योग स्वस्थ जीवन का आधार एवं ईश्वर साक्षात्कार का साधन
ओ३म्
वैदिक साहित्य योगदर्शन वेद का उपांग कहा जाता है। यह वेद के 6 उपांगों योग, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, न्याय और मीमांसा में से एक है। योग दर्शन के प्रवक्ता व ग्रन्थकार महर्षि पतंजलि हैं। जिस प्रकार से गोपालक गो का दुग्ध दुहते हैं उसी प्रकार से हमारे 6 दर्शनकारों ने वेद रूपी माता से उसके योग आदि दूध को दुहा है। योग दर्शन का उद्देश्य बताते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा है कि मनुष्य के चित्त में जो क्लिष्ट व अक्लिष्ट पांच वृत्तियां प्रमाण, विपर्पय, विकल्प, निद्रा व स्मृति हैं, उनका निरोध, रोकना वा उन्हें नियंत्रित करना योग है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आठ सोपान बताये गयें हैं जिनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। यम पांच हैं जिसके अन्तर्गत अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह आते हैं। नियम भी पांच हैं जिनमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान आते हैं। अतः योग में सफलता की प्राप्ति के लिए यम व नियमों को जानना व उनका पालन करना आवश्यक है। इनके पालन के बिना चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जाना सम्भव नहीं है। यदि हो सकता होता तो फिर इन्हें योग के अंगों के आरम्भ में ही बताने की आवश्यकता नहीं थी। योगाभ्यासी को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह के साथ शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान पर भी ध्यान देना चाहिये। योग के लक्ष्य समाधि की प्राप्ति के लिए यात्रा आरम्भ हो चुकी है और हम यम व नियम रूपी पहले दो स्टेशन पार चुके हैं। अब आसनों का स्थान आता है। आजकल भिन्न भिन्न योगाचार्य, मुख्यतः स्वामी रामदेव जी देश विदेश में घूम कर व टीवी चैनलों के द्वारा निरन्तर योगासनों का प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने योगासनों व इसके कुछ अन्य अंगों को देश-विदेश में लोकप्रिय बनाने में विशेष भूमिका निभाई है। आज 21 जून को विश्व भर में जो अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जा रहा है, उसमें उनकी बहुत बड़ी भूमिका व योगदान है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के इस अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के प्रति सफल प्रयासों के पीछे सम्भवतः उन्हीं की प्रेरणा है। योग को अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्रदान कराने के लिए इन दोनों विभूतियों के लिए सारा देश इनका कृतज्ञ है। यह ध्यातव्य है कि प्रधानमंत्री जी के संयुक्त राष्ट्र संघ में 21 जून को योगदिवस घोषित करने के प्रस्ताव का 177 देशों ने समर्थन किया था और आज विश्व के 193 देशों में यह योग दिवस पूरे जोश व उत्साह के साथ मनाया जा रहा है।
हम योगासनों की चर्चा कर रहे थे। योग आसनों से आज विश्व का सम्भवतः प्रत्येक मानव परिचित हो गया है। योगासनों से पूरा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि व आत्मा लाभान्वित होती है। यह अब सिद्ध होने के साथ सर्वविदित भी चुका है। योगाभ्यास से शरीर को स्वस्थ रखने, शरीर को बलशाली बनाने, तनाव आदि को दूर करने तथा रोगों के उपचार आदि में भी आशातीत सफलतायें प्राप्त हुईं हैं। हम समझते हैं कि आज का दिन ऐतिहासिक दिन है और यह सारे विश्व में सभी मानवों को योग में प्रवृत्त करने की एक सफल शुरूआत है। यह शुरूआत इतनी प्रभावशाली है और योग का अपना इतना साकारात्मक प्रभाव है कि जो लोग किन्हीं कारणों से न नूच कर रहे हैं वह शीघ्र ही योग को पूरी तरह से अपनायेंगे क्योंकि बिना योग के जीवन व विश्व निरोग, सुखी, शान्त, कल्याणप्रद व उन्नत नहीं किया जा सकता। वर्तमान में योग वसुधैव कुटुम्बकम् का आधार बन गया प्रतीत होता है। जिस प्रकार से हम रोग होने पर विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में भेद न कर जिससे लाभ होता है, उसे ही अपनाते हैं तथा विज्ञान के आविष्कारों को भी बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करते हैं वैसा ही योग भी अखिल विश्व में अपना लिया गया है और अब यह संसार के सभी मनुष्यों को जोड़ने का कार्य करेगा। भविष्य में अनेक शुभ परिणाम भी सामने आयेंगे, ऐसा अनुमान किया जा सकता है।
प्राणायाम से सभी परिचित हैं। प्राणायाम का मुख्य कार्य श्वास प्रश्वास को अपनी इच्छानुसार रोकना वा उसमें अन्तर डालना है। प्राणायाम की स्थिति सिद्ध होने पर विवेक ज्ञान पर पड़ा हुआ आवरण वा पर्दा क्षीण हो जाता है। प्राणायाम के अभ्यास से प्राणायाम के अगले अंग धारणा सहित अन्य योगांगों धारणा, प्रत्याहार, ध्यान व समाधि के सुविधापूर्वक अनुष्ठान में मन की क्षमता निश्चित उभर आती है। तात्पर्य यह है कि प्राणायाम के अनुष्ठान से मलों के दूर हो जाने पर निर्दोष व शुद्ध चित्त धारणा आदि अंगों के अनुष्ठान में लगने लगता है। मन-चित्त की यह योग्यता व क्षमता प्राणायाम से ही उभरती है। इसीलिये प्राणायाम को प्रधान योगानुष्ठान की आधारशिला माना गया है। इसके लिए योगदर्शन के साधनापाद के सूत्र 53 का ‘धारणासु च योग्यता मनसः’ का अध्ययन करना चाहिये। योग का एक अंग प्रत्याहार है। यह प्रत्याहार पांच ज्ञान इन्द्रियों का अपने विषय रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श के प्रति जो सम्बन्ध होता है उसका पूरी तरह से असम्बद्ध हो जाना अर्थात् मन वा चित्त के वश में होने की अवस्था ‘प्रत्याहार’ है। ध्यान, मन में इन्द्रियों के पांचों विषयों से रहित होने को कहते हैं। इस अवस्था में आकर ईश्वर के नाम ओ३म् वा गायत्री मन्त्र का अर्थ सहित जप करने से ध्यान होने के साथ समाधि अवस्था प्राप्त होती है। यह वह अवस्था होती जब विवेक उत्पन्न होकर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। मनुष्य जीवन की यही सबसे बड़ी सफलता है। यह स्थिति प्राप्त होने पर योग का अन्तिम लक्ष्य समाधि प्राप्त होने के साथ मनुष्य को ईश्वर में निहित आनन्द की स्थिति का अनुभव होता है और वह स्वयं भी इस आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। यह ईश्वरीय आनन्द ऐसा है कि इसकी उपमा संसार के किसी सुख से नहीं दी जा सकती है। हमें मनुष्य जीवन मिला ही योगाभ्यास द्वारा समाधि अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार करने, दुःखों से निवृत्त होने, पूर्णानन्द के भोग व मोक्ष की प्राप्ति के लिए है। आज संसार ने इस योग मार्ग पर चलना आरम्भ कर दिया है, यह प्रसन्नता की बात है। इससे बढ़कर और कोई शुभ बात हो ही नहीं सकती।
इस लेख में हम यह भी बताना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द ईश्वरीय ज्ञान वेदों के अपूर्व विद्वान और योग विधि से ईश्वर उपासना करने वाले पूर्ण सिद्ध योगी थे। उन्होंने जीवन में वेदादि साहित्य का अधिकतम् ज्ञान प्राप्त कर पंचमहायज्ञों की पुस्तक ‘पंचमहायज्ञ विधि’ लिखी है। यह पंच महायज्ञ सृष्टि के आरम्भ से ही प्रचलित रहे हैं। महाभारतकाल व बाद में इसमें व्यतिक्रम उपस्थित हुआ। पंचमहायज्ञों में पहला महायज्ञ ब्रह्मयज्ञ वा ईश्वरोपासना है। यह और कुछ न होकर योगदर्शन से पुष्ट ईश्वर प्राप्ति की योग विधि की साधना ही है जिससे चित्त की सभी वृत्तियों वा दोषों का शमन होता है और समाधि अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने इस ईश्वरोपासना की उपासना पद्धति में योगांग प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि को लक्ष्य में रखकर इसकी रचना की है। इसमें आचमन मन्त्र, इन्द्रिय स्पर्श मन्त्र, मार्जन मन्त्र, प्राणायाम मन्त्र, अघमर्षण मन्त्र, मनसापरिक्रमा मन्त्र, उपस्थान मन्त्र, गायत्री मन्त्र, समर्पण मन्त्र व नमस्कार मन्त्रों को सम्मिलित किया है। कई कारणों से हम इसे उपासना की सर्वोत्तम पद्धति मानते हैं जिसको अपनाने से साधक वा योगाभ्यासी को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि होती है वा हो सकती है। समर्पण मन्त्र में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि साधक ईश्वर को इस प्रार्थना से समर्पण करें-‘हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपया अनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थ काममोक्षाणां सद्य सिद्धिर्भवन्नेह।।‘ अर्थात् हे दया के सागर ईश्वर ! आपकी कृपा से अनेक प्रकार से जप व उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष केा आज ही प्राप्त हों। इस प्रकार के शब्दों से ईश्वर को समर्पण शायद ही किसी प्रार्थना में किया गया हो, यही महर्षि दयानन्द रचित सन्ध्योपासना विधि का महत्व है। यदि किसी ने किया है तो यह महर्षि दयानन्द की सन्ध्यापद्धति का अनुकरण हो सकता है। दूसरा महायज्ञ ‘दैनिक अग्निहोत्र’ है। इसका प्रातः व सायं अनुष्ठान करना भी प्रत्येक गृहस्थी का धर्म वा कर्तव्य है। इससे हम प्राण वायु को शुद्ध कर उसकी गुणवत्ता में वृद्धि करते हैं। अग्निहोत्र एक वैज्ञानिक उपक्रम है जिसे निवास गृह में करने से घर की श्वास प्रश्वास, रसोई आदि के कार्यों व वायु की उचित आवाजाही के न होने से वहां की दोषयुक्त वा प्रदुषित वायु गर्म होकर हल्की होकर घर से बाहर निकल जाती है और बाहर की शुद्ध वायु घर में प्रवेश करती है। अपने व परिवार के आरोग्य सहित पड़ोसियों को भी अग्निहोत्र से लाभ होता है। इससे असंख्य प्राणियों को नाना प्रकार के लाभ होते हैं। आने वाले समय में हम आशा करते हैं कि लोग अग्निहोत्र के लाभों से परिचित होकर इसे भी अपनायेंगे जिससे रोगों से मुक्त, शक्तिशाली व स्वस्थ विश्व परिवार का निर्माण हो सकेगा। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
yoga par uchit jaankari dene ke liye aapka dhanywaad man mohan ji..
लेख पसंद करने और प्रतिक्रिया सूचित करने के लिए आदरणीय बहिन जी आपका आभार एवं धन्यवाद। आपके शब्दों से मेरा उत्साहवर्धन हुआ है।
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा . मुझे एक बात से ताउजब होता है कि जब मैंने भारत छोड़ा था तो मुझे पता ही नहीं था कि योग किया होता है . किओंकि मुझे कुछ न कुछ पड़ने की आदत शुरू से ही रही है , जब मैं किताबों की दूकान पर जाता था तो शैल्फों पर योग की बहुत बड़ी बड़ी किताबें होती थी और मैं पड़ कर हैरान होता था कि योग हमारे देश की दें है और हमें पता ही नहीं . फिर १९६८ में मैं डेली टेलीग्राफ पड़ रहा था तो उस में एक ऐड देखि जिस में लिखा था , BE YOUNG WITH YOGA By RICHARD HITLMAN, मैं उस का ऑर्डर दे दिया , वोह किताब अभी तक मेरे पास है , फिर किओंकि उस समय मैं यंग था और लाएब्रेरी से मैंने वात्सएंन की कामसुतर ला कर पडी . मुझे इस बात की भी हैरानी है कि हमारे ही ग्रन्थ और हमें ही पता नहीं और यह गोरे कितने दिलचस्पी रखते हैं हमारे ग्रंथों में . आज योग की बात भारत में फिर से शुरू हुई है जो मोदी जी का ही काम है और बहुत अच्छी शुरुआत है .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके द्वारा दी गई विस्तृत जानकारी पढ़कर बहुत लाभ हुआ। प्राचीन भारत में ऐसे ऐसे ग्रन्थ रचे गए हैं कि उनका कहना ही क्या, विश्व साहित्य में बेमिसाल हैं। यदि हम सभी ग्रन्थ पढ़ना चाहे तो शायद कई जन्म लग जायेंगे परन्तु साहित्य तब भी पूरा पढ़ा न जा सके। आज भी मैं प्रतिदिन कई कई घंटे पढता हु। विगत ३५ वर्षों से पढ़ रहा हूँ। अभी भी इतना साहित्य मेरे पास है कि इस जन्म में पूरा पढ़ नहीं सकूंगा। आपकी प्रतिकिया के लिए पुनः हार्दिक धन्यवाद। कृपया अपना स्नेह बनाये रखें।
बहुत अच्छा लेख ! योग में निश्चय ही अद्भुत शक्ति है।
धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। योग के बारे में बहुत कुछ कहा व बताया जा रहा है परन्तु मुझे लगता है कि योगदर्शन का पंडित उदयवीर शास्त्री जी का हिंदी भाष्य पढ़कर जो आनंद आता है व ज्ञान वर्धन होता है, वह टीवी व समाचारों को पढ़ व सुनकर नहीं होता।