पल पल मरती ज़िन्दगी
ज़िन्दगी होती इबारत, एक तख्ती पे लिखी जो
मिटा के एक बार फिर सलीके से लिख लेती तुझको
जो देख लेती तेरी सूरत, सुन ऐ गमे दो जहां,
मेरी सूरत, किसी सूरत न दिखलाती तुझको
जिगर में खंजर मार के जो एक बार पलट जाते वो,
सुकूँ दो जहां का कसम से मिल जाता मुझको
ग़मों के इन्तेहा की हद है मीलों से आगे
हदों के बढ़ते सिलसिले जान से मारते मुझको
जिगर के छाले, फ़ैल कर यही कोहराम करें,
निकल जाती कहीं जो रास्ता मिल जाता मुझको
मैं खोते-खोते थक चुकी हूँ, खो चुकी हूँ वजूद अपना
बची है पल पल मरती ज़िन्दगी जो तक़लीफ़ देती मुझको।
कविता को कई बार पढ़ा। कविता में जिंदगी के प्रति कुछ तिरस्कार की भावना प्रतीत होती है। लगता है कि कवित्री बहिन जी ने विजय जी के शब्दों को पढ़ा नहीं। यदि विजयजी इसे अपने शब्दों स्पष्ट कर दें तो अच्छा हो। लेखिका को हार्दिक धन्यवाद।
shukriya aapka man mohan ji . zindagi hamesha phoolon ki sej nahi hoti . kabhi zindagi humara tiraskaar karti hai kabhi hum zindagi ka.. mene vijay ji ko request ki hai isme sudhar ki shayad us sudhaar ke baad ye aur bhi sundar ho jaaye .
आपकी भावनाएं अच्छी हैं, लेकिन कविता में मजा नहीं आया. कुछ सुधार की जरुरत लग रही है. आप कहें तो मैं कोशिश करूँ.
dhanywaad vijay ji.. sudhar ka main hamesha swaagat karti hoon.. zaroor koshish kijiye..