आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 3)

डा. अनिल अग्रवाल

कानपुर आये हुए हमें अधिक दिन नहीं हुए थे, जब हमारा परिचय दूर के एक रिश्तेदार छात्र से हुआ, जो कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी चिकित्सा महाविद्यालय में एम.बी.बी.एस. में पढ़ रहे थे। वे थे डा. अनिल अग्रवाल। वे हमारे मथुरा वाले सबसे बड़े साढ़ू श्री हरिओम अग्रवाल, जो अब सूरत में रहते हैं, के भतीजे लगते हैं और उन्होंने ही हमारे बारे में उनको बताया था। एक दिन डा. अनिल अपने एक सहपाठी डा. सन्तोष गुप्ता के साथ हमसे मिलने आये। हमारा उनसे परिचय हुआ, तो हमें बहुत प्रसन्नता हुई। वे दोनों ही बहुत प्रतिभाशाली हैं। वैसे भी एम.बी.बी.एस. में प्रवेश कड़ी परीक्षा के बाद ही मिलता है। दोनों बहुत ही सच्चरित्र और सुशील हैं। वीनू जी रिश्ते में डा. अनिल की मौसी लगती हैं, इसलिए वह तथा उसके सभी सहपाठी मुझे मौसाजी कहते हैं और मिलने पर हमेशा पैर छूते हैं। उनके सहपाठियों में डा. राजीव अग्रवाल, डा. योगेश और डा. मधुवन के नाम मुझे याद हैं।

उन लोगों ने अपने कालेज में आगरा-मथुरा के 20-25 विद्यार्थियों का एक समूह बना रखा था और वे अपना भोजन एक मैस में स्वयं बनवाते थे। खाना बनाने के लिए उन्होंने एक आदमी और उसकी सहायता के लिए एक लड़का रखा हुआ था। खरीदारी वगैरह स्वयं करते थे और हिसाब-किताब तथा देखभाल की जिम्मेदारी बारी-बारी से विद्यार्थी उठाया करते थे। वे अपना खाना साधारण होटलों की तुलना में अच्छा बनवाते थे। एक-दो बार हम भी उनकी मैस में खाना खाने गये थे, जो कुल मिलाकर बहुत अच्छा था।

एक बार डा. अनिल ने मादा भ्रूण हत्या के विरोध में एक कहानी लिखी। इस कहानी में उन्होंने एक अजन्मे मादा भ्रूण की कथा उसी के शब्दों में लिखी थी कि किस प्रकार एक मादा भ्रूण अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने देखती है और फिर किस प्रकार गर्भपात कराके उसके सपनों का खून कर दिया जाता है। कहानी बहुत मार्मिक थी। छपने से पहले डा. अनिल ने वह मुझे पढ़ने के लिए दी, क्योंकि उसे पता था कि मैं साहित्य में रुचि रखता हूँ और लिखता-पढ़ता रहता हूँ। मैंने कहानी पढ़कर डा. अनिल से कहा कि कहानी तो बहुत अच्छी है, परन्तु इसमें एक कमी है। वह यह कि इसमें उस डाक्टर का कोई जिक्र नहीं है, जो कुछ रुपयों के लालच में एक मादा भ्रूण की हत्या करता है। डा. अनिल ने यह तो माना कि वास्तव में कहानी में यह कमी है, परन्तु वह उस कमी को दूर करने अर्थात् गर्भपात करने वाले डाक्टर का उल्लेख उसमें करने को तैयार नहीं हुए। अपने पेशे के प्रति ऐसा पक्षपात प्रायः सभी लोग किया करते हैं।

एक बार मेडीकल काॅलेज के छात्रों ने अपने वार्षिक समारोह में फैशन शो आयोजित किया। इसमें केवल डाक्टरी पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं को भाग लेना था। कानपुर के अलावा अन्य कई शहरों के छात्र-छात्राओं को भी इसमें रैम्प पर कैटवाॅक करना था। डा. अनिल और डा. सन्तोष के आग्रह पर हम सभी इस शो को देखने गये। हमें विशेष रूप से आगे की पंक्ति में बैठाया गया था, जहाँ से मंच साफ दिखाई देता था। हमें यह फैशन शो देखकर बड़ा आनन्द आया। इससे पहले मैंने केवल टी.वी. पर फैशन शो देखे थे।

डा. अनिल और उनके सहपाठी योग्य तो हैं ही। एम.बी.बी.एस. करने के बाद उन सबका प्रवेश प्रायः पहली ही बार में एम.डी. में हो गया था, वह भी उनकी पसन्द की लाइन में। डा. अनिल अब चर्म रोग विशेषज्ञ हैं, डा. सन्तोष हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं, शेष भी एम.डी. हो गये हैं और अच्छा कमा रहे हैं। डा. सन्तोष और डा. राजीव ने तो अपना-अपना अस्पताल ही बना रखा है।

डा. अनिल का विवाह कानपुर की ही डा. रचना से हुआ है। उनको पहली बार देखने हम भी गये थे। डा. रचना हमें अच्छी लगीं। वे अच्छे परिवार की सुशील लड़की हैं। उनके पिताजी श्री कानकाणी स्टेट बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। उनका विवाह मथुरा में हुआ था। हम भी पूरे परिवार के साथ उनके विवाह में शामिल होने गये थे। जब तक हम कानपुर में थे, उनसे मिलना हो जाता था। परन्तु जब कानपुर छूट गया, तो कभी-कभी टेलीफोन पर बात हो जाती है। डा. सन्तोष तो आगरा में ही हैं। उनसे प्रायः मिलना होता रहता है।

बैंक कम्प्यूटरीकरण का हाल

जिस समय मैं स्थानांतरित होकर अपने बैंक के कानपुर मंडल में आया था, उस समय उस मंडल में कार्यालयों और शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य बहुत ही प्रारम्भिक स्तर पर था। मंडल की 128 शाखाओं में से केवल 3 शाखाएँ – कानपुर मुख्य, स्वरूप नगर और गुमटी नं. 5 – आंशिक रूप से कम्प्यूटरीकृत थीं। शेष शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य प्रगति पर था, जिसका अर्थ है कि काफी पिछड़ा हुआ था और निकट भविष्य में उनका कम्प्यूटरीकरण होने की कोई संभावना नहीं थी। हमारे कम्प्यूटर सेंटर में अवश्य मिनी कम्प्यूटर लगा हुआ था, जिस पर वेतन गणना, पेंशन गणना, एडवांस शीट, वीकली आदि मुख्य कार्य हो जाते थे।

स्वयं मंडलीय कार्यालय भी कम्प्यूटरों के मामले में कंगाल था। वहाँ दो पुराने पर्सनल कम्प्यूटर (पीसी) अवश्य पड़े हुए थे, जिन पर कोई कार्य नहीं होता था। हालांकि वहाँ के दो-तीन अधिकारियों को कम्प्यूटरों पर कार्य करने का विशेष प्रशिक्षण मुम्बई में दिया गया था, परन्तु वे जानबूझकर कुछ भी करना नहीं चाहते थे। पत्र आदि भी टाइपिस्ट ही पुराने यांत्रिक टाइपराइटर पर टाइप करता था। इसका एक कारण यह भी था कि पीसी पर हिन्दी पत्रों को टाइप करने की कोई सुविधा नहीं थी और कानपुर का अधिकांश पत्रव्यवहार हिन्दी में होता था। फिर भी उनमें से एक पीसी का उपयोग वहाँ के हिन्दी अनुवादक, जिनका नाम श्री रजत जैन था, कर रहे थे और उस पर छोटा-मोटा कार्य कर लेते थे या गेम खेलते रहते थे।

वहीं मेरा परिचय वहाँ के तत्कालीन हिन्दी अधिकारी श्री प्रवीण कुमार से हुआ। वे मेरठ के रहने वाले हैं और अग्रवाल परिवार से सम्बंध रखते हैं। वैसे मैं उन्हें तथा वे मुझे थोड़ा-थोड़ा पहले से जानते थे, क्योंकि जब मैंने लखनऊ में इलाहाबाद बैंक में सेवा प्रारम्भ की थी तो वे वहीं हिन्दी अधिकारी के रूप में कार्यरत थे। परन्तु उनसे घनिष्ट परिचय कानपुर आकर ही हुआ, जो समय के साथ घनिष्टतर और घनिष्टतम होता चला गया। संयोग से उनकी पत्नी श्रीमती ममता श्रीवास्तव भी हमारे बैंक में हिन्दी अधिकारी थीं और उस समय कानपुर क्षेत्रीय कार्यालय पांडु नगर में पद स्थापित थीं। वास्तव में प्रवीणजी और ममताजी एक साथ हिन्दी अधिकारी बने थे और वहीं उनमें प्रेम विवाह हुआ था, हालांकि दोनों की जातियाँ अलग-अलग हैं। परन्तु ममता जी ने विवाह के बाद भी अपना नाम परिवर्तन नहीं किया, जैसी कि प्रथा है।

यहाँ यह बता देना असंगत न होगा कि हिन्दी के प्रति अपने स्वाभाविक प्रेम और आग्रह के कारण मैं जहाँ भी सेवा करता था, वहाँ के हिन्दी अधिकारियों, जिन्हें सरकारी शब्दावली में राजभाषा अधिकारी कहा जाता है, से मेरी घनिष्टता हो जाती थी। कानपुर से पहले वाराणसी में भी दोनों हिन्दी अधिकारियों श्री नरेन्द्र धस्माना और श्री रामाशीष तिवारी से मेरी बहुत घनिष्टता थी। उससे भी पहले लखनऊ में एच.ए.एल. के हिन्दी विभाग के अधिकारी और कर्मचारियों से मेरी अंतरंगता थी। इसी तारतम्य में प्रवीणजी से मेरी अंतरंगता हुई। आगे भी मेरी यह प्रवृत्ति बनी रही।

कानपुर में हमारा कम्प्यूटर सेंटर सुचारु रूप से चल रहा था। श्री श्रवण कुमार श्रीवास्तव पहले ही भोपाल भेजे जा चुके थे। लखनऊ से आने वाले दो अधिकारियों – श्री अनिल मिश्र और श्री अब्दुल रब खाँ- का स्थानांतरण वहाँ से दूर क्रमशः मेरठ और पटना किया जा चुका था। इनके बदले में मेरे वाराणसी के सहयोगी श्री अतुल भारती की नियुक्ति कानपुर में हमारे ही कम्प्यूटर सेंटर पर हो गयी। श्री शैलेश कुमार अभी भी वहीं थे। इनके अतिरिक्त श्रीमती रेणु सक्सेना इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर वहाँ आयीं परन्तु एक दिन बाद ही उनको कानपुर मुख्य शाखा में लगा दिया गया। इस तरह मेरे कम्प्यूटर केन्द्र पर मुझे मिलाकर कुल चार अधिकारी, दो कम्प्यूटर आॅपरेटर और एक क्लर्क थे।

हमारे कार्य की मात्रा के अनुसार इतने लोग पर्याप्त थे, परन्तु तब तक कोई चपरासी नहीं था। इससे पानी वगैरह स्वयं लाकर पीना पड़ता था।
शीघ्र ही एक चपरासी श्रीमती कृष्णा देवी की नियुक्ति हमारे कम्प्यूटर सेंटर पर कर दी गयी। उनके पति हमारे बैंक में सिक्योरिटी गार्ड थे, जिनका आकस्मिक देहान्त हो जाने के कारण उनकी पत्नी को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी दी गयी थी, हालांकि वे नितांत अनपढ़ थीं। कृष्णा देवी के आने से हमें काफी आराम हो गया। चाय-पानी के साथ ही मंडलीय कार्यालय पत्र आदि ले जाने तथा अन्य छोटे-मोटे कार्य भी उनसे कराये जाते थे।

कृष्णा देवी के अनपढ़ होने के कारण हमें उनसे काम लेने में कभी-कभी बहुत कठिनाई होती थी। इसलिए मैंने सोचा कि उन्हें कम से कम हिन्दी तो सिखा ही सकता हूँ। अतः मैंने रोज घंटा-आधा घंटा उनको पढ़ाना शुरू किया। ककहरा तो वे कुछ जानती थीं, बाकी सीख गयीं। फिर मैंने उन्हें मात्राओं का ज्ञान कराना शुरू किया। परन्तु उनका दिमाग इतना कमजोर था कि पूरे 2 महीने तक बहुत प्रयत्नों के बाद भी वे ‘क’ और ‘का’ का अन्तर नहीं समझ पायीं। मजबूर होकर मुझे उनको पढ़ाना बन्द कर देना पड़ा।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 3)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त पढ़कर प्रसन्नता हुई। हार्दिक धन्यवाद। आपने एक अपढ़ महिला को हिंदी पढ़ाने का प्रयास किया, यह जानकार आपके प्रति मेरा सम्मान और अधिक बढ़ गया। मैंने भी जीवन में सभी मित्रो और संपर्क में आये व्यक्तियों को अध्ययन, अध्यापन एवं स्वाध्याय करने की प्रेरणा की है। ऐसे कई मित्र हैं जो जीवन में आगे बढे हैं। आर्य समाज का एक नियम है की अविद्या का नाश एवं विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। वैदिक संस्कृति में सभी मनुष्यों पर तीन ऋण होते हैं जो पितृ ऋण, ऋषि ऋण व देव ऋणों के नाम से जाने जाते है। स्वंयम विद्या पढ़ना वा उसे दूसरों को पढ़ाना ऋषि व देव ऋण से उऋण होना है। आज की पूरी क़िस्त रोचक एवं प्रभावशाली है। पुनः हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज का काण्ड भी बहुत अच्छा लगा .अंत में कृष्णा देवी की बात पड़ कर मुझे हंसी आ गई किओंकि मैंने भी एक औरत को पंजाबी पडाने की कोशिश की थी . जब मैं उस को स सकूल पड़ा कर उस को पूछता तो वोह स बिली कह देती .उस को लफ़्ज़ों की साऊंड समझ नहीं आती थी . कुछ लोगों की इतनी समझ नहीं होती .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब !
      बिलकुल ऐसी ही थी कृष्णा. हमारे मंडलीय कार्यालय के एक अधिकारी का नाम ‘इस्माइल’ था. पर लाख समझाने के बाद भी वह उनको ‘उस्माइल’ कहती थी.

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