आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 5)
हिन्दी अधिकारियों के सम्मेलन में
जब सिन्हा जी हमारे सहायक महाप्रबंधक थे, तभी प्रधान कार्यालय से मुझे हिन्दी अधिकारियों के सम्मेलन में हिन्दी में कम्प्यूटरीकरण विषय पर भाषण देने के लिए पटना जाने का आदेश मिला। मैंने हिन्दी कम्प्यूटरों के बारे में थोड़ा सा शोधकार्य किया था और जापान में भी पुरस्कृत हुआ था, इसलिए प्रधान कार्यालय के राजभाषा विभाग में वरिष्ठ प्रबंधक श्री उपाध्याय जी ने मुझे निमंत्रण भेजा था। वैसे तो शायद हमारे स.म.प्र. सिन्हा जी मुझे जाने नहीं देते, परन्तु प्र.का. से सीधे आदेश आया था, इसलिए वे मना नहीं कर सके। कानपुर मंडलीय कार्यालय से हिन्दी अधिकारी श्री प्रवीण कुमार और उनकी पत्नी श्रीमती ममता जी, जो क्षेत्रीय कार्यालय कानपुर में हिन्दी अधिकारी थीं, भी उस सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे। इसलिए मैंने उसी गाड़ी में अपना आरक्षण करा लिया। मैं पटना घूमने के लिए अपनी श्रीमतीजी और बच्चों को भी साथ ले जा रहा था, इसलिए मैंने साधारण स्लीपर श्रेणी में ही सबका आरक्षण कराया।
जब हम पटना पहुँचे थे, तो जोर की बरसात हो रही थी। बारिश बन्द होने तक हमें प्लेटफार्म पर ही खड़े रहना पड़ा। फिर हम एक अच्छे से होटल में गये। वहाँ हमने अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार कमरे किराये पर लिये। उनका किराया बैंक को ही देना था।
पटना में हमारी श्रीमतीजी की ममताजी से बहुत घनिष्टता हो गयी। उससे पहले केवल साधारण परिचय था। उस सम्मेलन में सभी हिन्दी अधिकारी आये थे और हमारे बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष-एवं- प्रबंध निदेशक श्री हरभजन सिंह भी पधारे थे। मैंने उनको भी अपनी एक पुस्तक भेंट में दी थी। सम्मेलन में मेरा प्रस्तुतीकरण अच्छा हुआ था और बाद में खूब सवाल-जबाव भी हुए थे। कुल मिलाकर मैं इस सम्मेलन में अपने प्रस्तुतीकरण से संतुष्ट था। वैसे पटना शहर मुझे अधिक पसंद नहीं आया। वहाँ की सारी सड़कें बिल्कुल ही बेकार थीं और बारिश के दिन होने के कारण जगह- जगह पानी भरा हुआ था। उस समय हमारे पुराने साथी श्री अनिल कुमार श्रीवास्तव और श्री अब्दुल रब खाँ पटना में ही पदस्थ थे। मैं उनसे मिलने मंडलीय कार्यालय गया। हम अनिल जी के घर भी गये थे। उनके घर के सामने भी सड़क पर काफी पानी भरा हुआ था। लगभग सारे पटना शहर का यही हाल था। वैसे हम गोलघर और चिड़ियाघर भी देखने गये और साथ में गुरु गोविन्दसिंह जी से सम्बंधित प्रमुख गुरुद्वारे पटना साहिब में भी मत्था टेकने गये थे।
भाई साहब की बीमारी
मैं लिख चुका हूँ कि उस समय हमारे चचेरे बड़े भाई डा. सूरज भान कानपुर के चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं एक विभाग के प्रमुख थे और उन्हें विवि की ओर से एक अच्छी कोठी मिली हुई थी। हम समय-समय पर उनसे मिलने जाते रहते थे। तभी मार्च 1996 के महीने में हमें यह समाचार मिला कि भाई साहब के दोनों गुर्दे खराब होने लगे हैं। हम एकदम घबरा गये कि पता नहीं कैसे चलेगा। प्रारम्भ में उनकी सामान्य चिकित्सा की गयी, परन्तु उनके गुर्दों का खराब होना रुका नहीं। इसके साथ-साथ उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता जा रहा था।
यहाँ यह बता दूँ कि सूरज भाईसाहब का वजन कुछ अधिक था, जिसके कारण उनके घुटनों पर बुरा प्रभाव पड़ा था। अधिक वजन का पहला प्रभाव प्रायः घुटनों पर ही पड़ता है। उनके घुटनों में गठिया जैसा दर्द होता था। गठिया का इलाज हुआ, तो उसकी दवाओं से उन्हें मधुमेह अर्थात् डायबिटीज की बीमारी हो गयी। फिर डायबिटीज का भी इलाज चला तो रक्तचाप (ब्लड प्रैशर) बढ़ गया। फिर उसका भी इलाज चालू हुआ, तो धीरे-धीरे गुर्दों पर भी बुरा प्रभाव पड़ गया। वास्तव में ये तीनों बीमारियाँ लगभग इसी क्रम में एक के बाद एक आती हैं और इनका ऐलोपैथी में कोई इलाज नहीं है। भाई साहब की दोनों पुत्रियाँ ऐलोपैथिक डाक्टर हैं अतः उनको ऐलोपैथी पर कुछ ज्यादा ही विश्वास था। वे बहुत दिनों से ढेर सारी गोलियाँ और कैप्सूल रोज खा रहे थे। नाश्ते में दवाइयाँ, लंच में भी दवाइयाँ और फिर रात के खाने के साथ भी दवाइयाँ। इनका कुप्रभाव न होता तभी आश्चर्य होता।
खैर, गुर्दों की बीमारी की जानकारी और उसके लाइलाज होने का पता चलते ही सब ओर चिन्ता फैल गयी। उनकी एक बेटी की शादी तब तक नहीं हुई थी और उनके कोई बेटा भी नहीं था, इसलिए सब और भी अधिक चिन्तित थे। प्रारम्भ में उनको डायलासिस कराने ले जाया जाता था। डायलासिस गुर्दों का इलाज नहीं है, बल्कि केवल खून को साफ करने का अस्थायी उपाय होता है। कोई भी व्यक्ति लम्बे समय तक केवल डायलासिस के भरोसे जीवित नहीं रह सकता। अन्ततः उसको गुर्दा बदलवाना ही पड़ता है। भाई साहब की स्थिति भी लगभग एक साल डायलासिस पर रहते-रहते ऐसी हो गयी कि गुर्दा बदलवाने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था।
अपनी बीमारी के कारण सूरज भाईसाहब का अपने विश्वविद्यालय से मामला चल रहा था। उस समय उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती थीं और विवि का उपकुलपति उनकी ही जाति का और उनका चमचा था। इसलिए वह भाईसाहब के मेडीकल बिलों को पास करने में बहुत टाँग अड़ाता था। इसी बीच भाईसाहब एक बार कानपुर के गणेशशंकर विद्यार्थी मेडीकल काॅलेज के हृदय रोग संस्थान (काॅर्डियोलोजी) में भी भर्ती रहे, हालांकि उन्हें हृदय की कोई बीमारी नहीं थी। उनके साथ एक रात मुझे भी अस्पताल में सोना पड़ा। वहाँ का वातावरण ऐसा है कि अच्छा-खासा स्वस्थ आदमी भी वहाँ चार दिन रहकर ही बीमार हो सकता है। मैंने वहाँ गम्भीर-से-गम्भीर मरीजों को देखा, जो हालांकि जानते थे कि कभी ठीक नहीं हो पायेंगे, लेकिन अपनी संतुष्टि और लोकलाज के कारण भर्ती रहते थे। मुझे नहीं लगता कि कोई वहाँ से कभी ठीक होकर जाता होगा।
उस रात मैं तो भाईसाहब के पलंग के पास ही चटाई पर आराम से सोया, लेकिन भाईसाहब को रात भर चैन से सोना नसीब नहीं हुआ। सुबह उन्होंने मुझे बताया कि रात को तीन मरीज मर गये और हर बार किसी मरीज के मरने पर शोर होता था। इससे मैं एक रात में ही इतना घबड़ा गया कि फिर कभी वहाँ सोने से तौबा कर ली। वैसे भाईसाहब भी केवल मेडीकल बिल बनवाने और उसके लिए विश्वविद्यालय से लड़ने के लिए ही वहाँ भर्ती हुए थे। इसलिए अगले दिन ही उन्होंने अस्पताल से छुट्टी ले ली।
जब सूरज भाईसाहब का गुर्दा बदलवाना अनिवार्य हो गया, तो उसके लिए तैयारियाँ की जाने लगीं। इस मामले में सबसे बड़ी समस्या गुर्दा देने वाले व्यक्ति को खोजने की होती है। इसके लिए सबसे पहले माता-पिता और पत्नी की ओर देखा जाता है, फिर पुत्रों और भाइयों की ओर। भाईसाहब की माताजी अर्थात् हमारी ताईजी पहले ही गुजर चुकी थीं। उनके पिताजी अर्थात् हमारे ताऊजी बहुत वृद्ध थे, इसलिए उनसे गुर्दा लेने का प्रश्न ही नहीं था। भाभीजी भी बहुत कमजोर थीं। पुत्र कोई था नहीं और पुत्रियों से लेने को वे तैयार नहीं थे, क्योंकि वे दोनों बहुत छोटी थीं और उनमें से एक तो अविवाहित ही थी। उनके 4 सगे भाई थे, परन्तु वे गुर्दा देने के नाम पर ही बिदक जाते थे। वे भाईसाहब का हाल-चाल तक नहीं पूछते थे, ताकि उन पर गुर्दा देने का दबाव न पड़े। एक बार भाईसाहब ने मुझसे कहा कि यदि मेरा कोई भाई या चचेरा भाई अपना गुर्दा देने को तैयार हो जाए, तो वे उसके नाम 4-5 लाख रुपये जमा कर देंगे। मैं इतना नासमझ नहीं हूँ कि उनका संकेत न समझ पाता। जब मैंने अपने सगे भाइयों से इसकी चर्चा की तो उन्होंने साफ कह दिया कि इसका कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
उन दिनों सूरज भाईसाहब तरह-तरह की बातें करते थे। कभी कहते थे कि मैंने अपनी जिन्दगी में बहुत कुछ कर लिया, बहुत कुछ पा लिया, अब कोई इच्छा शेष नहीं है। कभी कहते थे कि अभी मेरी उम्र ही क्या है? केवल 57 साल का हूँ, एक बेटी की शादी करनी है। फिर कोई चिन्ता नहीं रहेगी। अन्ततः यही तय किया गया कि किसी बाहरी आदमी से गुर्दा खरीदा जाये। इसमें मेरा भतीजा मुकेश और उसके पिताजी श्री सन्त कुमार अग्रवाल (मेरे एक अन्य चचेरे भाई) बहुत सहायक हुए। उन्होंने अपने गाँव में एक ऐसी प्रौढ़ा स्त्री को खोज निकाला, जो एक लाख रुपये में अपना गुर्दा बेचने को तैयार हो गयी। वह हमारी दूर की रिश्तेदार भी थी। उसी को भाईसाहब की मौसी बनाया गया।
गुर्दा दान की सारी औपचारिकताएँ भी किसी तरह सम्पन्न हुईं। गुर्दा प्रत्यारोपण का कार्य पी.जी.आई. लखनऊ के बजाय दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में कराना तय किया गया, जो बहुत अच्छा लेकिन मँहगा अस्पताल है। किन्तु भाई साहब को पैसों की चिन्ता नहीं थी, क्योंकि उनके तीन सगे साले हैं, जो काफी पैसे वाले हैं। उनसे सहायता का आश्वासन मिल चुका था। अन्ततः वहीं उनका आॅपरेशन हुआ और ईश्वर की कृपा से सफल भी हो गया। उसमें गुर्दे की कीमत के अलावा लगभग 4-5 लाख रुपये और खर्च हुए। यह मई-जून 1997 की बात है।
उन दिनों हम हर रविवार को आर्यसमाजी विधि से हवन किया करते थे। एक बार हवन के बाद हम सबने भगवान से प्रार्थना की थी कि भाईसाहब का आॅपरेशन सफल हो जाये। वैसे मैं ऐसी प्रार्थनाएँ नहीं किया करता, लेकिन यह मामला बहुत नाजुक होने के कारण मैंने प्रभु से याचना करना उचित समझा। मुझे प्रसन्नता है कि प्रभु ने मुझे निराश नहीं किया।
लगभग दो माह दिल्ली में रहने के बाद भाईसाहब वापस कानपुर आये। उनकी हालत काफी सुधर गयी थी। हालांकि यह पहले से पता था कि उनका गुर्दा बाहरी होने के कारण 5 साल से अधिक शायद ही चले। फिर भी सन्तोष था कि इतने समय में वे अपने बचे हुए पारिवारिक कर्तव्यों को पूरा कर लेंगे और शान्तिपूर्वक रिटायर भी हो जायेंगे।
जब उनके गुर्दा प्रत्यारोपण को 1 साल हो गया, तो उन्होंने हमें भोजन पर बुलाया। भोजन साधारण ही था, जैसा कि वे हमेशा खाते थे। मैंने कहा कि यह भोजन पूरी तरह सात्विक है और इसको खाने वाला कभी बीमार पड़ ही नहीं सकता। तब भाई साहब बोले कि मैं तो फिर भी बीमार हो गया। मैंने कहा- ‘इसका कारण यह है कि आप ऐलोपैथिक दवाइयाँ बहुत खाते हैं, जो जहरीली होती हैं।’ इस पर वे चुप हो गये।
वहीं भाईसाहब ने बताया कि उन्होंने और भाभीजी ने हजारों रुपये फीस देकर रेकी सीखी है। वह काफी फायदेमंद है और उसका कोई साइड इफैक्ट भी नहीं होता। तब मैंने कहा- ‘अगर यह एक साल पहले सीख लेते तो और अच्छा रहता।’ वे मेरे कथन में छिपे व्यंग्य को समझ गये और नाराज होकर बोले- ‘क्या तुम पागल हो?’ मैंने बड़ी मुश्किल से बात सँभाली। वास्तव में रेकी जापानी या कोरियाई झाड़-फूँक चिकित्सा ही है। उसमें पीड़ित अंग पर हाथ से स्पर्श करके रोग ठीक किये जाते हैं। मुझे इस पर काफी हँसी आती है।
विजय भाई , सारा लेख पड़ा , यह बीमारी का सारा हाल पड़ते पड़ते मैं काँप सा गिया कि गरीब का किया हाल होगा . दुसरे इस से एक बात तो साफ़ है कि ऐक्सर्साइज़ एक जरुरी बात है जो हर एक को करनी चाहिए .
धन्यवाद, भाईसाहब ! आप सह कहते हैं। नियमित व्यायाम और संयमित भोजन से व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ रह सकता है।
Dhanyawad. Lekh padh liya hai mobile par. Light na hone ke karan. Prernadayak n sarahniye. Abhar.
आभार मान्यवर !