ग़ज़ल
ज़िन्दगी में उलझनें नहीं कम
ज्यों तेरी ज़ुल्फ़ के पेचोखम ।
अतिथि सा आ गया था एक दिन
मेरे घर से न जाने वाला ग़म ।
होंठ पर है हँसी की नुमाइश
बन्द आँखें कितनी हों पुरनम ।
हर तरफ़ है ग़ज़ल ही ग़ज़ल
चाहे ग़ायब बहर का सरगम ।
महफ़िलें हैं जश्न हैं हर तरफ़
कहाँ पनघट प्यार के संगम ।
— सुधेश
अच्छी ग़ज़ल !