मधुगीति : अज्ञान में जग भासता
अज्ञान में जग भासता, अणु -ध्यान से भव भागता;
हर घड़ी जाता बदलता, हर कड़ी लगता निखरता !
निर्भर सभी द्रष्टि रहा, निर्झर सरिस द्रष्टा बहा;
पल पल बदल देखे रहा, था द्रश्य भी बदला रहा !
ना सत रहा जीवन सतत, ना असत था बिन प्रयोजन;
अस्तित्व सब चित से सृजित, हैं सृष्ट सब उससे सृवित !
वह बदलता सब बदलता, बदली नज़र जब देखता;
बदली सरिस जग विहरता, नभ पहुँच कर नव दीखता !
सब पंच-तत्वों का महल, उसकी पहल जाता टहल;
जो पंच इन्द्रिय परसता, ‘मधु’ महा- मन घुल वरसता !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
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उत्तम !