गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ज़िन्दगी में उलझनें नहीं कम
ज्यों तेरी ज़ुल्फ़ के पेचोखम ।
अतिथि सा आ गया था एक दिन
मेरे घर से न जाने वाला ग़म ।
होंठ पर है हँसी की नुमाइश
बन्द आँखें कितनी हों पुरनम ।
हर तरफ़ है ग़ज़ल ही ग़ज़ल
चाहे ग़ायब बहर का सरगम ।
महफ़िलें हैं जश्न हैं हर तरफ़
कहाँ पनघट प्यार के संगम ।

सुधेश

सुधेश

हिन्दी के सुपरिचित कवि और गद्य की अनेक विधाओं , जैसे आलोचना , संस्मरण , व्यंग्य , यात्रा वृत्तान्त और आत्मकथा , के लेखक । तीस पुस्तकें प्रकाशित । दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवा निवृत्त । तीन बार विदेश यात्राएँ । अमेरिका , बृटेन , जर्मनी , हंगरी , चैकोस्लोवेकिया ( तब के ) दक्षिणी कोरिया की यात्राएँ । ३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० दिल्ली ११००७५ फ़ोन ९३५०९७४१२०

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

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