संस्मरण

मेरी कहानी – 38

दुनिआ में सब  कुछ भूल सकता है लेकिन एक ऐसी चीज़ है जो किसी को नहीं भूलती , वोह है “माँ”। भले ही आप किसी को उस का ज़िकर करें या ना लेकिन माँ की याद हमेशा दिल में होती है। मैं यह नहीं कहता कि पिता जी की याद नहीं आती लेकिन पहले माँ ही याद आती है ,इसी लिए तो जब रोते भी हैं तो हाए माँ या ओह माँ ही कहते हैं । मेरी माँ से भी मुझे जितना पियार मिला है उस को नापने के लिए कोई यंतर नहीं है। मेरी पहली याद जो देहरादून की है वोह भी माँ से ही शुरू होती है जब वोह मुझे बाहों में लिए चलती फिरती थी। मेरी माँ  बहुत गोरी थी और जब की बात मैं करता हूँ साड़ी पहनती थी। वोह हमेशा हरे रंग की साड़ी ही पहनती थी और बहुत सुन्दर लगती थी । हमारा पहला घर छोटा लेकिन बहुत सुन्दर था , ऊपर दो चुबारे थे और एक चुबारे में से कुछ जगह निकाल कर छोटा सा गुसलखाना बना हुआ था। सारा दिन ऊपर नीचे पता नहीं हम कितने चक्र  लगाते होंगे और कभी कभी  माँ से पैसे मांगते ,दूकान से कुछ लेने के लिए। एक दो पैसे हमें मिल जाते और दौड़े दौड़े गणेसे की हट्टी को जाते। हट्टी वाला गणेसा नेतरहीन  था लेकिन बहुत अच्छा था। दो पैसे की रेडीआं या मूंगफली कितनी ही आ जाती और हम कमीज़ के पलड़े में ही डलवा लेते। माँ को मैंने कभी भी कोई कष्ट नहीं दिया था ,जो वोह कहती ख़ुशी से  कर देता। एक दफा माँ पशुओं वाली हवेली में गई हुई थी और रसोई में बहुत से जूठे बरतन  पड़े थे. पता नहीं मेरे दिमाग में किया आया ,मैंने चूल्हे की राख के साथ बर्तन साफ़ करने शुरू कर दिए। बर्तन साफ़ करती माँ को हमेशा देखा था और मुझे पता था कि किया करना था। मैंने पीतल के ग्लास चमचे और कांसी की थालिआं राख से साफ़ करनी शुरू कर दीं। साफ़ करके उन को एक कपडे से दुबारा साफ़ किया और चमका कर  फिर सभी बर्तनों को एक शैल्फ जिसे पर्षति कहते थे उस पर बड़ी तरतीब से सजाने लगा। ऊपर से माँ आ गई और कुछ देर तक खड़ी देखती रही ,फिर हंस पड़ी। फिर वोह अपनी सखिओं को ले कर आई और सब को दिखाया। सखीआं कहने लगीं ,”गुरमेल हमारे बर्तन भी साफ़ कर दे ,हम तुझे बहुत कुछ देंगे “. मैं बहुत खुश हुआ।

मैं बहुत छोटा था जब मेरा छोटा भाई निर्मल पैदा हुआ,  यह अक्तूबर १९४६  था। मैं उसे देख देख कर बहुत खुश होता ,हर वक्त उस के आगे पीछे रहता। बचपन में कभी कभी गुरमेल की वजाए गेली भी मुझे कहते थे. एक दिन कोई इस्त्री मुझे पूछने लगी ,” ए गेली ! तेरा छोटा भा जी कहाँ से आया है ?”. मैंने कहा ,” रहमी के पास दो काके थे , एक उस ने हम को दे दिया “. सभी औरतें जोर जोर से हंस रही थी।  हमारी गली में एक मुसलमान बुड़िआ रहमी रहती थी जो दाई भी थी। पता नहीं उस के घर में मैंने कोई किसी के दो बच्चे देखे थे और रहमी हमारे घर आती रहती थी ,शायद इसी लिए मैंने कह दिया होगा कि रहमी ने हमें एक बच्चा दे दिया था। इस बात को ले कर बहुत दफा माँ हंसती थी। कुछ महीने बाद जब लोहड़ी आई तो हमारे घर लोहड़ी मांगने लड़के लड़किआं बहुत आते और लोहड़ी गाते। हमारे घर के साथ ही ताऊ नन्द सिंह का घर था और उस के साथ एक खुला मैदान था। लोहड़ी के  दिन इस खुले मैदान में गोबर की पाथिओं का बहुत बड़ा ढेर लगा हुआ था जो जल कर लाल हो गिया था  और औरतें इर्द गिर्द बैठी थीं। ठंडी बहुत थी और माँ छोटे भाई निर्मल को अपनी गोद में ले कर बैठी थी। मूंगफली रेडीआं बांटी जा रही थीं। दादा जी की बहन बनती बहुत कुछ बाँट रही थी। कुछ देर बाद बड़े आदमिओं की लोहड़ी शुरू हो गई और बहुत आदमी आ गए और लोहड़ी मांगने लगे। वोह बहुत रूपए मांग रहे थे। मुझे पता नहीं उन को कितने रूपए दिए गए लेकिन मुझे यह याद है  कि एक बहुत बड़ी पीतल की परात जिस में आठ दस सेर लडू होंगे उन को दिए गए। यह लोहड़ी का सीन मुझे अभी तक याद है।

आज तो औरतें बाहर काम करती हैं , पडी लिखी हैं लेकिन उन दिनों गाँवों में न तो औरतें पड़ी  लिखी और ना ही आगे लड़किआं स्कूल जाती थीं , इस लिए घरों में ही  सब औरतें  काम करती थीं। औरतें चरखा ले कर बैठी होती और बातें करतीं रहती । कुछ औरतें  कपास को एक वेलने से जिस को एक हैंडल से घुमाया जाता था रूई निकालती। रूई बाहिर की तरफ निकलती और कपास में से दाने जिस को वडेवे कहते थे एक  तरफ निकलते जाते। चरखे के साथ रूई को कात कर उस से बहुत कपडे बनाये जाते थे। बिस्तरों के लिए दरीआं  चादरां खेसीआं  और रजाईओं के लिए कपडा बनाया जाता था। इन कामों में माँ बहुत माहर थी। मेरी  बहन भी अपनी सखिओं के साथ बैठी बैड शीट जिस को चदर कहते थे ,उन पर तरह तरह के रंगों के धागे के साथ डिज़ाइन बनाती रहती। यह माहौल मुझे बहुत अच्छा लगता था और इसी लिए औरतों की बातें सुनता रहता था । माँ बहुत अच्छी कहानीकार थी और उस की सख्यां कहानी सुनने के लिए बेताब रहतीं। उस की सुनाई कुछ कहानीआं अभी तक मुझे याद हैं। माँ को शर्धांजलि के तौर पर एक कहानी लिखना चाहूंगा।

सखिओं के अनुरोध पर एक दिन माँ कहानी सुनाने लगी ” बहुत समय की बात है दो दोस्त होते थे। आपस में उन का बहुत प्रेम था। एक दिन वोह कहीं जा रहे थे ,धुप बहुत थी और वोह एक बृक्ष के नीचे बैठ गए।  एक दोस्त दूसरे को बोला, भाई  ! मेरा  इरादा बिदेस जाने का है। उस ने एक कपडे में से कुछ गहने निकाले और बोला ,यह गहने अपने पास रख लो ,जब वापस आंऊगा तो ले लूंगा। कुछ दिन बाद वोह दोस्त बिदेस चले गिया और जब दो साल बाद वोह वापस आया तो उस ने दोस्त से गहने मांगे। दूसरा दोस्त साफ़ मुकर गिया कि गहने तो उस ने दिए ही नहीं थे। वोह दोस्त बहुत दुखी हुआ और उस ने इलाके के हाकम से शकायत की। हाकम ने दोनों को बुलाया और गहने वाले को गहने देते समय का  कोई गवाह पुछा। वोह बोला ,जनाब मेरे पास उस बृक्ष के सिवा  कोई भी गवाह नहीं है। हाकम बोला ,अच्छा इस तरह करो ,उस बृक्ष से एक टहनी तोड़ कर लाओ , मैं टहनी से ही पूछूंगा। सीधे साधे लोग होते थे , वोह बृक्ष की टैह्नी लेने के लिए चल पड़ा। हाकम और उस का दोस्त इंतज़ार करने लगे। सारा दिन गुज़र गिया ,अँधेरा होने लगा और वोह शख्स आया नहीं। तभी हाकम के मुंह से अचानक निकला ” हद हो गई ,अभी तक आया ही नहीं “. टैह्नी वाला  दोस्त बोला ,”हजुर ! इतनी जल्दी वोह कैसे आ सकता है किओंकि वोह वृक्ष तो बहुत दूर है”. हाकम ने उसी वक्त उस शख्स को पकड लिया और बोला ,” तुझे कैसे पता है कि वृक्ष दूर है ? तू ने  उस वृक्ष के नीचे बैठ कर गहने लिए थे ,इसी लिए तुझे पता है कि वोह वृक्ष दूर है ,यह कह कर उस ने उस को पीटना शुरू कर दिया और दोस्त मान गिया कि उस ने गहने लिए थे  ” जब वोह शख्स टैह्नी तोड़ कर लाया तो हाकम ने कहा ,अब इस टैह्नी की जरुरत नहीं है , अब तुमारे गहने मिल जायेंगे। यह कहानी माँ ने बहुत दफा सुनाई थी।

सब से ज़िआदा खूबी माँ में थी उस की सखावत , वोह बहुत दिआलू थी , गरीब औरतों की मदद करती थी  ,यही कारण था कि बहुत औरतों ने उसे बहन बनाया हुआ था और उन के बच्चे माँ को मासी कहते थे। इन सखिओं में सब से ज़िआदा प्रेम रुक्मण से था जिन के बच्चे मेरी उम्र के हैं , उन्होंने हमारे साथ सचे दिल से पिआर किया , रुक्मण का एक लड़का तो यहाँ ही रहता है और अभी तक भाई मानता है। यह तो मैं नहीं कहूँगा कि हम बहुत अमीर थे लेकिन हमारे घर किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी और जो हम कहते माँ बना देती , दूध घी तो यों ही हमारे घर में बहुत होता था बल्कि हमें बेचना पड़ता था। आप हंसोगे ,माँ के हाथ का बना  आम का अचार कभी नहीं भूलूंगा। आम के ब्रिक्ष हमारे खेतों में होते थे। हम आम  तोड़ कर घर  ले आते और माँ के साथ मिल कर आमों को काटते। जब सारे आम काट हो जाते तो तीन चार बड़े बड़े मट्टी के बने बर्तन जिन को चाटी बोलते थे उन में डाल देती और उन में नमक ,कलौंजी , मेथी ,लाल मिर्च का पाउडर  और सौंफ डाल कर मिक्स कर देती और साथ ही बड़ी बड़ी लाल मिर्चें डाल कर इतना सरसों का तेल डालती जिस में सब कुछ डूब जाता , यह अचार कभी खराब नहीं होता था।

यह आचार का ज़िकर मैंने इस लिए ही किया है कि इस से मेरी एक याद जुड़ी है। मैट्रिक के दिनों में  मेरा दोस्त जीत रोज़ रात को हमारे घर ही सोने आता था। हम अपना सकूल का काम करते रहते , जब काफी देर हो जाती तो जीत  कहता ,” जाह यार ! रोटीआं और अचार ले के आ और मिर्चें लाना मत भूलना “. हम नीचे ड्राइंग रूम में सोते थे और माँ ऊपर वाली रसोई जो काफी बड़ी थी में सोया करती थी। मैं धीरे धीरे रसोई में दाखल होता , फिर भी माँ को जाग आ जाती और कुछ गुस्से में कहती ,”सोने भी नहीं देता “. माँ जानती होती थी कि हम रात को फिर रोटी खाएंगे , इस लिए पहले से ही ज़िआदा मक्की की रोटीआं पका के छाबे में रख देती। मैं चार मक्की की रोटीआं उठाता , एक बड़ी कौली में ठंडा साग डालता और एक  में अचार और बड़ी बड़ी मिर्चें डालता और धीरे धीरे नीचे ले आता। दोनों दोस्त मिल कर खाते। इतना मज़ा आता कि जिंदगी में बढिया से बढिया खाने खाए लेकिन उन मक्की की रोटीआं साग और अचार मिर्चों का मज़ा कभी नहीं मिला। जीत  अब मुम्बई में बहुत बड़ा कारोबार  करता है और उस की एक कोठी जालंधर में है। मैं और मेरी धर्म पत्नी बहुत वर्ष हुए जीत और उस की पत्नी को जालंधर मिलने गए थे। हम ने सभी यादें ताज़ा कीं। जीत की हंसी ख़तम नहीं होती थी जब वोह मक्की की रोटीआं वाला किस्सा सुना रहा था। हम उसी तरह बातें कर रहे थे जैसे अभी भी हम सकूल में हों और हमारी अर्धन्ग्नीआ भी हंस रही थीं।

आज हम जब ब्लड प्रेशर या हार्ट अटैक की बात करते हैं तो अक्सर गलत खाने की बात करना कभी नहीं भूलते। हम कहते हैं कि जंक फ़ूड मीट शराब और सिगरेट नोशी से ही यह बीमारियां लगती हैं। माँ ने कभी भी मीट तो क्या अंडा भी नहीं खाया। बिलकुल सादा खुराक थी उस की लेकिन फिर भी अक्सर सर दर्द की शकायत करती रहती थी और कहती ,” मुझे एक एस्प्रो की गोली दे देना “. गोली खा के वोह फिर काम में मगन हो जाती। जब १९६५ में मैं यहां इंग्लैण्ड में था तो पिता जी गाँव में रहने लगे थे। एक दिन मुझे पत्तर मिला कि माँ को अधरंग हो गिया था। पिता जी गाँव में थे और फगवारे से डाक्टर को ले आये। डाक्टर ने देखा कि ब्लड प्रेशर बहुत हाई  था। इस लिए ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने के लिए ट्रीटमेंट शुरू हो गिया। चार महीने माँ चारपाई पर पड़ी रही लेकिन धीरे धीरे जैसे जैसे ब्लड प्रेशर कंट्रोल में  आता  गिया माँ ठीक होती गई। छे महीने बाद जब मैं इंडिया गिया तो माँ चलने फिरने लगी थी। इस के बाद माँ ने एक दिन भी दुआई मिस नहीं की और घर के सारे काम करने लगी। मेरे छोटे भाई ने घर के पास की जगह में मुर्गे मुरगीआं  रख लिए और माँ को ज़िमेदारी संभाल दी। मुर्गे मुरगीआं  रखना तो एक बहाना ही था ,दरअसल माँ सारा दिन मुर्गे मुर्गीओं  को कभी दाना फेंकती रहती , कभी उन के आगे पीछे चलती रहती ,जिस से उस की एक्सर्साइज़ हो जाती और सिहत ठीक रहती। १९७३ में पिता जी के अचानक यह दुनिआ छोड़ देने से माँ का काम और बड़  गिया था. माँ रैगुलर अपनी दुआई लेती , छोटे भैया ब्लड प्रेशर चैक करते रहते दुआई एडजस्ट करते रहते। १९९८ में बड़े भैया इंडिया आये और माँ को अफ्रीका ले गए। वहां का मौसम उसे बहुत पसंद था.वोह वहां पहले भी रह चुकी थी।  माँ एक साल वहां रही और अफ्रीका से ही मैंने अपने पास बुला लिया। यहां भी वोह खुश थी। गर्मिओं के दिनों में वोह गार्डन से ऐपल इकठे करती , छोटी सी टोकरी भर के भीतर  ले आती और काट कर सभी को खिलाती। कभी कभी बहन और बहनोई उसे अपने पास ले जाते। बड़े भाई का लड़का और उस की पत्नी भी यहां ही रहते थे , कभी वोह अपने पास ले जाते।
गाँव से छोटे भैया भी माँ के बगैर उदास थे ,इस लिए बार बार माँ को वापस आने को कहते। हमारे कुछ दोस्त इंडिया को जा रहे थे , इस लिए हम ने सोचा माँ को उन के साथ भेज दिया जाए। जिस दिन माँ ने हीथ्रो एअरपोर्ट से चढ़ना था ,एअरपोर्ट पे एक मेला सा लगा हुआ था। सभी रिश्तेदार इकठे थे और फोटो ले रहे थे। माँ इंडिया चले गई और यह हमारा आख़री मिलन  था। २००० में उस को जबरदस्त अटैक हुआ और यह संसार छोड़ गई। १९६५ के बाद ३५ वर्ष बाद यह दूसरा अटैक था। रेगुलर दुआई लेते हुए ३५ साल जीने के दिन और मिल गए. कभी कभी फोटो देखते हैं तो याद कर लेते हैं और यही सोच लेते हैं कि जीना  इसी का नाम है  .  चलता …………….

8 thoughts on “मेरी कहानी – 38

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    आपकी माँ के बारे में पढ़ कर मुझें लगा सबकी माँ एक जैसी होती है …. है न भाई जी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप का धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब,आपकी माताजी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।

  • Man Mohan Kumar Arya

    Mata aur matrabhumi swarg se bhee badhkar hoti hai. Ram ne Lakshman ko yeh shiksha dee thee. Vedic shiksha hai ki Mata, Pita aur Acharya devta hote hai
    Inki seva hee sacchi murti puja hoti hai. Inse jo ashirwad milta hai vah jeevan me khushian lata hai. Kuch aisa he anbhav apki kata ko padhkar mujhe hua. Dhanywad
    (Mobile phone se, aaj ghar me light nahi hai).

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , यह मैं ही नहीं ,सभी लोग जो इंडिया से आये हुए हैं उन का लगाव मातार्भूमि से बरकरार है . आज यहाँ बहुत कुछ बदल गिया है , हमारी दुसरी पीड़ी बहुत बदल गई है और तीसरी पीड़ी तो बस इस देश को ही सब कुछ मानते हैं . हम लक्की हैं कि हमरी दुसरी और तीसरी पीड़ी भी हमारा सत्कार करती है , आगे किया होगा भगवान् जाने . आप की बिजली की समस्या से गाँव याद आ गिया ,रोटी खाते खाते बिजली चले जाती थी और मोम बत्ती ढूँढने लगते .

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी मन को प्रसन्नता प्रदान करने वाली प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। कल यहाँ आंधी व बारिश के कारण विजली चली गई थी। अब आ गई है। लगभत ११ – १२ घंटे तक बिजली गुल रही। सारा काम ठप्प हो गया था।

        • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

          हा हा , मनमोहन भाई , हम कितने निर्भर हो गए हैं इस बिजली पर ! कोई ज़माना था गाँवों में बिजली होती ही नहीं थी और इसे मिस करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था . यहाँ तो बिजली जाती ही नहीं , हाँ कभी कभी दो चार वर्षों बाद कोई गड़बड़ हो जाए तो लोग बिजली कम्पनिओं पर कम्पैन्शेशन का क्लेम कर देते हैं कि उन के फ्रीज़र में पडी फ़ूड खाने के लाएक नहीं रहीं .

          • Man Mohan Kumar Arya

            मेल पढ़कर प्रसन्नता हुई। देहरादून उत्तराखंड राज्य की राजधानी है। देहरादून एक तरफ गंगा और दूसरी ओरे यमुना से घिरा हुआ है। इन व अन्य नदियों पर कई बांध है जहाँ बिजली बनती है। इस पर भी दिन में कई कई बार बिजली आती जाती रहती है। हमारे कर्मचारी यूरोप की तरह के कर्तव्यनिष्ठ नहीं है। शायद इस लिए भी समस्याएं ज्यादा है। विदेशों के कार्यकुशलता के उदाहरण हम सुनते रहते हैं। यहाँ के वातावरण में हम लोग अभ्यस्त हो गए हैं। हमारे पुराण ग्रंथों में एक जगह कहा गया है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ देवता भी जन्म लेने के लिए तरसते हैं। इस आधार पर हम बहुत ही भाग्यशाली हैं। हार्दिक धन्यवाद।

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