“पता, मेरे गाँव का”
क्यों पूछते हो मेरे गाँव का पता
माफ करना गर हुयी कोई खता ||
अदब से रहता हूँ इसी इलाके में
ऐसे विचार नहीं ठहरूं ठहाके में
कहाँ आप और कहाँ यह खँडहर
जमीन पे खड़ी है खुदके फिराके में ||
कुछ दूर जाकर सड़क से मुडती है सड़क
फिर कई मोड मुड खुद सरकती है सड़क
रुकिए, प्रवेष द्वार सुन्दर सा मोड है
बाग को रंग दिखाकर मुडती है सड़क ||
सतरंज सी सीधी चाल जब मिलने लगे
दायें बाएं खुदवखुद हर शय चलने लगे
झुक जाय सर बजरंगबली की देहरी पर
सामने है गाँव दिल-जान पिघलने लगे ||
यही सड़क पंचायत भवन से जुडती है
सुबह-शाम जहाँ गलियां आ मिलती हैं
तर्क बेलगाम सा हों जाता है जनाब
पूछना तनिक, मेरी गली क्या कहती है ||
पधारिये सुजान, बाबा के मचान तक
वटवृक्ष की छैयां में, पहचान तक
रुपये की अठन्नी चवन्नी तो देखिये
मधुबनी, कुल गौतम के प्रसाद तक ||
ज्ञान और पांडित्य कुल की गरिमा है
संस्कार धरोहर बाकी माँ की महिमा है
कुलगुरू है हम, बलशाली क्षत्रियों के
चौहद्दी कहती हैं गुण इनका क्षमा है ||
महातम मिश्र
वाह्ह्ह्ह् बहुत सुंदर भाव…श्रीमान जी।
सादर धन्यवाद प्रिय रमेश जी रचना ने आप को आकर्षित किया, मेरा मनोबल बढ़ा…….
कविता अच्छी लगी.
सादर धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी, रचना आप को पसंद आयी मुझे बहुत ख़ुशी मिली, इसी तरह मेरे प्रेरणास्रोत बने रहे मान्यवर……