कविता

रहते हुए भी हो कहाँ

 

रहते हुए भी हो कहाँ, तुम जहान में दिखते कहाँ;
देही यहाँ बातें यहाँ, पर सूक्ष्म मन रहते वहाँ ।

आधार इस संसार के, उद्धार करना जानते;
बस यों ही आ के टहलते, जीवों से नाता जोड़ते ।
सब मुस्करा कर चल रहे, स्मित-मना चित तक रहे;
जाने कहाँ तुम को रहे, तव तरंगों में बह रहे ।

आते हो तुम जाते हो तुम, बिन प्रयोजन फिरते मगन;
लगते सभी तुमरे सुजन, साजन बने रहते नयन ।
आत्मा सभी हैं तुम्हारी, आत्मीय तुम प्रिय प्रभारी;
जाएँ कहाँ छोड़ें कहाँ, अस्तित्व बिन तुमरे कहाँ ।

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा

One thought on “रहते हुए भी हो कहाँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब ! इसका अर्थ बहुत गहरा है जो हम जैसे साधारण मानवों की समझ में पूरा नहीं आ सकता।

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