कविता
अब नहीं लगते वो मेले
हँसी के वो बेफिक्र ठहाके
माप तौल ही अब तो बस दिखती
अब तो ऐसे हो गए हैं रिश्ते
तुम ना यूं उदास हो कि
अकेले नहीं चलेंगे यह सिलसिले
कदम अपना बढ़ाकर तो देखें
क्यूं कदम रह रहकर वापिस खींचे
राह से राह मिलती चलेगी
मुसाफिर वो जो मंज़िल से पहले
ना रूके बस सही राह टटोले
— कामनी गुप्ता जम्मू
बहुत अच्छी कविता !