कविता

मधुगीति : सुर सुहाने उर रूहाने !

सुर सुहाने उर रूहाने, आनन्द धारा ले चले;
अज्ञात को कर ज्ञात मग, कितनी विधाएँ दे चले !

विधि जो रचा जो संचरा, है चर अचर जो सँवरा;
अपनी प्रचेष्टा में लगे, उसकी प्रतिष्ठा में पगे ।
निज क्षुद्र तन विक्षुब्ध मन, भव की तमिस्रा मिटाते;
खग मृग को चलना सिखाते, दृग द्रवित को हृद लगाते !

सब आपदा विपदा व्यथा, उर आकलन की जो प्रथा;
विकसित व्यवस्थित हो रही, चिन्मय तरंगित कर रही !
सुन्दर जगत स्वप्निल जुगत, हर प्राण को ले मुहाने;
‘मधु’ से मिलाने ले चले, प्रभु को प्रवाहे उर चले !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
www.GopalBaghelMadhu.com

2 thoughts on “मधुगीति : सुर सुहाने उर रूहाने !

  • विजय कुमार सिंघल

    सरस गीत !

  • महातम मिश्र

    वाह वाह, शब्दों का खजाना भर दिया और भाव की भंगिमा से से रचना को अद्वितीय बना दिया आप ने श्री गोपाल बघेल जी……

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