संस्मरण

मेरी कहानी – 36

मेरे दादा जी बहुत सख्त मिहनती थे। हो सकता है कि उन्होंने बहुत मुसीबतें देखीं थी , इस लिए. यह भी हो सकता है की सारी पीढ़ी ही मुश्किल दौर से गुज़र रही हो। कभी कभी सोचता हूँ कि आज़ादी के वक्त सारे भारत की आबादी ३६ करोड़ थी , यह मैंने पड़ा भी था और मास्टरों से सुना भी था। अब १२५ करोड़ पिछले ६८ सालों में कैसे हो गई। तो एक ही जवाब मेरी समझ में आता है। वोह है डाक्टरी इलाज। किसी फैलने वाली बीमारी का खदशा हो तो हमारी हकूमत लोगों को बीमारी से बचने के लिए इंजैक्शन देने लगती है। पोलियो का तो नामोनिशान ही उड़ गिया है। गरीबी के कारण लोग मरते भी बहुत हैं फिर भी बहुत फरक पड़ा है। प्लेग की बातें बहुत सुनता रहता था कि प्लेग ऐसी पडी थी कि गाँवों के गाँव खाली हो गए थे। एक को शमशान भूमि को लेजाते थे और दूसरा बीमार हो जाता था। लोग गाँव छोड़ कर खेतों में रहने लगे थे। यह प्लेग कब हुई मुझे नहीं पता लेकिन एक बात दादा जी के मुंह से बहुत दफा सुनी थी कि “हमारे घर की औरतें सब भगवान को पियारी हो गई थीं”। उस वक्त मैं तो बहुत छोटा था लेकिन बहुत देर बाद कभी कभी मेरे दिमाग में यह आता था कि हमारे घर के लोगों को किया हुआ होगा जो दादा जी और पिता जी अकेले ही थे। ताऊ अपने नानके गाँव में ही रहते थे। कुछ भी हो जरूर यही बात होगी उस समय बीमारियां बहुत लगती होंगी और इलाज कोई ख़ास नहीं होता होगा ,इसी लिए हमारे घर में गिनती के सदस्य ही थे।

पिता जी की शादी के बाद मेरी माँ से ही हमारा परिवार आगे बड़ा। मेरे बड़े भाई अजीत  सिंह जो अब नहीं हैं और मुझ से बड़ी बहन सुरजीत कौर, इनका आपिस में बहुत पियार था। मुझे कुछ कुछ याद है कि मेरी  बहन की शादी बहुत छोटी उम्र में ही हो गई थी लेकिन बहन , सुसराल को जब गई थी तो काफी बड़ी उम्र की थी और मेरे बहनोई साहब नैरोबी में रहते थे और नैरोबी से आ कर बहन को साथ ले गए थे। बड़े भाई भी क्योंकि पड़ने में उनकी रूचि नहीं थी इस लिए पिता जी उस को छोटी उम्र में ही अपने साथ अफ्रीका ले गए थे। छोटे भाई का जनम आज़ादी के कुछ महीने बाद हुआ था और अब अपने बच्चों के पास ऑस्ट्रेलिआ रहता है। यह तो है छोटा सा इतहास लेकिन मैं अपनी कहानी को दादा जी के साथ ही आगे ले जाऊँगा।

दादा जी तो बिलकुल अनपढ़ ही थे और थोह्ड़ी सी पंजाबी लिख लेते थे लेकिन यह ऐसी होती थी कि लिखे मूसा पड़े खुदा। जब वोह शहर को सौदा लेने के लिए अपने बाइसिकल पे जाते थे तो जाने से पहले माँ को पूछते कि घर के राशन के लिए किया किया लाना था। माँ  राशन की एक एक चीज़ लिखाती और दादा जी लिखते जाते।  जब वोह लिखते तो अजीब सा लिखते और हम हंसने लगते। हमारा लिखा उन को समझ नहीं आता था। जब उन को चाह लिखना होता था तो वोह चाहा लिखते , जब मसाला लिखना होता तो मैसला लिखते ,जब दाल लिखना होता तो दाले लिखते। हम बहुत हँसते। दरअसल वोह इस तरह लिखते जैसे गुरबानी लिखी होती है। दादा जी ने सारे घर पे रूल किया था  और सब ने उस का रूल माना शायद इस लिए कि वोह खुद बहुत काम करते थे और एक अच्छे इंसान थे । वोह राजगिरी और कारपेंटर का काम किया करते थे , गाँव के बहुत से मकान उन्होंने बनाये थे, यह मैंने उन के मुंह से सुना था। मेरे होश संभालने से पहले उन्होंने लोगों का काम करना छोड़ दिया था और पशुओं की ही देख भाल करने लगे थे । खेती की ज़मीन दूसरे किसानों को दे दी थी जिस में से आधी फसल की उपज हमारी होती और आधी खेती करने वाले किसान की होती। दादा जी को उन किसानों पर तस्सली नहीं थी , उन के हिसाब से वोह लोग खेतों को बर्बाद कर रहे थे। इसी लिए उन्होंने फिर से खेती करनी शुरू कर दी थी और इसी लिए मुझे भी खेती का काम करना पड़ा था।

दादा जी  को मकान बनाना और दरवाज़े खिड़किआं बनाते  उस वक्त देखा जब हम ने नया मकान बनाना था. जिस जगह में हम पशु बांधते थे और इस को हवेली बोलते थे। यह वोह ही जगह थी जिस जगह पाकिस्तान बनने के वक्त मोहल्ले के लोग इकठे हो जाते थे। पिता जी के दोस्त धर्म सिंह और दादा जी रोज काम करते। दीवारें बनाते पलस्तर करते और छतें पाते। इसी बीच उन्होंने फगवारे से इमारती लकड़ी खरीद कर दरवाज़े खिड़किआं हवेली में ही बनाने शुरू कर दिए थे। दादा जी के पास कार्पेंटरी के टूल्ज़ इतने थे कि दो बड़ी बड़ी अल्मारीआं भरी हुईं थी। मुझे कभी कभी हैरानी होती है कि जब वोह लकड़ी पर निशाँन लगाते थे तो एक धागे से लगाते थे जो काली स्याही में भिगोया हुआ होता था  (यह धागा बहुत लम्बा होता था )और मिनती एक सूत दो सूत तीन सूत बोल कर करते थे नाकि इंच फुटों में। सभी दरवाज़े खिड़किआं और अल्मारीआं इतनी अच्छी बनी थीं  कि मुझे उन की कारागरी पर हैरानी होती है। जिस वक्त यह मकान बना उस वक्त मैं मैट्रिक में पड़ता था। मकान बनने के बाद हम इस नए घर में आ गए थे और दादा जी ने कुछ पंद्रां बीस गज़ की दूरी पर ही एक  नई जगह पशुओं के लिए खरीद ली जो काफी खुली जगह थी। नए मकान में तो दो गुसलखाने बनाये गए थे जिन में पानी के नलके भी लगाए गए थे एक ऊपर और एक नीचे लेकिन नई खरीदी जगह में पशुओं के लिए पानी हमें बाल्टीआं  भर भर के इस नए घर से ही ले जाना पड़ता था जो कुछ मुश्किल था। इस लिए दादा जी ने पशुओं वाले मकान में भी नलका लगवाने का मन बना लिया।

एक बात मैं कभी भी भूल नहीं सका हूँ , दादा जी जालंधर शहर को नलके का सामान खरीदने गए। उसी दूकान से  उन्होंने नलका फिट करने और सारे पाइप जालंधर से गाँव तक ले आने का ठेका दे दिया। जिस दिन पाइप आने थे उसी दिन काम शुरू हो जाना था। सुबह ही एक आदमी जो ब्राह्मण लगता था , अपने घोड़ी वाले रेहड़े पर नलके का सारा सामान ले आया। कुछ देर बाद ही एक चर्मकार लड़का बाइसिकल पर आ गिया , जिस का नाम मोहन था। सारा दिन वोह लड़का काम करता रहा और शाम तक नलके से पानी आने लगा। अब तक काफी रात हो चुक्की थी लेकिन काम खत्म हो गिया। कुछ वक्त के लिए मैं अपने दोस्त के घर चले गिया था। जब मैं वापिस आया तो मेरी भाबी ने बताया कि मोहन इतने अँधेरे में अपने शहर को वापिस चले गिया था और वोह रेहड़े वाला एक कमरे में सो गिया था। मुझे मालूम हुआ कि दादा जी ने उस लड़के को कह दिया था कि सोने के लिए वोह चर्मकारों की बस्ती में चला जाए. उस समय यह ही चलता था कि चर्मकार लोग अपने लोगों के किसी भी घर में चले जाएं , सोने को जगह मिल जाती थी यानी ऊंची जात वाला अपने घर में चर्मकार को कोई नहीं सुलाता था । यह एक रवायत ही थी और नफरत की कोई बात इस में नहीं थी । दादा जी रोटी खा कर पशुओं  वाली जगह में सोने के लिए चले गए क्योंकि पशुओं की भी रखवाली करनी पड़ती थी। जब मुझे यह पता लगा तो मुझे बहुत दुःख हुआ।

मोहन एक मैट्रिक पास लड़का था और सारा दिन मुझ से बातें करता रहा था। मैंने एकदम अपना बाइसिकल उठाया और अँधेरे में मोहन को वापिस लाने के लिए चल पड़ा। मेरी बाइसिकल को डाइनैमों लगी हुई थी जिस की लाइट से रास्ता साफ़ दिखाई देता था , वैसे भी इस रास्ते पर बिन लाइट के भी जा सकता था क्योंकि मैं तो इस रास्ते का वाक़फ़ ही था। कोई एक मील  जा कर मैंने बाइसिकल आगे जाता देख कर घंटी बजाई और बोला ,” मोहन है ?”. उस ने कहा” हाँ ,मैं ही हूँ”। मैंने उस को पहले सॉरी कहा और फिर घर वापस आने को कहा। मोहन हंस पड़ा और बोला,” मुझे तो इस से कोई फरक नहीं है क्योंकि इन बातों का तो बचपन से ही आदि हूँ , मुझे दादा जी पर कोई नाराज़गी नहीं है “. मैंने मोहन को कहा कि ” अगर तू वापिस नहीं आया तो मुझे ज़िंदगी भर यह भूलेगा नहीं “. मोहन वापिस गाँव को चल पड़ा। मोहन की चारपाई भी उस कमरे में लगा दी यहां रेहड़े वाला सोया हुआ था। रेहड़े वाला सिगरेट पी रहा था। उस के सामने मोहन मुझे  साफ़ सुथरा और सभ्य लगा।  मुझे इस बात से बहुत सकून  मिला।

दादा जी को मैंने कभी रोता नहीं देखा था लेकिन जिस दिन मैंने इंग्लैण्ड को आना था दादा जी उस दिन रो पड़े। इंग्लैण्ड  में उस वक्त हमारे साथ वितकरा बहुत किया जाता था , पगड़ी वाले को देख कर गोरे हँसते और नफरत बहुत करते थे , इस लिए बहुत सिख अपने सर के वाल कटवा देते थे , ऐसा मुझे भी करना पड़ा लेकिन मैं उस दिन बहुत रोया। सभी मुझे जोर दे रहे थे कि मैं वाल कटवा दूँ लेकिन मैं मानता नहीं था। आखिर में मुझे वाल कटवाने ही पड़े। जब १९६५ में मैं इंडिया आया तो दादा जी मुझे देख कर खुश होने की वजाए गुस्से में उबल  पड़े और बोले , “भाड़ में जाए इंग्लैण्ड , अगर अपना धर्म ही नहीं रहा तो, हमें यह पैसे नहीं चाहिए “. मुझे इस बात का बहुत दुःख हुआ और कुछ वर्षों बाद मैं ने फिर से  पगड़ी बाँध ली। १९६७ में मेरी शादी के वक्त दादा जी बहुत खुश थे। मेरी पत्नी पहले पहल दादा जी से घुंगट निकालती थी। एक दिन दादा जी ने पत्नी को कह ही दिया ,” कुड़े ! कियों यह घुंगट कढदी हैं , तू तां नमे ज़माने दी आं ” . इस के बाद मेरी पत्नी ने घुंगट उठा दिया और फिर कभी नहीं निकाला ।  फिर तो दादा जी मेरी पत्नी को तूत की छिटिओं से टोकरे बनाने सिखाते।

जितनी देर हम गाँव में रहे वोह बहुत खुश रहे और वापिस आने पर ख़ुशी ख़ुशी हमें विदा किया। इस के बाद हमारे दो बेटीआं और एक बेटा हो गिया था। जब अचानक मेरे पिता जी इस दुनिआ को छोड़ गए तो हम बच्चों को लेकर गाँव गए। क्योंकि काम मैंने छोड़ दिया था ,इस लिए वापस आने की कोई जल्दी नहीं थी। हम ६ महीने गाँव में रहे और यह ६ महीने दादा जी इतने खुश रहे कि बताना  मुश्किल था। यह ६ महीने इतने जल्दी बीत गए कि पता ही नहीं चला।  हमारी बेटिओं के साथ वोह बहुत खुश रहते थे। उन को अब ऊंचा सुनाई देता था और घर में अपनी छड़ी ले कर इधर उधर जाते रहते थे। जिस दिन सुबह को हम ने वापस आना था , रात को ही हम ने सोचा कि दादा जी को अब बता देना चाहिए कि सुबह को हम ने इंग्लैण्ड को वापस जाना था लेकिन उन को बताना मुश्किल लगता था। आखिर में मैंने अपनी बड़ी लड़की पिंकी को कहा कि वोह बताए। पिंकी ने कहा” दादा जी ! कल को हम ने इंग्लैण्ड चले जाना है “. दादा जी को सुना नहीं। मैंने कहा ,” पिंकी जोर से बोल “. पिंकी ने फिर बहुत जोर से कहा ,” दादा जी !कल को हम ने इंग्लैण्ड चले जाना है ” हैं ?” सुनते ही दादा जी रो पड़े और देर तक चुप रहे. रात को रोटी खाते समय हम दादा जी के साथ हँसते रहे।

इस के बाद हम गाँव आते जाते रहे। अब तो सड़क बन गई थी और टैम्पू बसें टाँगे चलने लगे थे। दादा जी अब बहुत बूढ़े हो चुक्के थे फिर भी  कभी कभी हम दादा जी को बस में बिठा कर फगवारे ले जाय करते थे। छोटे भाई की भी शादी हो चुक्की थी और वोह दोनों पति पत्नी दादा जी की सेवा बहुत किया करते थे। २००० में जब हम गाँव जा कर वापिस आये तो छोटे भाई का टेलीफून आया  कि  दादा जी रात को रोटी खा कर सोये थे लेकिन जब सुबह जगाने गए तो कोई आवाज़ नहीं आई। जब जा कर देखा तो दादा जी इस दुनिआ से जा चुक्के थे। छोटे भाई ने कहा की हमें जल्दी करने की जरुरत नहीं थी क्योंकि उसी शाम उन्होंने दादा जी को शमशान भूमि को ले जा अंतिम विदाई कर देनी थी। देर बाद जब हम गाँव आये तो छोटे भाई ने बताया की दादा जी के  आधे वाल फिर से काले हो गए थे और कुछ कुछ दांत भी दुबारा आने शुरू हो गए थे। दादा जी सौ से ऊपर थे और सारी उमर कोई दुआई नहीं ली थी । यह बात बहुत हैरानीजनक थी।

कुछ भी हो जो इस दुनिआ में आया है ,उसे एक दिन जाना तो  ही है लेकिन कुछ लोग जाते जाते घर के सदस्याओं पर एक मीठी छाप छोड़ जाते हैं जिन की याद कभी कभी आती ही रहती है।

चलता….

6 thoughts on “मेरी कहानी – 36

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    शुभ प्रभात भाई
    आपके दादा जी के बारे में पढ़ मुझे बहुत अच्छा लगा
    मुझे अपने दादा जी की याद आ गई
    हमारे बुजुर्ग बहुत जुझारू हुआ करते थे

  • विजय कुमार सिंघल

    भाईसाहब, आपके दादा जी के बारे में जानकर अच्छा लगा। सुख दुख तो जीवन के अंग हैं। लेकिन जो इनसे जूझते हुए सफल होता है वह वंदनीय है। आपके दादाजी ने १०० वर्ष से अधिक की आयु पायी यह प्रसन्नता की बात है। उनकी स्मृति को प्रणाम !
    आपके मन में शुरू से ही मनुष्य मात्र के लिए प्रेम है यह अच्छी बात है।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , बहुत बहुत धन्यवाद . दादा जी की एक बात से मैं हैरान होता हूँ कि उन्होंने जिंदगी भर कोई दुआई खाई ही नहीं और जाते वक्त भी बस सोये ही रह गए ,कोई तकलीफ नहीं उठाई और ना ही किसी घर के सदस्य को कोई तकलीफ दी . घर के दुसरे सदस्य दुआइआन खाते हैं , बस यही हैरानी मुझे होती है .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की कहानी बहुत रोचक एवं प्रभावशाली है। विशेषकर मोहन के प्रति जो आपने प्रेम, सम्मान और इंसानियत दिखाई वह प्रशंसा के योग्य है। मैं आपकी इन भावनाओं के लिए आपको नमन करता हूँ। दादाजी की राजगिरि और कारपेंटर के काम में सिद्धहस्तता जानकार प्रसन्नता हुई। मेरे पिता भी पहले ठेके लिया करते थे बाद में राजगिरि करते थे। ठेके में लोग बेईमानी करते थे और बाद में बकाया पैसे नहीं देते थे। एक बार तो घर के बर्तन बेचने की नौबत आ गई थी। डोईवाला में उन्होंने एक मंदिर बनाया था. काम पूरा होने पर शाम को पंडित जी ने पेमेंट की और रात को सोते समय उन पैसों की चोरी करा दी। आज मैं उनका दुःख अनुभव कर दुखी हो जाता हूँ। मैं उन दिनों बहुत छोटा था परन्तु यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ। पिताजी ने हमें पालने और पढ़ाने में बहुत संघर्ष किया। मैंने खुद भी १० – १२ साल की उम्र में उनके साथ गर्मिओं की छुट्टी में मजदूरी की थी. अतः मैं जानता हूँ की राजगिरि में कितनी मेहनत करनी पड़ती है और ऊँची इमारतों में जिंदगी का कितना रिस्क होता है। उन दिनों यूपी में पंजाब से मजदूरी भी बहुत कम मिलती थी। दादा जी की मृत्यु के बारे में जानकार दुःख हुआ। उन्होंने १०० वर्ष की आयु पाई यह गौरव की बात है। अपने बारे में कुछ अधिक लिख दिया, क्षमा करें। आपका हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , किओंकि आप भी ऐसे समय से गुज़र चुक्के हैं ,इसी लिए आप सब समझते हैं कि यह काम कितना कठिन है . आप के पिता जी के साथ जो हुआ , बहुत दुखद बात है ,ख़ास कर पंडत पे बहुत गुस्सा आया जो कहने को तो भगवान् के बेटे कहलाते हैं और करतूतें इतनी गन्दी छिंछिं . जो ठेकेदारी का काम है वोह इमानदार लोगों के लिए नहीं है ,इस को बेईमान ही कर सकते हैं . जो आप ने भी पिता जी के साथ काम किया जान कर अच्छा लगा किओंकि काम करना ऊंचा काम है . जिस मकान की बात मैंने लिखी है , इस के तीन कमरे तब बनाए थे जब मैं आठवीं में पड़ता था ,छोटा भाई भी बहुत छोटा था और बड़ा भाई तो मुझ से पांच छी साल बड़ा था . हम तीनों की एक फोटो मकान बनाने की पैड पर खडों की अभी भी हमारे पास है ,दो मजदूर खड़े हैं ,बड़े के हाथ में तेसी है और मैं बड़े भाई के साथ खड़ा हूँ ,छोटे भाई के सर पर चार इंटें रखी हुई हैं . यह एक पुरानी याद है . मनमोहन भाई , अपने बारे में अधिक नहीं लिखा लेकिन जितना लिखा उस से मैं समझ गिया हूँ कि आप ने भी जिंदगी में बहुत संघर्ष किया है .

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मुझे इस बात का गौरव है कि मेरे माता पिता बहुत ही सज्जन एवं ईमानदार थे और उन्होंने जीवन में बहुत धोखे खाए परन्तु फिर भी सत्य के मार्ग को नहीं छोड़ा। आपने यथार्थ रूप को समझा है, यह मैं अनुभव करता हूँ, एतदर्थ धन्यवाद। आपकी फोटो की कल्पना कर रहा था। यह वास्तव में बहुत ही मीठी याद है व होगी। बड़े भाई के हाथ में तेसी है, यह तेसी शब्द समझ में नहीं आया। यहाँ राज लोग कन्नी, बसूली, फन्टी, सहौल, सूत व गुरुमला आदि जैसे टूल्स का प्रयोग करते हैं। मैंने भी बारह साल की उम्र में ७ या ९ ईंटे सिर पर उठाई हैं। तब मैं सातवी व आठवी कक्षा में पढता था। पिताजी मना करते थे परन्तु मैं यह काम करने की जिद करता था। मुझे यह काम अच्छा लगता था। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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