आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 2)
कानपुर शहर
यहाँ कानपुर शहर के बारे में बता देना अच्छा रहेगा। यह शहर उत्तर प्रदेश का सबसे अधिक जनसंख्या वाला नगर है। यह आबादी की दृष्टि से तो महानगर है, परन्तु मानसिकता की दृष्टि से कस्बा कहना ज्यादा सही होगा। यह अधिक पुराना शहर नहीं है। कुछ सौ वर्ष पहले यहाँ उजाड़ सी जगह थी। यह स्थान लखनऊ से झाँसी और इलाहाबाद से दिल्ली के मार्ग पर सीधा पड़ता है अर्थात् दोनों प्रमुख मार्ग यहाँ मिलते हैं। यह गंगाजी के किनारे भी है, इसलिए यह दोनों मार्गों पर आने-जाने वालों का स्थायी ठहराव बन गया था। लगभग 400 वर्ष पहले किसी राजा ने यहाँ एक गाँव बसा दिया था, जिसका नाम कान्हापुर रखा गया था। बोलचाल में इसे लोग ‘कानापुर’ कहते थे, जो अशोभनीय लगता था। इसलिए कालान्तर में इसका नाम ‘कानपुर’ प्रचलित हो गया। तभी से यह नाम चलता आ रहा है।
अंग्रेजों ने यहाँ अपनी सुविधा की दृष्टि से एक छावनी बना रखी थी। इसका कारण था कि यह शहर लखनऊ, इलाहाबाद और झाँसी इन तीनों शहरों से पर्याप्त दूर होने के कारण विद्रोहों से सुरक्षित था और पर्याप्त निकट भी पड़ने के कारण आवश्यकता के समय यहाँ से किधर को भी सेना भेजी जा सकती थी। सुरक्षित होने के कारण यहाँ कारखाने खड़े किये गये, जिनमें मुख्यतः सूती कारखाने, जूट मिल और खाद के कारखाने थे। इससे धीरे-धीरे यह शहर एक प्रमुख औद्योगिक नगर और थोक का मार्केट बन गया। एक समय इसे ‘पूरब का मानचेस्टर’ कहा जाता था। वैसे अभी भी यह उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा व्यापारिक केन्द्र है, हालांकि मजदूर यूनियनों के नेताओं की कृपा से लगभग सभी कारखानों की हालत बहुत खराब हो गयी है। किसी समय यहाँ के कारखानों में काम करने वाले मजदूर बहुत खुशहाल थे। अच्छा कमाते, खाते और पहनते थे। परन्तु मजदूर नेताओं ने हड़ताल करा-कराके सभी कारखानों का सत्यानाश कर दिया और अब अधिकांश कारखाने बन्द पड़े हैं। इसके कारण उनमें काम करने वाले मजदूर भूखों मर रहे हैं अथवा कोई अन्य कार्य करने को मजबूर हैं।
बड़े-बड़े कारखाने बन्द रहने के कारण कानपुर में दरिद्र नारायणों की अच्छी खासी संख्या है और शायद इसी कारण यह देश का सबसे सस्ता शहर है। यहाँ फल, सब्जी, कपड़े तथा मजदूरी यहाँ तक कि रिक्शे-टेंपो भी अन्य शहरों के मुकाबले बहुत सस्ते हैं। यहाँ की सड़कें उत्तरप्रदेश की सबसे खराब सड़कों में गिनी जा सकती हैं और गन्दगी में यह आगरे का बाप ही होगा। यहाँ पूरे शहर में सूअरों की अच्छी-खासी संख्या है, जो शहर भर की सड़कों पर मटरगश्ती करते फिरते हैं और गन्दगी फैलाते हैं। सूअरों के गर्भाधान-पुंसवन से लेकर अंत्येष्टि तक पूरे सोलह संस्कार सड़कों पर ही सम्पन्न होते हैं। शहर में सूअर-माफिया का साम्राज्य है। उनके ऊपर उँगली उठाने वाले की जान तक को खतरा रहता है, इसलिए कोई भी राजनैतिक दल उनसे पंगा नहीं लेता।
लेकिन कानपुर में कई अच्छी बातें भी हैं। यहाँ धार्मिकता और सामाजिकता का बहुत बोलवाला है। कई धार्मिक-सामाजिक संगठन हैं, जो अनेक कार्यक्रम करते रहते हैं। इतने कार्यक्रम शायद ही किसी शहर में होते हों। कई अच्छे पुस्तकालय हैं और पढ़ाई-लिखाई पर बहुत जोर है। यहाँ के विद्यालयों के बच्चे उत्तरप्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में छाये रहते हैं। इससे भी बढ़कर बड़ी बात यह है कि तमाम गन्दगी और प्रदूषण के बाद भी लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत जागरूक हैं। यहाँ प्रातः भ्रमण करने वालों की अच्छी-खासी संख्या है। मोतीझील, जापानी गार्डन, फूलबाग, जे.के. मंदिर आदि कई अच्छे बाग हैं जहाँ भारी संख्या में लोग घूमने आते हैं। यहाँ भिगोये हुए और अंकुरित चने, मूँग आदि अन्न बहुत खाये जाते हैं तथा मठा (छाछ) भी बहुत पिया जाता है। यहाँ जगह-जगह पर अंकुरित अन्न और मठा बेचने वाले बैठते हैं। हमारे शहर आगरे में तो इन चीजों को खोजना भी कठिन है।
मुझे लगता है कि कानपुर में स्वास्थ्य के प्रति यह जागरूकता स्वामी देवमूर्ति जी महाराज की देन है, जिन्होंने मोतीझील से प्राकृतिक चिकित्सा तथा योग का प्रचार प्रारम्भ किया था। अब उनके शिष्य डा. ओम प्रकाश आनन्द इस कार्य को जारी रखे हुए हैं। हालांकि वर्तमान में वे भटक गये हैं और स्वमूत्र चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर, चुम्बक चिकित्सा आदि से होते हुए रेकी तक पहुँच गये हैं। वे रेकी को भी प्राकृतिक चिकित्सा का अंग बताते हैं, क्योंकि उसमें कोई दवा नहीं खायी जाती। इस हिसाब से तो झाड़फूँक चिकित्सा को भी प्राकृतिक चिकित्सा का अंग मानना होगा, क्योंकि उसमें भी कोई दवा नहीं ली जाती। रेकी वास्तव में जापानी या कोरियाई झाड़फूँक चिकित्सा ही है।
अशोक नगर में
इसी कानपुर शहर के अशोक नगर नामक प्रसिद्ध मोहल्ले में मुझे मकान मिला था। यह मकान मोतीझील की ठीक पीछे उसी से सटा हुआ था। वह एक चार मंजिला मकान था, जिसमें नीचे की तीनों मंजिलों पर दो-दो फ्लैट थे और सबसे ऊपर एक फ्लैट था। प्रत्येक फ्लैट में एक-एक परिवार रहता था। एक फ्लैट प्रायः खाली रहता था, क्योंकि उसमें मकान-मालिक का सामान भरा हुआ था। उस मकान के मालिक थे श्री नरेन्द्र कुमार सिंह। वे वीएसएसडी कालेज में गणित विभाग के अध्यक्ष थे। वह मकान वास्तव में उनके पिताजी श्री पुत्तू लाल सिंह ने बनवाया था, जो स्वयं भी गणित के प्रोफेसर थे। उनके दो पुत्र थे, एक श्री एन.के. सिंह और दूसरे श्री आर.के. सिंह, जो बाद में रेलवे बोर्ड के चेयरमैन भी बने थे। इसी मकान में पहले तल्ले का पीछे वाला फ्लैट हमें मिला था।
उस फ्लैट में तीन कमरे थे और एक किचन था। पीछे सारी मोतीझील दिखायी पड़ती थी। उसका नजारा हमें अच्छा लगता था। उसमें बस एक ही कमी थी कि धूप बहुत कम आती थी और हवा बहुत अधिक आती थी। इससे गर्मियों में तो कुछ आराम रहता था, लेकिन जाड़ों में बहुत परेशानी हो जाती थी। हम लगभग एक साल तक उस फ्लैट में रहे। बाद में हमारे मुख्य प्रबंधक श्री कपूर के स्थानांतरण हो जाने के बाद हमें उनका आगे वाला फ्लैट अपने नाम आवंटित करा लिया और हमारा वाला फ्लैट बैंक ने खाली कर दिया। सामने वाला फ्लैट बहुत अच्छा था। उसमें धूप खूब आती थी और हवा भी पर्याप्त आती थी। इससे वह सभी ऋतुओं में आरामदायक था।
इसी मकान में ऊपर के एक फ्लैट में बैंक आॅफ बड़ौदा के एक वरिष्ठ प्रबंधक श्री डी.पी. सिंह रहते थे। उनके बगल का फ्लैट बन्द था और सबसे ऊपर के फ्लैट में दैनिक जागरण में कार्यरत पत्रकार श्रीमती रोमी अरोड़ा का परिवार रहता था। भूमितल के दोनों फ्लैटों में मकान मालिक और मालकिन अपने पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहा करते थे। उनके पुत्र श्री अनिल कुमार सिंह वकील थे, हालांकि उनकी वकालत हमने कभी चलते नहीं देखी। पुत्रवधू श्रीमती रेनू सिंह डाक्टर थीं और उस समय गणेशशंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय में कोई पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कर रही थीं। उसके कुछ समय बाद वे राज्य सरकार की चिकित्सा सेवा में आ गयीं और उनकी पोस्टिंग भी कानपुर में ही हो गयी। उनका विवाह हमारे कानपुर आने से एक वर्ष पहले ही हुआ था और बाद में वे एक पुत्री के माता-पिता बने। उनकी पुत्री कृतिका अपने माँ-बाप की तरह ही सुन्दर और योग्य है।
हमारे सभी के साथ शीघ्र ही बहुत अच्छे सम्बंध बन गये, जैसा कि हमारी श्रीमती जी के लिए स्वाभाविक है। वैसे भी उनका स्वभाव इतना अच्छा है कि सभी जगह पड़ोसियों से जल्दी ही घनिष्टता हो जाती है। उस बिल्डिंग के ही नहीं आसपास के कई पड़ोसियों से हमारी घनिष्टता हो गयी थी। उनमें से हमारे बायीं ओर के मकान में रहने वाले पड़ोसी थे श्री धीरेन्द्र नाथ पांडे। उनके पिताजी थे श्री सुरेन्द्र नाथ पांडे, जिनका देहान्त हमारे आने से दो साल पूर्व ही हुआ था और उनके नाम की पट्टी अभी भी वहाँ लगी रहती है, जिस पर लिखा हुआ है ‘भूतपूर्व क्रांतिकारी’। पहले मैं इसको मजाक समझता था, परन्तु बाद में पता चला कि वे वास्तव में महान् क्रांतिकारी और शहीद चन्द्रशेखर आजाद के साथी थे और प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। अनेक बड़े कांग्रेसी नेताओं से उनकी घनिष्टता थी, जो प्रायः उनके घर आया करते थे।
जब धीरेन्द्रजी से मेरा परिचय हुआ, तो वे मेरे बारे में जानकर बहुत प्रसन्न हुए। वे मेरी बहुत इज्जत करते थे और प्रायः गपशप करने मेरे पास आ जाते थे। मैं क्योंकि सुन नहीं सकता, इसलिए वे लिखकर ही सब बातें करते थे। वे अपने पिताजी की क्रांतिकारिता की ऐतिहासिक बातें मुझे बताया करते थे, जिनको मैं बड़ी रुचि के साथ सुनता-समझता था। उनके पुत्र श्री सुधीर जी भी मुझे बहुत मानते थे।
हमारा निवास जिस चौराहे के निकट था, वह ‘मोतीझील चौराहा’ के नाम से पूरे कानपुर में प्रसिद्ध है। उसकी प्रसिद्धि का कारण मोतीझील नहीं बल्कि उस चौराहे के आस-पास बनी हुई खाने-पीने की दुकानें हैं। वहाँ कई अच्छे रेस्टोरेंट और मिठाई की दुकानें हैं। साथ में एक आइसक्रीम की ऐसी दुकान है जिस पर साल में दस महीने भीड़ बनी रहती है। वहाँ की पिस्ता कुल्फी बहुत मशहूर है, जो हमें भी बहुत अच्छी लगती थी। वास्तव में किसी समय पूरा मोतीझील क्षेत्र ही खाने-पीने की दुकानों का गढ़ था। वहाँ स्वरूप नगर को मोतीझील चौराहे से जोड़ने वाली लगभग एक किलोमीटर लम्बी एक सीधी सड़क है, जो मोतीझील के किनारे-किनारे जाती है। उस पर किसी समय दिन-रात मेला लगा रहता था। वहाँ सड़क के दोनों ओर खाने-पीने की चीजों की कच्ची-पक्की दुकानें बन गयी थीं। बाद में प्रदेश में भाजपा सरकार बनने पर वहाँ से दुकानों को हटाया गया। लेकिन मोतीझील चौराहा रेस्टोरेंटों के कारण आबाद बना रहा।
जब हम उस घर में आये तो सबसे पहली चिन्ता हमें अपने पुत्र दीपांक का एडमिशन कराने की हुई। वह वाराणसी में एक सरस्वती शिशु मंदिर में कक्षा 2 में पढ़ रहा था, इसलिए हम किसी शिशु मंदिर में ही उसका प्रवेश कराना चाहते थे। हमारे घर के निकटतम शिशु मंदिर था कौशलपुरी का सनातन धर्म सरस्वती शिशु मंदिर, जो कई कारणों से बहुत प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित है। वह हालांकि हमारे घर से मुश्किल से आधा किलोमीटर दूर है, परन्तु रास्ते में छोटे-बड़े तीन चौराहे पड़ते हैं और एक रेलवे लाइन भी पार करनी पड़ती है। हम वाराणसी से स्थानांतरण प्रमाणपत्र साथ ले आये थे, इसलिए हमें उसका प्रवेश होने की पूरी आशा थी। फिर भी हमने अपने घनिष्ट परिचित प्रचारक डा. अशोक वार्ष्णेय से उस विद्यालय के प्रधानाचार्य के नाम एक पत्र ले लिया। उस पत्र तथा अन्य कागजों को लेकर मैं अशोक नगर के संघचालक मा. ब्रज लाल जी गुप्त तथा एक अन्य स्वयंसेवक मा. ओम प्रकाश जी शर्मा के साथ कौशलपुरी के सरस्वती शिशु मंदिर में गया और वहाँ दीपांक का प्रवेश करा दिया। आने-जाने के लिए हमने उसी स्कूल का रिक्शा भी तय कर दिया। इस प्रकार उस विद्यालय में दीपांक की पढ़ाई सुचारु रूप से चलने लगी।
बहुत बढ़िया सर ……….दूसरी क़िस्त भी बहुत रोचक है …मैं कभी कानपुर नहीं गया हूं , मगर घर बैठे ही अपने कानपुर के दर्शन करवा दिए …अब अगली क़िस्त पढ़ने के लिए बेचैन हो रहा हूँ l
हा..हा..हा.. कानपूर एक अच्छा शहर है. आगे की दो क़िस्त और लगा दी हैं. पढ़कर देखिये कैसी हैं.
आज की क़िस्त रोचक एवं प्रभावशाली लगी। एक वर्ष पूर्व एक विवाह की बारात में हरिद्वार से कानपुर जाने का अवसर मिला था। सायंकाल या दिन में पहुंचे थे और दूसरे दिन प्रातः ४ बजे ही वह से लखनऊ आ गए थे। वहां से रेल गाड़ी से देहरादून पहुँच गए थे। हमारे एक आगरावासी मित्र श्री सुरेन्द्र उपाध्याय की कानपुर में ससुराल है। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।
आभार, मान्यवर !
विजय भाई , दुसरी कड़ी भी अच्छी लगी , ख़ास कर कान पुर का इतहास पड़ कर अच्छा लगा ,मेरा खियाल है यहाँ १८५७ के आजादी संग्राम में भी बहुत कुछ हुआ था . छाछ के बारे में पड़ कर अच्छा लगा किओंकि छाछ में तो पंजाबिओं की जान है और यहाँ भी घर बनाते ही रहते हैं .हम इस को लस्सी कहते हैं और यहाँ स्टोर से भी बनी बनाई लस्सी मिल जाती है जिस में तरह तरह के फ्रूट जुइस मिक्स किये होते हैं . और १९८४ में यहाँ भी सिखों का बहुत नुकसान हुआ था . सूरा मन्डियो का पड़ कर हंसी आ गई .
धन्यवाद, भाई साहब. छाछ को कानपुर में ‘मठा’ कहा जाता है. इसमें नमक डालकर पिया जाता है. जब दही में चीनी डालकर मथकर पिया जाता है तो उसे ‘लस्सी’ कहते हैं. लस्सी भी यहाँ खूब बिकती है. यहाँ लस्सी में कोई जूस नहीं मिलाया जाता. मुझे मठा पीना ज्यादा पसंद है. गाँव में हमारे घर पर भी रोज मठा बनता था.
मुझे पता है कि १९८४ में कानपुर में कई सिख बंधुओं को कांग्रेसियों ने मारा था.