मधुगीति : मन ज्ञात है अज्ञात को
मन ज्ञात है अज्ञात को, अज्ञात ना कुछ ज्ञात को;
चलता है पर अज्ञात सा, रचता जगत अनजान सा !
हर पिपाशा मन हताशा, जो भी रही थी कुयाशा;
थी नियोजित उसकी रही, कर प्रयोजित जाती रही !
है स्व-रूपित भव उसी का, गति संचरी जग ज़मीं का;
सब सोच उसके विचारे, आ शून्य भागें बिचारे !
जो कुछ रहा उसके ही मन, जो भी तका उसके नयन;
संस्कार हमरे उसी से, संकल्प सजते उसी से !
जब भाव होते तिरोहित, उसमें मिले मन समाहित;
‘मधु’ समझते अज्ञात को, अज्ञात से अभिजात को !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
www.GopalBaghelMadhu.com
श्रेष्ठ कविता !