स्मृति के पंख – 39
भ्राता जी कभी कभी लुधियाने आते रहते। उनकी जुबानी मोहिनी की अच्छाई और शराफत सुनता तो बहुत अच्छा लगता। शाम को और खाने के साथ साथ बातें भी होती रहती। इन्हें अब दर्द की अकसर शिकायत रहती जिसका इलाज नहीं था. थोड़ा लेटकर जमीन पर बरदाश्त करना होता था। मैंने पूछा भी कि भ्राता जी देखकर किसी नये डाक्टर को कन्सल्ट करें। लेकिन अकसर वो टाल जाते। उन्हें हार्निया की शिकायत थी, जो उन्होंने कभी बतायी ही नहीं। वे टेक चन्द्र को मिलने गये, जबकि उन्हें वहां तकलीफ ज्यादा बढ़ गयी। और टेक चन्द्र ने उन्हें अस्पताल में दाखिल करा दिया। आपरेशन हुआ और चन्द दिनो में ठीक हो गये दुःख के दिन पूरे हो गये थे। टेक चन्द्र की सर्विस अच्छी थी, लेकिन घर से दूर होने के बावत उसने छोड़ दी और वापस आ गये। कुछ अर्सा जब तक फिर उन्हें हरद्वार में सर्विस नही मिली थी, बेसरोसामानी की हालत में रहे। और उन दिनों भ्राता जी भी दुःखी होते थे। लेकिन टेक चन्द्र की कोशिश और भ्राता जी के आशीर्वाद से उन्हें हेल्प मिल गयी और वे हरद्वार बी0एच0ई0एल0 में मुलाजिम हो गये।
टेक चन्द्र का एक लड़का है। भ्राता जी खुशी से अपने पोते बांबी का जिक्र और हन्नी का जिक्र मुझसे करते तो उनकी आँखों में आँसू आ जाते। हमारे फिर दो लड़कियाँ हुईं। अब मेरठ और हरद्वार साथ ही थे, कभी भ्राता जी पोतों को मिलने पहुँच जाते, कभी बच्चे। लेकिन सदा बहार तो रहती नही। इस दफा भाभी जी का स्वर्गवास काफी दुखमय हुआ। जब बच्चों की खुशियां देखने की तमन्ना हर मां को होती हैं ऐसे वक्त में वह हमारा साथ छोड़ गयीं। एक दिन तलवाड़ा से सुभाष का तार मिला कि माता पिता दोनों आ जायें और हम दोनों पहुँच गये। जरूरी नहीं होता कि तार आने का मतलब किसी घटना या दुख की चेतावनी हो। भगवान सुख हो वहां पर। दिल घबराया हुआ था। तलवाड़ा पहुचने पर हमारे इंतजार में उनका पी0ए0 खड़ा था। पूछने पर पता चला कि सुभाष अस्पताल में हैं। हम धड़कते दिलों के साथ उसके हमराह चले। अस्पताल पहुचने पर मैंने सुभाष की जो तस्वीर देखी, आज भी याद आने पर मुझे दुख होता है। लेकिन सुभाष का हौसला बड़ा था, मैंने जब प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा। उसका चेहरा तो पूरा झाइयों से भरा था और बदन भी, लेकिन उसने कहा- पिताजी मैं ठीक हूं। एक मशीन एक्सीडेन्ट में उसका बदन और चेहरा झुलस गये थे। हम कुछ दिन वहा रहे। जब हमें लगा कि जख्म ठीक हो रहा है और सुभाष भी उठकर चल फिर सकता है, तो हम वापस आ गये। फिर भी मेरा मन बेचैन हो उठता कहीं चेहरा दागदार न हो जाये। मगर शुक्र था उसकी जान बच गयी। रफ्ता रफ्ता उसका चेहरा भी साफ होने लगा।
एक दफा भगत राम का खत मिला, उसमें लिखा था कि तुम अपने मकान को दुरस्त करवाओ। तुम्हारा मकान रिहाइश के काबिल नहीं, अब तुमने सुभाष की शादी करनी है। जितना मुझमे बन पडा़ मैंने मकान ठीक करा लिया। श्री हुकुम चन्द्र जी की कोशिशों से मिस्त्री और कारपेन्टर उसने दिये थे, उसकी देख भाल और सामान मदू (उपलब्ध) करना भी उनके जिम्मे था। श्री हुकुम चन्द्र जी निर्मला बेटी के ससुर थे। तकरीबन मकान की मरम्मत पूरी हो चुकी थी। थोड़ा काम अभी कारपेन्टर कर रहा था कि तलवार साहब आ गये, सिर्फ यह देखने के लिये कि मेरा मकान कैसा है। उन्हें मकान अच्छा लगा था। हो सकता है तलवार साहब को किसी की ऐसी इत्तला दी थी, तभी वे आ गये थे। खैर भगवान कारसाज है, जब समय अनुकूल हो तब तक कष्ट नहीं होता।
तलवार साहब ने सुषमा की शादी में शामिल होने के लिये लिखा। सुषमा की शादी चड़ीगढ होनी थी, हम दोनों मियां बीबी चंडीगढ़ गये। तलवार साहब की तरफ से इंतजाम अच्छा खासा था, चाहे परदेश में आकर शादी कर रहे थे। दूसरे दिन हमने इजाजत माँगी, तो तलवार साहब ने कहा खाना खाकर चले जाना। कौन सा लुधियाना दूर है, फिर हँसते हुए बोले- तुम्हारी बहू जल्द ही खाना तैयार कर देगी। पहली बार चंडीगढ़ में कमलेश के हाथ का बना हुआ खाना खाया। अच्छा बना था या मुझे बहुत अच्छा लगा था इसका अन्तर मैं नहीं कर सकता, लेकिन खाने में मुझे बहुत मजा आया।
तलवार साहब ने अनन्त राम को कहकर मुझसे वादा ले लिया था कि कमलेश की बारात हमारे दरवाजे पर ही आये। लगता भी ऐसा ही अच्छा हैं लड़की वालों को क्यों तकलीफ दी जाये। जब हमने किसी देवी का आवाहन करना है, उससे मिलना है, तो लाजमी है उसके तक ही मेरा जाना। ये हमारी परम्परा है। जब शादी की तारीख निश्चित हो गयी, यानी 22 नवम्बर 1971, दो दिन पहले शगुन देने के लिये तलवार साहब और उनकी बड़ी बेटी आये। हमारी रवानगी बस से 21 नवम्बर को रात 8.00 बजे लुधियाना से थी, दो बसें थीं। प्रोग्राम था कि सुबह की चाय भ्राता के यहां पीनी है। प्रोग्राम के मुताबिक जैसे ही मेरठ पहुचे भ्राताजी के बाहर चाय का इतंजाम तैयार था। सब लोग चाय पीके आगे की रवानगी को चले। बराती इस हिसाब से बैठे थे कि एक बस ददियाल की लगती और दूसरी ननिहाल की लगती रास्ते में बसों का नाम भी ददियाल और ननिहाल पड़ गया था।
रास्ते के लिये घर से जो खाने का सामान बंधा था, सब खतम हो गया। तलवार साहब ने चार पेटियां सेब के मँगाये थे, उनमें से भी एक तोड़ लिया। वो भी खत्म हो गया, फिर भी बराती खाने के आजिर मंद थे। लिहाजा चार पाच बजे का टाइम था, जब हम बरेली पहुँचे। वहीं सब इंतजाम था। आराम करने के लिये बिस्तरे बिछे थे। नाई, धोबी, पालिश वाला सब मौजूद थे। खाने के लिये हलवाई और चाय का पूरा बंदोबस्त था। इससे पहले अनन्त राम ने पीलीभीत फोन कर दिया था कि बारात यहाँ पहुँच गयी हैं। अनन्त राम ने पूछा पहले चाय या खाना? मैने कहा- चाय को छोड़ो, इन लोगों को भूख लगी है, खाने का बन्दोबस्त करो। जब तक मुंह हाथ धोकर बाराती आए, खाना तैयार था। सबने भर पेट खाना खाया। उसके बाद लान में ही सुभाष को जोड़ा पहनाया, वहाँ ही शगुन लिये, उसके बाद रवानगी हुई। चाईजी का आशीर्वाद लिया, सुभाष को छाती से लगाया। अनन्त राम और भाभी नीलम तैयार ही थे। साथ ही मोटर में चले।
तकरीबन 9 बजे हम पीलीभीत पहुँचे। वहाँ ठण्डा लेमन पानी का इन्तजाम भगतराम तलवार जी की कोठी में था, चूंकि देर हो चुकी थी और रास्ते की थकान भी थी। इसलिए वहाँ जाकर पानी पीकर बारात आगे बढ़ी। बैंड बाजा भी वहाँ से साथ हुआ। मैंने लुधियाने में सिर्फ जेवर बनवाया था। बाकी बरी कड़ों साड़ियों को या दीगर ब्याह का पूरा इन्तजाम अनन्तराम और भाभी नीलम के जिम्मे था। यह तो मानना ही पड़ेगा कि मुझसे बेहतर इन्तजाम अनन्त राम ने किया था। सुभाष की शादी भी एक तारीखी शादी थी। बारातियों का उत्साह भी खूब था। इधर मेरी खुशी का भी ठिकाना न था। बाराती तो बरेली से खूब खा-पीकर आये थे, इसलिए यहाँ सबने कम खाना था और खाने का सामान भी काफी बच गया तलवार साहब का। दूसरे दिन डोली की रवानगी सुभाष और कमलेश के लिए बजरिये रेल फस्र्टक्लास में और हम बजरिये बस वापस हुए। हमारे पहुँचने से काफी पहले ही रेलगाड़ी पहुँच चुकी थी। सुभाष और कमलेश वेटिंग रूम में हमारा इन्तजार कर रहे थे। हमारे पहुँचने पर डोली घर आई। हमारे इस्तकबाल के लिए घर में पूज्य माताजी, बहन गौराजी अपने बच्चों और बहू को आशीर्वाद देने के इन्तजार में थीं। आज मेरी झोपड़ी में हर सू महफिल ही महफिल थी।
कथा पढ़कर श्री राधा कृष्ण कपूर जी के जीवन की धूप छांव से परिचय हो रहा है। सर्वे भवन्तु सुखिनः अब उनके जीवन में चरितार्थ हो रहा है।
लेखक ने बहुत संघर्ष के बाद ख़ुशियाँ प्राप्त की थीं।
सारा काण्ड बहुत धियान से पड़ा और मज़ा आ गिया . राधा कृष्ण कपूर जी की जिंदगी को देखता हूँ कि इंसान सारी जिंदगी में किया किया खुशीआं और किया किया गम हासल करता है .