लघु कथा : वेशकीमती चावल
“उफ !! फिर ये राशन के मोटे चावल, नहीं खाने मुझे “बेटी ने कहा
“मुझे भी नहीं खाने “बेटे ने भी हाँ में हाँ मिला दी.
मैं सोच रही थी कि मासूमों को कैसे समझाऊं कि पति के कमरे से आवाज़ आई “मैडम आप परेशान न हों, मैं बच्चों को समझा दूंगा ”
ये आवाज़ लक्खा सिंह जी की थी जो मेरे पति का कुछ सामान लेकर श्री लंका जाने वाले थे । अचानक ही पलटन कूच कर चुकी थी, हालात बहुत नाजुक थे, न मालूम कल क्या हो और ये बच्चे, —- अनमनी सी मैं रसोई में चली गई । लकखा सिंह बच्चों के साथ बच्चे बने हुए उन्हें कहानी सुना रहे थे ।
“फिर क्या हुआ भैया, आप बारह लोगों का पेट छः पूरियों से भर गया ”
“अरे सबने बाँट कर आधी-आधी खाई और पानी पीकर खुश होगये । ” और एक जोर का ठहाका लगाया ।
“और पापा ने —-” बेटी आठ साल की थी उसकी मोटी -मोटी आँखों में आँसू तैर रहे थे ।
लक्खा सिंह ने बेटी के सिर पर हाथ फेरकर कहा “आपकी मम्मी आपको खिला कर खाती है न , आपके पापा भी कमान्डर हैं सब जवानों के खाने के बाद ही खाते हैं ”
बेटे ने लक्खा सिंह के हाथ पकड़ लिए । “अब हम कभी भी मम्मी को परेशान नहीं करेंगे ”
पता नहीं बच्चे कितना समझे पर मैं समझ गई कि ये मोटे चावल वेशकीमती हैं । लकखासिंह ने मुस्कराकर मेरी तरफ देखा । “अच्छा मैडम मैं चलता हूँ ”
“आप भी कुछ खा लेते ”
“मैडम जी, फौजी के पिट्ठू में पूरी और पानी है, देर हो रही है. सत श्री अकाल जी”
मैने कृतज्ञता वश अपने दोनों हाथ जोड़ दिये।
— लता यादव
बहुत अच्छी लघुकथा !
अच्छी लघु कथा .