आत्मकथा

स्मृति के पंख – 26

केवल सिर्फ 12 घंटे का था, इसलिये उसको माता के साथ अस्पताल के डब्बा में जगह मिल गईं। हमें क्या पता था कि 12 घण्टे का रास्ता 4 दिन बाद खत्म होगा। जहाँ भी रास्ते में हालात की नजाकत को समझते, मिलेट्री वाले गाड़ी रोक देते और मोरचे संभाल लेते। स्टेशन से किसी चीज को नहीं लेने देते थे। जो थोड़ा सामान लाये थे खत्म हो गया। बच्चों को भी भूखा रहना पड़ता। अस्पताल के कमरे में थोड़ी सहूलियत थी बैठ या लेट जाने की और पानी का इंतजाम था। रास्ते में रमेश ज्यादा तंग करता था और उसे माताजी और गौरज बहन उठाये रखती। गाड़ी एक जगह रुक गई। माताजी रमेश को लेकर प्लेटफार्म पर उतर गई और वहाँ ही लेट गये। हवा लगने से दादी पोता दोनों सो गए। बेआरामी का सफर था, लेटते ही आँख लग गई। इतने में गाड़ी चल पड़ी। मैं काफी परेशान था, जब मुझे पता चला कि वह प्लेटफार्म पर रह गये हैं। अब तो भगवान की याद और प्रार्थना से ही दिल की ढाढ़स देनी थी। प्रभु सहायता करो। इतने खराब हालात से सबको बनाकर निकाला, अब रास्ते में यह कैसा इम्तहान ले रहे हो।

माताजी की जब आंख खुली तो गाड़ी को प्लेटफार्म पर न देखकर उन्हें बड़ी चिंता हुई। लेकिन वहाँ कैम्प से दो गाड़ियां साथ-साथ चली थीं। हमारी गाड़ी आगे थी और भ्राताजी वाली गाड़ी पीछे थी। थोड़ी देर बाद वह गाड़ी आ गई और माताजी ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया- काशीराम, जानकी। भ्राताजी ने आवाज सुन ली। देखा तो माताजी और उनकी गोदी में रमेश। वे उस गाड़ी में चढ़ गईं। मेरे दिल को भी बस यही सहारा था कि दूसरी गाड़ी पीछे है और जब अटारी स्टेशन से कुछ दूरी पर ही थे कि तिरंगा झण्डा लहराता देखा, तो लोगों की जान में जान आई। अटारी स्टेशन पर लोगों ने अच्छा इंतजाम कर रखा था- दाल, रोटी, अचार, पानी वगैरह का। लोगों ने सुख की सांस ली। गाड़ी से उतर कर लोगों ने भरपेट खाना खाया और मेरा सिर अकीदत से अपने तिरंगे के आगे झुक गया।

पीछे दूसरी वाली गाड़ी जालंधर स्टेशन पर हमारे साथ पहुँच गई। हम सब लोग एक साथ इकट्ठे हो गये। माताजी और रमेश (गुड्डे) को देखकर बहुत ज्यादा खुशी हुई। वैसे राज, पृथ्वीराज भी 4 दिन बाद मिले थे। भ्राताजी की ख्वाहिश के मुताबिक हमने लुधियाना उतरना था। उनके ससुराल वाले पहले लुधियाना आ चुके थे। हमारा किसी कैम्प में जाने का कोई इरादा नहीं था। अपने आप पर विश्वास था कि मेहनत मजदूरी करके इतनी बड़ी दुनिया में बच्चों की रोटी का जरिया बना लेंगे। कैम्प में सहारा मिल जाने से हम अपना कर्तव्य भूल जायेंगे। और फिर सारी उम्र कैम्प में ही थोड़ा रहना है? जो काम कल शुरू करना था, उसे आज शुरू करना बेहतर है।

मेरी बीवी गंगामूर्ति का दिल लुधियाना उतरने का न था। लेकिन हमें नया जीवन शुरू करना था। सो कम से कम दो भाई तो सलाह करेंगे। लुधियाना स्टेशन पर हम शाम 5 बजे उतरे। वह 24 अक्टूबर 1947 का दिन था, जब हमने आजाद भारत के लुधियाना स्टेशन पर कदम रखा। फिर मुहल्ला फतेहगंज जहाँ भ्राताजी के ससुराल वाले थे वहाँ आ गए। नजदीक ही एक दूसरे मकान में हम रहने लगे। एक बिस्तरों का नग बहुत बड़ा भारी कोई हमारे डब्बे में घुसेड़ कर चला गया था। शायद वह गाड़ी से रह गया, चढ़ नहीं सका। वह बिस्तरों का नग हमने लुधियाना उतार लिया। हम सबके पास कोई बिस्तर भी न थे। उस नग में से एक बिस्तरा चादर कम्बल बेबे सीतादेवी को दिया और बाकी में से दो बिस्तर भ्राताजी ने और दो मैंने लिये। आगे सर्दियों के दिन थे, जैसे वह नग भगवान ने हमारे लिये भेजा था।

सबसे पहले काम की तलाश में निकले। मेरी जेब में वही बंदूक के बदले वाले 200 रुपये थे। बाजार में काम की गर्ज से ताराचन्द रघुनाथ फिर रहे थे कि हमारी मुलाकात लाला ज्वालादास धवन पेशावर वाले से हो गई। ज्वालादास पेशावर के अच्छे बारसूख खानदान से थे। पेशावर में उनका लोहे का अच्छा कारोबार था। एक बुलटेयर कुत्ता हर वक्त साथ रखते। उन्हें बहुत शौक था। आम तौर पर ‘घुदा’ के नाम से मशहूर थे। कभी-कभी भगतराम को मिलने गलाढेर भी आया करता थे। उनसे मिलकर खुशी हुई और काम के बारे में सलाह भी की। एक तजवीज पर गौर हुआ कि हम लोग सब्जी मण्डी में काम शुरू करते हैं। हेड आफिस लुधियाना होगा, बाकी दीगर मण्डियों में भी शाखायें खोलेंगे। नेताजी के नाम पर कारोबार खेलना शुरू करेंगे। हमें यहाँ मण्डी में दुकान मिल सकती है। चलो सबसे पहले यही काम करना चाहिये और सरदार गुरुबख्श सिंह एक बुजुर्ग कांग्रेसी थे, जिनकी सब्जी मण्डी के साथ ही रिहायश थी। उसने जी0टी0रोड पर एक दुकान का ताला तोड़ कर हमें कब्जा दिया।

अब तजवीज यह रखी की 500 रु. फी मेम्बर, जो फ्रंटियर का हो, जमा करवायें। अगर उसे काम छोड़ कर जाना होगा तो 490 रुपये ले जा सकता है। शुरू में हमारे साथ बाबा भगतसिंह भल्ला मरदान के, उनके मामू नानकचन्द, सरदार अर्जुन सिंह, सरदार गंगा सिंह, मैं, रघुनाथ कपूर, रघुनाथ पुरी, ताराचन्द धवन, सीताराम, श्रीराम, मूलचन्द कपूर, भोलाराम धवन, रामलाल मल्होत्रा और लाला ज्वालादास धवन और भी कई साथी थे, लेकिन कई जल्दी चले गये। नया काम इतनी जल्दी थोड़े कामयाब होना था? बाकी हम 16 आदमी रह गये। पंजाब में तबाही के बायस सब्जियां वगैरह तो थी नहीं, न ही किसी ने काम शुरू किया था। सोलन या शिमला से माल मंगाते। मौजू कण्ट्रोल न हो सकने के बायस अकसर नुकसान हो जाता। दूसरा, फ्रंटियर वालों को बसाने का काम पंजाब में सरकार की तरफ से मंजूरी न मिलने के कारण मुश्किल लगता। हमें यहाँ कहा जाता कि पंजाब पंजाबियों के लिये है। फ्रंटियर वालों को फरीदाबाद या दूसरे कैम्प में रखा जायेगा।

लेकिन हमने तो फैसला कर लिया था और ज्वालादास की पूरी कोशिश थी कि हम पंजाब में बस जायेंगे। वह भीमसेन सच्चर साहब को मिलते रहते, जो उस वक्त मुख्यमंत्री थे। शिमला में कई बार ज्वालादास उनसे मिलने गये। दूसरा काम, हमने सुर्खपोशों की वर्दिया सिलवा लीं और कांग्रेस के जलसों में शामिल भी हो जाते और हमें बुलवाया भी जाता। वहाँ जलसों में भी ज्वाला दास अपनी तकलीफ का जिकर करते। एक दफा ज्वालादास के साथ मैं देहली भी गया कि लाला मेहरचन्द पेशावर वाले , जो कि कैबिनेट मंत्री थे, हमारी मदद करें। लेकिन उन्होंने कहा, ‘घुदे, पेशावर वाला मेहरचन्द मर गया है। यहाँ मैं कुछ नहीं कर सकता। वायदा नहीं करता। जब मौका मिला, तो जरूर कोशिश करूँगा।’ लेकिन हमने अपनी कोशिशें जारी रखीं और तब कहीं जाकर फ्रंटियर वालों को पंजाब में बसाने का हुकूमत ने फैसला कर दिया।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

2 thoughts on “स्मृति के पंख – 26

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरी आत्मकथा पढ़कर यह अनुभव किया संसार में अनेक लोग मनुष्य नहीं अपितु पशुओं से भी बदतर होते हैं। जो मनुष्य निर्दोष के प्रति हिंसा का व्यववहार करता है वह मनुष्य नहीं कहा जा सकता।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत बुरे हालातों से बच कर आ तो गए , यहीं बहुत था . इतने बुरे दिन भगवान् कभी ना लायें .

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