तुम….
कहाँ रह रही हो तुम मुझे अकेला छोड़कर
दुनिया की महफिल में मुझे तन्हा छोड़कर
मुसाफिरों की तरह यहाँ चक्कर काटता हूँ
मना लेता मन को,आने की आहट सुनकर
रह जाता है मेरा दिल देखने को मचलकर
झलक न दिखे तो रह जाता है मन तरसकर
अगर तुम आखों से ओझल हो जाती हो तो,
हृदय के अन्दर रह जाता है दिल तड़पकर
अगर सृजन कर जाती प्रेम-प्रस्फुटित कर
सृजन-सृजित मधुर-मिलन संगीनी बनकर
हर लो मन की तपन फूलों से सुसज्जित कर
इतना ध्यानकर मुझमें प्रेम की धारा बहाकर
@रमेश कुमार सिंह
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अच्छे मुक्तक !
धन्यवाद श्रीमान जी श्र