माँ / जिलावतन
आज गाँव से एक तार आया है !
लिखा है कि ,
माँ गुजर गई……..!!
इन तीन शब्दों ने मेरे अंधे कदमो की ,
दौड़ को रोक लिया है !
और मैं इस बड़े से शहर में
अपने छोटे से घर की
खिड़की से बाहर झाँक रहा हूँ
और सोच रहा हूँ …
मैंने अपनी ही दुनिया में जिलावतन हो गया हूँ ….!!!
ये वही कदमो की दौड़ थी ,
जिन्होंने मेरे गाँव को छोड़कर
शहर की भीड़ में खो जाने की शुरुवात की …
बड़े बरसो की बात है ..
माँ ने बहुत रोका था ..
कहा था मत जईयो शहर मा
मैं कैसे रहूंगी तेरे बिना ..
पर मैं नही माना ..
रात को चुल्हे से रोटी उतार कर माँ
अपने आँसुओं की बूंदों से बचाकर
मुझे देती जाती थी ,
और रोती जाती थी…..
मुझे याद नही कि
किसी और ने मुझे
मेरी माँ जैसा खाना खिलाया हो…
मैं गाँव छोड़कर यहाँ आ गया
किसी पराई दुनिया में खो गया.
कौन अपना , कौन पराया
किसी को जान न पाया .
माँ की चिट्ठियाँ आती रही
मैं अपनी दुनिया में गहरे डूबता ही रहा..
मुझे इस दौड़ में
कभी भी , मुझे मेरे इस शहर में …
न तो मेरे गाँव की नहर मिली
न तो कोई मेरे इंतज़ार में रोता मिला
न किसी ने माँ की तरह कभी खाना खिलाया
न किसी को कभी मेरी कोई परवाह नही हुई…..
शहर की भीड़ में , अक्सर मैं अपने आप को ही ढूंढता हूँ
किसी अपने की तस्वीर की झलक ढूंढता हूँ
और रातों को , जब हर किसी की तलाश ख़तम होती है
तो अपनी माँ के लिए जार जार रोता हूँ ….
अक्सर जब रातों को अकेला सोता था
तब माँ की गोद याद आती थी ..
मेरे आंसू मुझसे कहते थे कि
वापस चल अपने गाँव में
अपनी मां कि गोद में …
पर मैं अपने अंधे क़दमों की दौड़
को न रोक पाया …
आज , मैं तनहा हो चुका हूँ
पूरी तरह से..
कोई नही , अब मुझे
कोई चिट्टी लिखने वाला
कोई नही , अब मुझे
प्यार से बुलाने वाला
कोई नही , अब मुझे
अपने हाथों से खाना खिलाने वाला..
मेरी मां क्या मर गई…
मुझे लगा मेरा पूरा गाँव मर गया….
मेरा हर कोई मर गया ..
मैं ही मर गया …..
इतनी बड़ी दुनिया में ; मैं जिलावतन हो गया !!!!!
© विजय कुमार सप्पत्ति
बहुत मार्मिक कविता !