प्रतिबिम्ब सूरज का प्रकट
प्रतिबिम्ब सूरज का प्रकट, पुलकित था दर्पण को किया;
आलोक भर अद्भुत दिया, पर मूल ना देखा किया ।
है बिम्ब जिसका मनोहर, कैसा वो होगा प्रभाकर;
लखना ही होगा तक उधर, रश्मि रहीं जिससे बिखर ।
जिस दिश रही द्रष्टि अभी, उलटी तरफ़ होगा रवि;
कुछ कोण पर कुछ गौण पथ, छलका रहा होगा झलक ।
जिसका जगत है अपरिमित, ब्रह्माण्ड सीमा से रहित;
कैसा वो होगा जगतपति, शाश्वत सनातन शून्यवत ।
हर हृदय चमकाया किया, हर सुर में जो गाया किया;
उर ओट वह पाया किया, ‘मधु’ ध्यान जब आया किया ।
— गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
बहुत ऊँची श्रेणी की रचना।