आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 17)

गुलशन जी कपूर का कार्य

श्री गुलशन कपूर हमारे मंडलीय कार्यालय में अग्रिम विभाग (ऋण विभाग) में प्रबंधक थे। एक बार बातचीत में गुलशन जी को पता चला कि मैंने अपनी आत्मकथा लिखी है, तो उन्होंने मुझसे जिक्र किया कि उनके पिताजी ने भी अपनी आत्मकथा लिखी है। वे उसको पुस्तक के रूप में छपवाना चाहते थे। मैंने उसे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। वह कई टुकड़ों में थी। उन्होंने उसका एक टुकड़ा मुझे पढ़ने को दिया, तो पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने उनसे कहा कि मैं इसको पुस्तक का रूप दे दूँगा। वह हाथ के लिखे करीब 50-60 पृष्ठों में थी। मैंने उसे टाइप करने का कार्य सरस्वती शिशु मन्दिर के एक आचार्य श्री विनीत श्रीवास्तव से कराया और उसका पारिश्रमिक भी गुलशन जी से दिलवाया। फिर मैंने उसे अपने कम्प्यूटर पर सुधारा। उसमें प्रूफ की काफी गलतियाँ थीं, उनको ठीक किया। अन्त में कम्प्यूटर पर पुस्तक तैयार हो गयी। गुलशन जी उसकी केवल 20-25 प्रतियाँ छपवाना चाहते थे। मैंने उनसे कहा कि एक प्रति मैं कम्प्यूटर से छाप दूँगा। फिर उसकी फोटो काॅपी करा लेना और बाइंड करा लेना। वे इसके लिए प्रसन्नता से तैयार हो गये। तभी अचानक उनका स्थानांतरण चंडीगढ़ हो गया। तो मैंने उसकी साॅफ्टकाॅपी उनको एक फ्लाॅपी पर दे दी। वह पुस्तक ‘स्मृति के पंख’ शीर्षक से चंडीगढ़ में छपी और उसकी एक प्रति मुझे भी मिली।

यहाँ बता देना उचित होगा कि गुलशन जी कपूर के पिताजी श्री राधाकृष्ण कपूर अविभाजित भारत के सीमा प्रान्त के रहने वाले थे, जो अब पाकिस्तान में है। वहाँ उन्होंने अपनी अच्छी हैसियत बना ली थी। विभाजन के कारण उन्हें वह स्थान छोड़कर भारत आना पड़ा और लुधियाना में उन्होंने फलों की दुकान की, जो काफी कठिनाइयों के बाद सफल रही। वे क्रांतिकारी गतिविधियों में भी भाग लेते थे और वहाँ के एक क्रांतिकारी श्री भगतराम के अभिन्न सहयोगी थे। इन्हीं भगतराम जी ने नेताजी श्री सुभाष चन्द्र बोस को एक मुल्ला के वेष में भारत की सीमा पार करायी थी। इस सबकी कहानी बड़े ही मार्मिक शब्दों में उन्होंने लिखी है। अपने पारिवारिक संघर्षों और घटनाओं की कथा भी है। कई जगह पढ़ते-पढ़ते आँखें गीली हो जाती हैं।

मुझे प्रसन्नता है कि इस आत्मकथा के प्रकाशन के महत्वपूर्ण कार्य में मैं श्री गुलशन जी का सहयोगी हो सका।

(पादटीप : यह आत्मकथा ही  ‘स्मृति के पंख’ नाम से आजकल ‘जय विजय’ पर धारावाहिक प्रकाशित हो रही है.)

गंगा स्नान

यह हमारा सौभाग्य है कि मेरी पोस्टिंग वाराणसी और कानुपर जैसे स्थानों पर हुई, जहाँ गंगा स्नान की सुविधा उपलब्ध थी। कानपुर में यों तो गंगा जी शहर से होकर बहती हैं, परन्तु गंगा स्नान के लिए कानपुर के लोग प्रायः उससे कुछ ऊपर अर्थात् पश्चिम की ओर बिठूर नामक स्थान पर जाते हैं, जो कि एक तीर्थ (ब्रह्मावर्त) होने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नाना साहब पेशवा से जुड़ा हुआ ऐतिहासिक स्थान भी है। हम कई बार बिठूर गये थे, जो कानपुर से मात्र 13-14 किमी दूर है। कानपुर के रावतपुर रेलवे स्टेशन के पास से सिटी बसें सीधी बिठूर जाती हैं, जो घाट के बिल्कुल पास ही उतार देती हैं। जब भी हमारे रिश्तेदार कानपुर आते थे, तो हम उनके साथ बिठूर जरूर जाते थे। वहाँ मछलियों की बड़ी संख्या है। उनको चिवड़ा आदि खिलाने मेें आनन्द आता था।

हरिद्वार-मसूरी यात्रा

मैं पहले शिमला और नैनीताल घूम चुका था, परन्तु कभी हरिद्वार नहीं गया था। हरिद्वार जाने की मेरी बड़ी इच्छा थी। इसलिए हमने सन् 2001 की गर्मी की छुट्टियों में वहाँ जाने की योजना बना ली। हमारे मकान मालिक के पुत्र श्री अनिल कुमार सिंह भी अपनी पत्नी डा. रेणु और पुत्री कृति के साथ वहाँ चलने को तैयार हो गये और हमने हरिद्वार जाने और लौटने के लिए गाड़ियों में आरक्षण करा लिया। निर्धारित दिन हम ट्रेन में बैठकर हरिद्वार पहुँच गये।

वहाँ रेलवे स्टेशन पर एक विशेष ट्रेन देखकर अनिल जी चौंक गये। वास्तव में उनके सगे चाचा श्री आर.के. सिंह उस समय रेलवे के महाप्रबंधक थे और उनको विशेष ट्रेन मिली हुई थी। अनिल जी ने पूछताछ की तो पता चला कि वे किसी मीटिंग में शामिल होने हरिद्वार आये हुए हैं। उस समय वे मीटिंग में थे, इसलिए हमें थोड़ी देर इंतजार करना पड़ा। जब मीटिंग समाप्त हुई तो वे यह जानकर बहुत खुश हुए कि हम हरिद्वार-मसूरी घूमने आये हैं। उन्होंने हमारे ठहरने के लिए हरिद्वार रेलवे स्टेशन और बाद में देहरादून रेलवे स्टेशन पर व्यवस्था कर दी और कैंटीन वालों को भी ध्यान रखने का आदेश दे दिया। हम उनकी विशेष ट्रेन को भी भीतर से देखने गये। हमें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनके केबिन में वे सारी सुविधायें थीं, जो किसी अच्छे होटल में होती हैं।

हरिद्वार में हम खूब घूमे। दो बार गंगा स्नान किया। वहाँ के कई बड़े मंदिर भी देखे और मंसा देवी मंदिर तक ट्राॅली से गये। अगले दिन हम ऋषिकेश, मुनि की रेती, भारत माता मंदिर आदि स्थान देखने गये। वहाँ के लिए विशेष बसें चलती हैं, जो सारे स्थान घुमा देती हैं। उस दिन हमने लंच चोटीवाला नामक प्रसिद्ध रेस्तरां में लिया था। उस रेस्तरां के बाहर गेट पर ही एक मोटा-ताजा पंडा केवल धोती बाँधकर बैठा रहता है और उसके एक लम्बी चोटी ऊपर की ओर निकली होती है। उसे देखकर हमें और बच्चों को बड़ा मजा आया।

अगले दिन हमें मसूरी जाना था। पहले हम एक ट्रेन के ए.सी. कोच में मुफ्त में बैठकर देहरादून गये। वहाँ एक कमरा हमारे लिए खाली था। उसमें सामान रखकर हम देहरादून के पास ही सहस्रधारा नामक स्थान पर गये, वहाँ नहाये और थोड़ा घूमे। एक रात हमने देहरादून में ही बितायी। अगले दिन हम मसूरी के लिए तैयार हुए। हमने अपना कुछ सामान देहरादून में ही रख दिया, क्योंकि लौटने की ट्रेन वहीं से पकड़नी थी। फिर टैक्सी करके मसूरी गये। मसूरी में हमने कैमेल बैक रोड पर एक होटल लिया। होटल साफ-सुथरा था, परन्तु कमरे छोटे-छोटे ही थे। हमारे बजट में बड़ा कमरा लेने की गुंजायश नहीं थी। वैसे भी वहाँ हमें केवल दो रात सोना था। पहले दिन हम कैमेल बैक रोड पर घूमे। यह बहुत लहरदार सड़क है, जिस पर पैदल चलने में बहुत आनन्द आता है। यह लगभग 3-4 किमी लम्बी है और माल रोड के एक छोर से शुरू होकर दूसरी ओर माल रोड के दूसरे छोर पर निकलती है। वहाँ से हम बाजार में घूमे और रात का खाना खाया।

अगले दिन हमारा कार्यक्रम आसपास के स्थान देखने का था। मुख्य रूप से कैम्पटी फाॅल देखने की हमारी बहुत इच्छा थी। इसके लिए हमने टैक्सी बुक करा ली। टैक्सी वाले ने हमें सभी मुख्य स्थान दिखा दिये। हम कैम्पटी फाॅल में काफी देर तक नहाये। वहाँ झरने का पानी काफी ऊँचाई से मोटी धाराओं के रूप में गिरता है। उस धारा को अपनी पीठ पर गिराने में बड़ा अच्छा लगता है। मैंने काफी देर तक वह धारा अपनी पीठ पर डाली थी। इससे मुझे बहुत आराम मिला।

अगले दिन प्रातः ही हम एक टैक्सी में मसूरी से देहरादून आये और उसी दिन शाम को रेलगाड़ी में बैठकर अगले दिन कानपुर अपने घर पहुँच गये। हमारी यह यात्रा बहुत आनन्ददायक रही।

पुराने साहब की विदाई

हमारे तत्कालीन सहायक महाप्रबंधक श्री एस.एन.पी. सिंह बहुत ही सज्जन थे। वे मेरे ऊपर बहुत विश्वास करते थे और मेरी बात को जल्दी मान लेते थे। उनके ही समय में हमने लगभग 1 करोड़ के कम्प्यूटर खरीदे थे और सभी शाखाओं का कम्प्यूटरीकरण किया था। वह भी इस तरह कि किसी को कोई शिकायत नहीं हुई। वैसे छोटी-मोटी समस्यायें आती रहती थीं, जिनका समाधान ज्यादातर साॅफ्टवेयर कम्पनियाँ जैसे जेनिथ, नेक्स्ट स्टेप, वीरमती आदि अथवा हार्डवेयर कम्पनियाँ जैसे एच.सी.एल. और काॅम्पैक कर देती थीं। फिर भी कई बार हमें शाखाओं में जाना पड़ता था। यहाँ भी लोकल शाखाओं में प्रायः श्री के.सी. श्रीवास्तव चले जाते थे और बाहरी शाखाओं में मैं जाया करता था। कभी-कभी कु. तेजविन्दर कौर और श्रीमती रेणु सक्सेना को भी कानपुर की लोकल शाखाओं में भेजा जाता था।

नये मंडलीय कार्यालय में कार्य करते हुए हमें एक या डेढ़ वर्ष ही हुआ था कि हमारे स.म.प्र. महोदय श्री शिव नन्दन प्रसाद सिंह जी का स्थानांतरण हो गया। मुझे बहुत दुःख हुआ। वे बहुत ही हँसमुख और सज्जन थे। किसी को परेशानी नहीं होने देते थे और मंडल के सभी अधिकारी उनसे संतुष्ट थे। उनकी विदाई में लगभग सभी अधिकारी और कर्मचारी शामिल हुए। मैं उनकी विदाई के लिए एक कविता लिखकर ले गया था। समय कम था और विदाई करने वाले संगठन अनेक थे। इस कारण मुझे समय मिलना कठिन था, परन्तु मेरे बहुत आग्रह करने पर मुझे 2 मिनट का समय दे दिया गया और मैंने वह कविता सुनायी। यह सबको बहुत पसन्द आयी। उस गज़ल जैसी कविता को यहाँ दे रहा हूँ-
हमको अपने जीवन में कितने रहनुमां मिले।
लेकिन उनमें आप सभी से बिल्कुल जुदा मिले।
मिलने को तो यूँ भी रोज हजारों मिलते हैं,
किन्तु आपका मिलना जैसे अपना ही बड़ा मिले।
चुम्बक सा व्यक्तित्व आपका खींचा करता था,
जब भी जिससे जहाँ मिले मुस्काते सदा मिले।
पल में सुलझाते थे चाहे जैसी उलझन हो,
कांटों जैसे मार्ग भरे फूलों से सदा मिले।
विदा ले रहे आज आप, बस इतनी इच्छा है,
हाथ आपका सदा हमारे सिर पर रखा मिले।

यह विदाई समारोह शास्त्री नगर के एक कम्यूनिटी हाल में हुआ था, जिसमें कई बार हमारे बैंक के कार्यक्रम हुआ करते थे। यह स्थान कौशलपुरी से थोड़ा आगे मरियमपुर अस्पताल के निकट है, इसलिए मैं प्रायः सरलता से पैदल चला जाता था और लौट भी आता था।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 17)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई ,आज का अंक भी अच्छा लगा , ख़ास कर सिम्रिति के पंख के बारे में पड़ कर . अगर गुलशन जी अभी भी आप के संपर्क में हैं तो उन्हें मेरी ओर से बता देना कि उन के पिता जी की आतम कथा पड़ कर मुझे बहुत अच्छा लगा . आप की यात्रा बहुत अच्छी लगी किओंकि मेरी बचपन की पहली याद देहरादून अब बार बार पड़ने को मिल रही है . सब से ज़िआदा ख़ुशी मुझे इस बात की है कि आप भी मेरी तरह इन अंधविश्वासों को नहीं मानते . यों तो सारे भारत में अन्ध्विशास फैला हुआ , मुझे इस बात से भी गुस्सा आता है कि टीवी चैनल भी इस अंधविश्वास को फैलाने में आगे हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. गुलशन जी मेरे संपर्क में हैं. वे इस आत्म कथा की कड़ियाँ पढ़ते रहते हैं. फिर भी मैं आपका सन्देश उन तक अवश्य पहुंचा दूंगा.
      टीवी चैनलों का धंधा अन्धविश्वास के बल पर ही फैलता है और उनको अच्छी आमदनी भी होती है. निर्मल बाबा का कार्यक्रम विज्ञापन के रूप में आता है. चैनल को उनसे रोज एक करोड़ मिल जाते हैं. सबसे बड़ा रुपैया !

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आज की किश्त की सभी घटनाएँ पढ़ने पर बहुत प्रभावशाली, रोचक एवं ज्ञानवर्धक लगी। आपकी हरिद्वार, देहरादून व मसूरी यात्रा का भी आनंद लिया। यद्यपि यह सभी स्थान मेरे देखे हुवे हैं परन्तु यहाँ जाने पर मेरी स्थिति मात्र एक दर्शक की ही थी। मंदिरों को देख कर वहां अंधी श्रद्धा के अतिरिक्त कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे ही कारणों से समाज कमजोर हुआ था और देश गुलाम हुआ था। अतः अब मंदिरों से प्रायः दूर ही रहता हूँ। आज की रोचक एवं ज्ञानवर्धक क़िस्त के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर! मंदिरों में मुझे भी कोई श्रद्धा नहीं होती। न मैं कभी पूजा करता हूँ। मूर्तियों को नमन तक नहीं करता। लेकिन परिवार के साथ जाना पड़ता है। कभी कभी वहाँ मुफ़्त का प्रसाद भी मिल जाता है। उसको अवश्य उदरस्थ कर लेता हूँ। हा हा हा. …

      • मनमोहन कुमार आर्य

        बहुत सुन्दर। मेरा स्वभाव भी प्रायः आपके ही सामान है। हार्दिक धन्यवाद।

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