आसमाँ के सिपाही..चाँदनी ,चाँद ,तारे
रात के आगोश मे चाँदनी सिमटती गई ,
चाँद सँग यूँही ठिठोली सी करती रही |
आसमाँ को भी गुमाँ था जिस चाँद का ,
कभी देखो तो रातो को वो भी कभी घटता कभी बड़ता गया |
तारों को शायद नहीं शौक यूंही खुद पे इतराने का ,
हौंसला देते हैं वो तो राही को फिर सुबह के लौट आने का |
यूंही मिटती कभी बनती रही तस्वीर खाव्वो की मगर ,
दास्ताँ बन पाएगी कोई कैसे कहे कि इससे हैं सब बेखबर |||
— कामनी गुप्ता
सुन्दर कविता !