गंगा —कहे पुकार के
कहीं कहा मुझे गंगा मैया कहीं मुझे जीभर के दूषित किया |
किसे मैं सुनाऊं अब बर्बादी की अपनी यह दास्ताँ |
हैं अपने या फिर कोई बेगाने जो करते हैं यह खता |
युगो – युगों से बहती आती मेरी निर्मल धारा |
तुमने क्या किया मैने तो तुम्हारा सब कुछ संवारा |
पूछती है हार के अब यह सवाल तुम्हारी गंगा मैया |
वादे यूं वादे ना रह जाँए रहम अब तुम कुछ मुझ पर करना |
बहती रहूं यूंही कल – कल जल के मीठे स्रोत्र लिए |
फिर पहले जैसी गंगा बन पाऊं बस यही सपना मेरा |
कहे गंगा अब पुकार के सुन लो मेरी दास्ताँ |||
कामनी गुप्ता जम्मू ***
जागरूपता के लिए अच्छी कविता है .
dhanyabad sirji
बढ़िया !
Thanks sirji