स्मृति के पंख – 40
अनन्त राम को बाकी रुपया तो मैं अदा कर चुका था, सात सौ उसका बाकी रह गया था। जब मिलनी पर सुभाष और कमलेश जाने लगे, तो मैंने सुभाष को कह दिया कि बरेली में चाचा जी को सात सौ रुपया दे आना और फिर सुभाष और कमलेश तलवाड़ा चले गये। कुछ दिन बाद उनकी याद आई और यह देखने के लिए कि उनकी गृहस्थी की गाड़ी कैसी चल रही है मैं तलवाड़ा गया। सब कुछ ठीक था, क्वार्टर भी ठीक था, पड़ोसी भी अच्छे थे। दोनों बच्चे आपस में खुश थे। सन 1972 में कमलेश को लुधियाना ले आये, उसके बच्चा होने के दिन थे। मैंने तो घर में नर्स को बुलाया, उससे मशवरा लेने के बाद हस्पताल ले गये। शाम का समय था, थोड़ी बूंदा बांदी भी हो रही थी। मेरे मन में बेचैनी थी। कारण था कमलेश की उलझन जो मैंने घर भी देखी थी और अब आगे रात हो रही थी। भगवान को सिमरते हुए रात गुजर गई। जबकि सुबह सुबह मेरी पोती का जन्म हुआ। नर्स ने हमें बच्ची दिखाई साथ ही कमलेश का मुर्झाया हुआ चेहरा भी देख भाई श्री राम और मैं बच्ची को दफनाने ले जाने लगे, तो सुभाष भी मेरे पीछे आ गया और कहने लगा पिताजी जरा मुझे भी दिखा दो। मैंने कपड़ा उठाकर उसे दिखा दिया, उसकी दोनों टांगे कन्धों के ऊपर थीं। जिस पहले बच्चे के लिए मेरी बड़ी ख्वाहिश थी, मां को तो कुदरती होती है, कमलेश की गोद से वो खिलौने देकर भगवान ने छीन लिया था। जब कमलेश हस्पताल से खाली झोली वापस लाईं, तो उसको बेहद रोना आया।
1973 में 3 माह की ट्रेनिंग के लिए रमेश को इंगलैंड और इटली जाना था। उसको विदा करने के लिए हम दोनों और सुभाष और कमलेश देहली हवाई अड्डा गये और उत्साह और प्यार से रूख्शत किया। वहाँ से वापसी पर रमेश ने अपने पूरे परिवार के लिए कुछ न कुछ तोहफा जरूर लिया और घूमने-फिरने व ट्रेनिंग की पूरी कहानी सुनाई।
1973 में ही 5 दिसम्बर को गुड्डी (कमलेश) की शादी तय हुई। दोनों परिवार खुशियां मनाते प्रसन्न थे, तभी मिलनी के बाद खाना खाने के लिए किसी बाराती ने शराब के नशे में मखमूर गलत हरकत की, तो लड़के के पिता श्री धूमचन्द्र जी ने बहुत बुरा मनाया। शायद वो उनका कोई नजदीकी रिश्तेदार था। मुझे अच्छा लगा और वो इसलिए कि गलत को गलत कहने की हिम्मत थी उनमें। जहाँ मेरी लड़की जा रही है, कुछ आदर्शवादी लोग हैं वे।
मैंने रघुनाथ की रकम, जो पाकिस्तान में उसने मेरे जेवर छुड़ाने के लिए दी थी, कोई चालीस चाल बाद में उतारी, लेकिन कभी भी मुझसे मांगने का इशारा तक नहीं किया कि मेरा रुपया तुमने देना भी है या नहीं। थोड़ी खता मुझसे सुभाष की शादी में हुई थी। वापसी पर आते हुए रास्ते में रघुनाथ ने पीने का प्रोग्राम बनाया, जबकि मुझे हिदायत थी कि इस रास्ते से बसें जल्दी निकाल लेना। रास्ते में लुटेरों का खौफ होता था। मुझे तो जल्दी थी और वो अपने प्रोग्राम में मस्त थे। मैंने थोड़ा गुस्सा जाहिर किया जो रघुनाथ इस बात पर मुझसे नाराज था जो सिर्फ मुझे महसूस हुआ था। उसने जुबानी कुछ नहीं किया। जबकि शराब को त्यागने का मेरा फैसला एक ही दिन में हुआ था। इसी तरह सिगरेट छोड़ने का भी। सिगरेट की डिबिया फेंक दी और फैसला कि आज के बाद सिगरेट नहीं पियूँगा। इसके बाद सिगरेट पीने का खयाल तक नहीं आया, जबकि पहले दो-दो डिब्बी सिगरेट मैं फूंक देता था।
केवल देहरादून से एल0एल0बी0 में सेकेंड डिवीजन में पास हुआ। लुधियाने में प्रैक्टिस शुरू की, उन्हीं दिनों बजरिये वी0पी0 कानून की किताबें हर महीने आ जाती थीं। मुझे लगता कि केवल की मरजी है तो लातादाद किताबें आ रही हैं ,लेकिन जल्द ही मुझे पता चल गया कि केवल मेहनत और दिलचस्पी कम लेता है, जिसका नतीजा सामने था और जिसे प्रैक्टिस अच्छी न चली, फिर वकालत में आठ दस घंटे के बाद तनखा मिल सकती हो, ऐसा जल्दी तो मुमकिन नहीं। उसने मोदी नगर में मोदी इण्डस्ट्रीज में ज्वाइंट सेक्रेटरी की जगह थी, जिसके लिए दरख्वास्त दे रखी थी, जो मंजूर हो गई और केवल वहाँ जम गया। फर्म अच्छी थी पोस्ट भी अच्छी थी मैं भी खुश था। तनख्वाह भी अच्छी थी साथ में क्वार्टर की अच्छी सहूलियत थी। जबकि सुभाष तनख्वाह की 750/- थी। मुझे कुछ हौसला बढ़ा, अगर केवल को प्रैक्टिस अच्छी नहीं लगी थी तो उसे सर्विस अच्छी मिल गई, जहाँ तरक्की के काफी चांस थे।
16 दिसम्बर 1973 को आशु का जन्म हुआ बहुत प्यारी लगी थी मुझे। काफी अर्से बाद ऐसा नन्हा फूल हमारे आंगन में खिला था, जिसके आने से मेरा दरजा भी बड़ा हो गया था। अब मैं दादा जी बन गया था। आशु के आने से अपने बड़ेपन का अहसास हुआ। अब मैंने रमेश के लिए लड़की देखने का इरादा किया। उसकी माता जी से उसने पूछा कि कमलेश की छोटी बहन मीना के बारे में तलवार साहब से बातचीत करें, लेकिन रमेश ने कहा कि दोनों लड़कियाँ एक घर से नहीं लेनी। बाद में जहाँ भी बातचीत चलती अधूरी रह जाती। भजन लाल ने मुझे कहा एक लड़की है, अगर आप देखना चाहें तो हमारे पड़ोस में रहते हैं। लड़की की मां हस्पताल में नर्स थी। अब उनकी बेटी भी उनके साथ हस्पताल के क्वार्टर्स में थी, बेवा जनानी थी। उससे मिले, लड़की देखी, लड़की हमें पसन्द आ गई। उनकी मां भी मुतमइन (संतुष्ट) थी, खुश थी। अब हुआ यह कि मुंह मीठा करेंगे, तुमने अपने सगे सम्बन्धिों से मशवरा करना हो, तो कर लेना। हमारे बारे में कूछ पूछना हो तो भी दरयाफ्त कर लेना। निश्चित तारीख होने पर उसकी मां बेहद खुश थी। हमें अपनी मन पसन्द लड़की मिल गई। इससे बढ़कर खुशी क्या हो सकती थी। कुछ देर बाद रमेश जाने लगा तो फिर उसे मिलने भी आई अच्छे रूप से सब कारज हो गया।
बाद में न जाने औरत के मन में कैसे विचार पैदा हुए, आज तक मुझे पता न चल सका। न वह लड़की और न ही उसकी मां बाद में मुझे मिले कि इरादा बदला क्यों? और उन लोगों ने रिश्ता तोड़ लिया। इसके बाद श्री नेतराम सर्राफ की लड़की थी उसे देखने दिल्ली गये। नेतराम सर्राफ मुझे अच्छी तरह जानता था काफी अमीर आदमी था। कमलेश, रमेश और हम दोनों मियाँ बीबी चारों लड़की देखने गये। मगर वो इन्सान तो बहुत बढ़िया थे शनासा (प्रेमी) भी थे, लेकिन लड़की रमेश को पसन्द न आई। रमेश ने कमलेश को कहा ’देवरानी देखी?’ बाद में अखबार में भी इश्तेहार दिया। काफी जगह देखभाल की, पर जो मन्जूरे खुदा नहीं था, तो कहीं बात सिरे न चढ़ सकी।
जिंदगी में सुख-दुख आते जाते रहते हैं. पिता और दादा बनने का अनुभव ही कुछ और होता है. लेखक ने अपनी जिम्मेदारियां बहुत अच्छी तरह निभाई थीं.
कहानी रोचक है। मुझे श्री गुरमेल जी के कमेंट्स देखकर यह पंक्तिया याद आई – “जिंदगी कैसी है पहेली कभी तो हंसाएं कभी ये रुलाये।” यह आज की कथा पर भी कुछ कुछ उपयुक्त प्रतीत होती हैं।
जिंदगी की उलझनें ,कभी ख़ुशी कभी गम .