आत्मकथा

स्मृति के पंख – 27

मलेर कोटले में मुसलमान लोग बैठे थे। और वहाँ बाकायदा पैदावार हो रही थी। वहाँ के मुसलमान पाकिस्तान नहीं गये थे। हमने उन लोगों को जाकर कहा कि लुधियाना माल भेजो। लेकिन वह लोग डरते थे। हमने बाबू बच्चन सिंह एम0एल0ए0 से उनका जिक्र किया। उसने कहा- मुझसे लिखवा कर ले जाओ। उन लोगों को मैं लिखकर दे दूँगा कि यह भारत सरकार के वफादार शहरी हैं। इन्हें न तो पुलिस और न ही जनता तंग करे। वह कार्ड वहाँ मलेर कोटला में आढ़तियों और व्यापारियों में तकसीम कर दिये और वह लोग माल लाना शुरू कर दिया। उन्हें भी फायदा था क्यांेकि मुकामी सब्जी तो थी नहीं। अच्छे भाव में माल बिक जाता। वह लोग भी काफी खुश थे। हमारा काम भी थोड़ा जमने लगा।

अब मैंने बच्चों के बारे में सोचना शुरू किया। सब्जी मण्डी काफी दूर थी। मेरा इरादा था कहीं नजदीक मकान मिल जाये तो अच्छा होगा। सब्जी मण्डी के नजदीक ही आर्य हाईस्कूल था, लेकिन हमें तो पहले आबादकारी के मसले ने परेशान कर रखा था। कोई घर अब मिलना मुश्किल था। एक ऐसा मकान मिला जिसकी आधी छत नहीं थी। हमने वहाँ रहना शुरू कर दिया। मैं और गोरज बहन दोनों परिवार उस आधी छत के नीचे रहने लगे। भ्राताजी ने फैसला किया था कि मैं अपना अलग काम करूँगा। अभी तक वह ससुराल में ही रह रहे थे। बाद में वही आधी छत वाला मकान भाई श्रीराम के नाम अलाट हुआ, जिसमें वह आज भी रह रहे हैं।

एक दिन रात को बहुत आंधी और तूफान और बहुत जोर की बारिश हुई। तबाह हाल लोगों को देखने के लिये कांग्रेस ने अपने कार्यकर्ता भेजे, जहाँ रिफ्यूजी लोग रह रहे थे। मैं तो सुबह मण्डी चला जाता। हमारे घर देखने के लिये श्री नन्दलाल आहूजा आये और दोनों बच्चों रमेश और केवल को देखकर मेरे बारे में पूछा। बहन गोरज ने कहा था मण्डी में काम करते हैं। फिर वह मेरे पास आये और मुझे एक फार्म देकर कहने लगे कि इस पर दस्तखत कर दो। कहीं नजदीक मकान मिला, तो मैं तुम्हारे साथ कर दूँगा। मैंने आर्य हाईस्कूल में पृथ्वीराज को दाखिल करा दिया और आर्य कन्या विद्यालय में राज को। सामने तो समस्यायें ही पड़ी थीं। फिर भी मेरा पुख्ता इरादा था कि बच्चों को शुरू से ही अच्छी तालीम मिले और जिस कमी का मुझे अपने जीवन में दुख था, बच्चों में वह कमी न रहे।

कुछ अर्सा बाद रामलाल गुलाटी और कुन्दनलाल मल्होत्रा ने आकर ख्वाहिश जाहिर की कि हमें भी साथ रख लो। रामलाल गुलाटी मरदान गुड़ मण्डी में अच्छा मुनीम था और कुन्दनलाल हमारी उस बहन रानी बेबे का लड़का था, जिसे मैं पहले सगी बहन समझता था। बाद में मुझे पता लगा कि वह हमारी सगी बहन नहीं है। रामलाल ताराचन्द का अच्छा वाकिफ था। हमने ज्वालादास से कहा कि इन्हें रख लो क्योंकि हमारे यहाँ एकाउन्ट करने वाला कोई आदमी नहीं है। रामलाल अच्छा मुनीम है और दूसरा घर का आदमी है। लेकिन लाला ज्वाला दास टालमटोल करते रहे। फिर मैंने और ताराचन्द ने उन्हें जोर देकर कहा कि यह काम करना है। तो मुझे ज्वालादास कहने लगा कि तुम दोनों जोर लगाते हो, तो जैसी तुम्हारी मर्जी, लेकिन मुझे यह दोनों आदमी ठीक नहीं लगते। एक कोरा है और दूसरा मदरा, दोनों खतरनाक होते हैं। रामलाल की आंखे कोरी थीं और कुन्दन लाल का कद मदरा था। फिर भी तुम कहते हों तो रख लेते हैं। इनका हिस्सा 12 आने रखेंगे। इस तरह कुन्दनलाल, रामलाल व एक और सरदार मान सिंह 12 आने पर आ गये।

लुधियाना में आलू 40 रुपये मन बिक रहा था फिर भी मिलना मुश्किल था। मैं और सरदार अर्जुन सिंह यू0पी0 आलू खरीदने के लिये गये। वहाँ अच्छे आलू का भाव 10 रुपये मन था। हमने कुछ आलू चन्दोसी खेतों से खरीद लिये और कुछ सम्बल मुरादाबाद से खरीद लिये। 9 से 12 रु. मन के सौदे थे। माल अभी जमीनों से निकलना था। सौदा भी काफी था। जब माल तैयार होने आया, तो पंजाब का लोडिंग बंद हो गया। बहुत दौड़ धूप की, लेकिन कामयाबी न मिली। अब स्टेशन पर धूप और बरसात में आलू खराब होने लगे। न तो ला सकते हैं और न ही ट्रक वाले लाते हैं। मैंने लुधियाना आकर मूलचन्द कपूर को भेजा कि सहारनपुर मण्डी में आलू फरोख्त कर आओ। सहारनपुर मण्डी में ट्रक पर आलू पहुँचा कर साफ करवा कर फरोख्त करने शुरू किया, जिससे काफी नुकसान भी हुआ और मेहनत भी बहुत करनी पड़ी।

6 महीने के बाद जब हिसाब किया तो 50-60 रुपये फी मेम्बर नुकसान ही रहा। घर का खर्चा भी चलाया। इस दौरान कुछ पौण्ड फरोख्त करने पड़े। 15-20 पोण्ड के अलावा तकरीबन 35 तोले जेवर मेरे पास था। बेबे सीतादेवी और रामलाल रांची चले गये। पाकिस्तान से ही मिलेट्री डेली फार्म रांची में तब्दीली हो गई थी। बहन शांति देवी, दीनानाथ और माताजी हुजआनी चले गये। कुछ दिन पहले ही वहाँ दीनानाथ के चाचाजी की मौत हो गई थी। हरिकिशन खन्ना और विद्या बहन बम्बई की तरफ वीसापुर कैम्प, जहाँ हरिकिशन के भाई पहले चले गये थे, चले गये। कुछ अरसा बाद भ्राताजी भी मेरठ चले गये। थोड़ा अरसा इधर-उधर रहने के बाद हरिकिशन ने लिखा कि मैं लुधियाना आना चाहता हूँ, मुझे मण्डी में रखवा लेना। लेकिन उस समय मण्डी में कुछ मुनाफा नजर नहीं आता था। मैंने उसे मण्डी से बाहर काम करने की सलाह दी।

चौड़ा बाजार की चैक में एक दुकान थी, जिसकी पगड़ी 1000 रुपये थी। मैंने हरिकिशन को सलाह दी कि यह दुकान ले लो। भले ही उस समय 1 हजार का कड़वा घूंट पीना मुश्किल था, लेकिन जगह बहुत मौके पर थी। हरिकिशन ने वह दुकान किराये पर ले ली। मकान भी मुहल्ला फतेहगंज में उन्हें एलाट हो गया। माताजी उनके पास रहने लगीं, क्योंकि एक कमरा उसमें फालतू था। पृथ्वीराज माताजी के लिये सब्जी बाजार जरूर ले जाता। मेरी बीवी गंगामूर्ती उन दिनों चरखा चलाकर कुछ मेहनत मजदूरी करती। पृथ्वीराज व राज को माताजी का चरखा चलाना बिल्कुल पसन्द न था। उन्होंने मुझसे कहा एक मशीन खरीद लें तो माताजी चरखा चलाना बंद कर देंगी और मैंने उनकी बात ठीक समझी। एक मशीन खरीद ली और बीवी को कहा तुम्हारा काम बच्चों की देखभाल करना है।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 27

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरी आत्मकथा पढ़ी। धैर्य एवं पुरुषार्थ के धनी तथा स्वाभिमानी थे श्री राधा कृष्ण कपूर जी। अभी यह रचना या निर्माण काल है। अभी वृक्ष में फल लगने बाकी हैं। यदि वृक्ष की परवरिश अच्छी होगी तो फल भी अच्छे ही होंगे। सद्कर्मों का फल सुख एवं दुष्कर्मों का फल दुःख होता है। राधा कृष्ण कपूर जी का जीवन है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत मिहनत की राधा कृष्ण कपूर जी ने , मैं तो पड़ कर ही हैरान हूँ कि इतनी कठनाई सहते हुए भी दिल नहीं छोड़ा .

  • लेखक ने जिस प्रकार दूकान ज़माने के लिए मेहनत की उसकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है. सरकारी मदद लेकर कैम्प में रहने की जगह लखक ने समाज में स्वयं अपना स्थान बनाया था.

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