहा- ‘शुक्रिया, जब अपना सब कुछ छोड़ आये तो किसी का क्या ले जाना है।’
देश विभाजन की त्रासदी का हाल पढ़कर उसके कारणों पर विचार किया। महर्षि दयानंद ने भी इसके कारण बताएं है जो मुख्यतः अविद्या, अन्धविश्वास व स्वार्थ की हमारी व हमारे पूर्वजों की प्रवृत्ति के साथ वेदाध्यानं के दूर होना था। आज भी हमने पाकिस्तान बनने की त्रासदी से सबक नहीं लिया। आज भी सभी लोग स्वार्थ व अंधविश्वासों में फंसे दीख रहे हैं। ईश्वर रक्षा करे और सबको सन्मार्ग दिखाए।
विजय भाई , वोह दिन बहुत बुरे थे . जो लोग बच कर आ गए वोह ही किस्मत वाले थे लेकिन जो पंजाब ख़ास कर लाहौर में हुआ वोह तो सुन कर ही रूह काँप उठी है . कितने जालम हो गए थे वोह लोग !
जिस स्थान पर जन्म लिया और जहाँ अधि जिंदगी गुजार दी, उस जगह को छोड़ना बहुत पीड़ादायक होता है. लेखक ने तो अपने जान माल कि रक्षा के लिए अपना वतन भी छोड़ा था. उनके कष्ट का अनुमान करके बहुत दुःख होता है. उनके साहस को प्रणाम !