संस्मरण

मेरी कहानी – 40

हमारी  मिडल स्कूल की पढ़ाई आख़री दिनों तक आ पौहंची थी। हमारे टीचर साहेबान अपना सारा धियान हम पर लगाए हुए थे क्योंकि मिडल स्कूल अभी नया नया सरकारी हुआ था, इस लिए वोह चाहते थे कि हम सभी पास हो जाएँ। बहुत दफा हम मास्टर हरबंस सिंह के घर चले जाते। उन की शादी अब हो चुकी थी और उन की पत्नी भी गियानी के कोर्स के लिए तैयारियाँ कर रही थी। हरबंस सिंह का लहज़ा अब बहुत दोस्ताना हो गिया था और हमारे साथ दोस्तों जैसा विवहार ही करते थे। उस वक्त तो हम समझते नहीं थे लेकिन अब समझते हैं कि टीचर को अपने शिशिओं से प्रेम होता ही है और यह भी चाहते हैं कि उन के शिष्य अच्छे नंबर ले कर पास हों। हमारे स्कूल में  उस वक्त एक आम रवायत ही होती थी कि इम्तहान से कुछ हफ्ते पहले टीचर अपने शिशिओं को छुटी दे देते थे ताकि वोह इम्तिहान की तैयारी करने में जुट जाएँ जिस को लिबर्टी कहते थे। इम्तहान को बहुत कम दिन रह गए थे लेकिन हमें अभी लिबर्टी मिली नहीं थी। सभी लड़के लड़किआं आपस में बातें कर रहे थे और एक दूसरे को कह रहे थे कि “तू मास्टर जी से पूछ ,तू पूछ ” . फिर हम ने एक लड़के को जिस का नाम निर्मल था और उस को निम्मा कह कर बुलाते थे ,उस को कहा कि “तू कह “. निम्मा बहुत देर तक सोचता रहा और फिर हौसला करके मास्टर हरबंस सिंह को बोला ,”मास्टर जी लिबरटीआं नहीं देणीआं ?”. मास्टर हरबंस सिंह मुस्कराया और निमें  को बोला ” लिबरटीआं की हुंदीआं ओए निमिआ ?”. निम्मा हम सब  की ओर देखने लगा और शर्मा कर चुप हो गिया। कुछ देर बाद मास्टर हरबंस सिंह क्लास रूम से दुसरी तरफ चले गए और हम सब लड़के निम्में को छेड़ने लगे। जीत क्लास में सब से शरारती हुआ करता था। जीत अजीब सा मुंह बना कर निम्में की तरफ आया और बोला ,” मास्टर जी लिबरटीआं नहीं देणीआं ?”. सभी लड़के कभी जीत की तरफ देखते कभी निम्में की तरफ देख देख कर  हंस रहे थे। विचारा  निम्मा झेंप सा गिया था।

दूसरे दिन मास्टर हरबंस सिंह जी आये और आते ही बोले ,” जाओ और इम्तिहान की तैयारी करो “. और फिर वोह बताने लगे कि ” आप के इम्तिहान  का सेंटर जे जे हाई स्कूल फगवाड़ा होगा, और तुम सब की रिहाइश बाँसाँ वाला बाजार के साथ ही गौ शाळा रोड पर जंज घर (बरात घर ) के ऊपर एक बड़े कमरे में होगी। उस के साथ टोइलेट का भी इंतज़ाम है और तुम्हें दूर जाने की जरुरत नहीं पड़ेगी। एक हफ्ता तुम्हें रहना पड़ेगा, रोटी तुम यहां मर्ज़ी हो किसी ढाबे पर खा लिया करना ,अगर घर से सुबह खाने के लिए कुछ लाना हो तो भी ले आ सकते हैं। अब जा कर खूब तैयारी करो ,अगर कुछ पूछना हो तो मेरे घर आ जाया  करना। आज से यह स्कूल तुम्हारे लिए खत्म होगा। और एक बात और जंज घर में शरारतें मत करना ,नहीं तो वोह तुझे वहां से जाने को कह देंगे। लड़किओं के लिए एक घर में इंतज़ाम कर दिया गिया है , किसी ने कोई बात पूछनी हो तो  पूछ लो “. मास्टर हरबंस सिंह जी हमारी ओर देखने लगे। सभी चुप थे ,शायद वातावरण कुछ संजीदा हो गिया था। जीत अपनी जगह से उठा और बोला ,” मास्टर  जी ,रोटी तो खा ही लिया करेंगे ,किया हम दूध भी  पी सकते हैं  ? ” . सभी लड़के और मास्टर जी खिल खिला कर हंसने लगे।  हरबंस सिंह को हम ने कभी भी इतना हँसते नहीं देखा था। जीत की हंसाने की आदत अभी भी वैसी ही है, कुछ वर्ष पहले जब हम जालंधर उन के घर गए थे तो उस में  वोह बचपन का चुलबलापन तब भी वैसा ही था और मैट्रिक के दिनों में उस ने मेरी पगड़ी अपने सर पर रख कर हम दोनों ने फगवारे के अजीत स्टूडियो से फोटो खिचवाई थी और उस ने वोह फोटो शैल्फ पर रखी  हुई थी। मैंने वोह फोटो देख कर उस से पुछा था ,” यह फोटो कब की है ?”. वोह बोला ,” जरा धियान से देख ,मेरे सर पर तेरी पगड़ी है और यह हम ने अजीत स्टूडियो से खिचवाई थी “. मुझे सारा याद आ गिया और मुझे दुःख भी हुआ कि मैंने फोटो कहाँ रख दी थी, याद नहीं आया।
स्कूल के बाहर हम आ गए और एक दूसरे को पूछने लगे कि फगवारे कैसे जाना था ,कितने कपडे साथ ले जाने थे ,खाने के लिए किया किया  ले जाना था। स्कीमें बनने लगीं। फिर सभी अपने अपने घरों को चले गए। सभी को एक चिंता सी सता रही थी ,किया होगा ?कैसे पेपर होंगे ? जे जे हाई स्कूल में कैसे लोग होंगे ?. सभी के लिए यह एक नई बात थी। गाँव से शहर जाने की उकसाहट और झिजक का मिला जुला अंश था। बहुत लड़के मेरे घर आ जाते और हम इकठे हो कर बाहर खेतों में हमारे दोस्त बहादर के बेरीओं वाले कुएं पर चले जाते। कोई किसी खेत के किनारे किताब ले कर बैठ जाता , कोई कहीं। अब तो उन बातों पे हंसी ही आती है लेकिन उस वक्त हम बहुत सीरीयस थे। मुझे अपने आप पर भरोसा था ,फिर भी सारा सारा दिन पड़ता रहता ,रात को भी बिस्तरे में पड़ा किताब लिए पड़ता रहता और यह मेरी आदत अभी तक है। पता नहीं कितनी दफा किताबें दुहरा ली थीं फिर भी बार बार पड़ता रहता और कई दफा झुंझला जाता और किताब को टेबल पर रख देता। जैसे जैसे दिन नज़दीका आ रहे थे लड़कों का झमघटा मेरे घर लगा रहता और मुझ से पूछते रहते। कई दफा तो मैं तंग आ जाता। फगवारे रहने के लिए वहां खाने के लिए किसी ने ग़ज़रेला बनाया हुआ था ,किसी ने कलाकंद ,किसी ने लड्डू ,किसी ने बेसन।  जैसे तैसे करके वोह दिन आ गिया जब हम ने फगवारे के लिए रवाना होना था।
अपने अपने साइकलों  पर पिछली ओर बिस्तरे बांधे हुए थे जिस में हमारे कपडे भी थे  ,हैंडल के साथ एक ओर किताबें और दुसरी और मठाई की पीपीआं लटकाई हुई थीं। यह काफ्ला फगवारे की ओर चल पड़ा। इतने इकठे लड़के पहली दफा कहीं जा रहे थे। हँसते गाते ,कभी चुटकले सुनाते जा रहे थे। एक घंटे में हम फगवारे गौ शाळा रोड पर पौहंच गए और किसी से जंज घर के बारे में पूछने लगे। कुछ मिनटों बाद मास्टर हरबंस सिंह भी आ गिया और हमें जंज घर में ले गिया। हम ने अपने साइकल एक जगह खड़े किये और मास्टर हरबंस सिंह जी के पीछे पीछे सीडीओं पर चड़ते हुए ऊपर जाने लगे। मास्टर जी ने एक कमरे का ताला खोला। कमरा बहुत बड़ा था। हम सभी कमरे के भीतर चले गए और कमरे के इर्द गिर्द देखने लगे। मालूम होता था कि यह कमरा ब्रातिओं के ठहरने के लिए ही होगा। मास्टर जी ने हमें टॉयलेट भी दिखाई जो एक ऊंचे  बड़े चूल्हे जैसी थी और बहुत गन्दी थी। नहाने के लिए भी गुसलखाना दिखाया, लेकिन  टॉयलेट देख कर हमारा मन खराब हो गिया। गाँव में रहने वाले और खेतों में जाने वाले आज़ाद पंछी टॉयलेट वाले गंदे कमरे को देख कर मास्टर जी से बातें करने लगे। मास्टर जी बोले ” अगर आप ने खेतों में जाना है तो बहुत दूर जाना पड़ेगा “. जाओ ,जा कर अपना  अपना सामान  ले आओ , मास्टर जी बोले। सभी लड़के अपना अपना सामान नीचे से ले आने लगे। सभी ने अपनी अपनी जगह बना ली और नीचे बिस्तरे रख दिए और साथ ही अपनी अपनी मठाई की पीपीआं भी और किताबे भी। मठाई की पीपीओं को सभी ने छोटे छोटे ताले लगाये हुए थे ताकि रात को कोई मठाई पीपी में से निकाल न ले।
मास्टर जी चले गए और सुबह को आने का भरोसा दे दिया। सुबह को हमारा पहला परचा हिसाब का होना था ,इस लिए सभी लड़के अपने अपने बिस्तरे नीचे ही विछा  कर ,उन पर बैठ कर अपनी अपनी स्टडी में मसरूफ हो गए। सुबह को उठने की खातर दो अलार्म क्लॉक भी हम ले आये थे। टाइम सैट कर दिया गिया। पड़ते पड़ते कुछ लड़के जल्दी ही सो गए और खर्राटे  लगाने लगे। जब चार पांच लड़के ही रह गए तो जीत धीरे से बोला ,” आ जाओ हम इन की मठाई खाते हैं “. जीत ने जेब से एक तार निकाली और धीरे धीरे एक पीपी का ताला खोलने लगा। जल्दी ही ताला खुल गिया और हम उस लड़के का कलाकंद खाने लगे। जीत ने वोह पीपी उसी तरह तार से बंद कर दी और एक और लड़के की पीपी खोल ली जिस में गुलाब जामुन थे। सभी ने एक एक गुलाब जामुन खाई और जीत ने वोह पीपी भी बंद कर दी। जीत कहने लगा ,” आज के लिए इतना ही काफी है ,किसी को शुबह ना हो जाए “. इस के बाद हम भी सो गए।
सुबह को अलार्म बजते ही सब उठने लगे। जीत उठ कर टॉयलेट की ओर चले गिया। पांच मिनट बाद ही आ गिया और बोला ,” ओए जाओ ना , इतना गंद है कि लगता है सारा शहर यहां ही आता है “. लेकिन हम करते किया ,और कोई चारा भी नहीं था। जो भी जाता नाक को पकडे हुए आता और बाप रे बाप कहता चला आता। मैं अपने मुंह पर तौलिआ बाँध कर चले गिया। जब मैं गिया तो देखते ही दम घुटने लगा। सामने जो दिखाई दे रहा था बहुत घृणत दृश्य था। जल्दी जल्दी फारग हो कर मैं बाहर निकला और सामने एक लाला  जी हाथ में पानी का  डिब्बा लिए धोती लगाये खड़े थे। लाला जी मज़े से अंदर गए और जब बाहर आये तो वोह बिलकुल समान्य थे जैसे उन को कोई फरक ही ना हो। इसी तरह सभी लड़के एक एक करके गए और दुखी होते बाहर आ गए। अब अपनी अपनी पीपी में से मठाई निकाल कर  खाने लगे। कुछ लड़के बोल रहे थे ,” यार ! पीपीआं भरी हुई थीं , अब कुछ कम दिखाई देती हैं ,किया हुआ होगा ?”. जीत बोला ,” ओए जब गाँव से चले थे तो रास्ते में रफ रोड पर धीरे धीरे नीचे बैठ गई होंगी “. बात गई आई हो गई ,मास्टर हरबंस सिंह जी आ गए और हमें जे जे हाई स्कूल की तरफ ले जाने लगे। स्कूल दस  मिनट के फासले पर ही था। जोगिन्दर किताबों वाले की दूकान से कुछ आगे जा कर एक कोने में टूटी हुई एक दीवार में बने हुए गेट से जे जे स्कूल में दाखल हो गए। साथ ही फ़ुटबाल ग्राउंड थी। ग्राउंड में और स्कूलों से आये बच्चे भी अपने अपने टीचरों से बातें कर रहे थे। हमारी क्लास की लड़कीआं पहले ही एक औरत के साथ आई हुई थीं।
घंटी बज गई और हम सभी हाल में चले गए। यह हमारा पहला पहला ऐसा इम्तिहान देने का तजुर्बा था। अपने अपने डेस्कों पर हम बैठ गए। लिखने के लिए पेपर मिलने शुरू हो गए। कुछ देर बाद छपे हुए सवालों के पर्चे हमें दिए जाने लगे। जैसा कि मास्टर हरबंस सिंह जी ने हमें बताया हुआ था कि पहले सारा परचा पड़ कर दुबारा पड़ना और पहले आसान सवालों के हल करने शुरू करना। मैंने सारे सवाल पड़े और मुझे सभी बहुत आसान लगे। सारा परचा हल करके आधा घंटा पहले ही मैं बाहर आ गिया। जब मैं बाहर आया तो हरबंस सिंह एक बैंच पर बैठे थे। मेरे आते ही वोह उठ खड़े हुए और मुझे सवालों के बारे में पूछने लगे। मैंने जवाब दिया ,” मास्टर जी ! यह तो बहुत आसान थे “. धीरे धीरे सभी बाहर आ गए। लगता था सभी ठीक ही थे। हम सब कमरे की ओर जाने लगे। कमरे में पौहंच कर एक दूसरे को पूछने लगे ,” यह सवाल कैसे किया ,वोह कैसे किया ” करने के बाद एक बात तो स्पष्ट हो गई थी कि सभी विदियार्थी पर्सन ही थे। अब हम खाना खाने के लिए होटल ढूंढने लगे। रेलवे रोड पर प्रभात होटल में जा कर थाली का भाओ पुछा। एक थाली के पांच आने सुन कर हम ने यहां ही खाने का मन बना लिया। कहने की बात नहीं कि खाना हमें इतना स्वादिष्ट लगा कि सारा हफ्ता वहीँ खाने का मन बना लिया। यही नहीं बल्कि जब हम मैट्रिक में थे तो यहीं ही  खाना खाते रहे।
खाना खा कर जब बाहर निकले तो जीत कहने लगा ,” यार दुसरी बातें बाद में , पहले हर सुबह को खेतों में जाने का सोचो”. बात जीत की सही थी , जब हम जोगिन्दर किताबों वाले की दूकान के नज़दीक पुहंचे तो उस की दूकान के साथ ही एक बहुत बड़ी सब्ज़ी की दूकान थी , उस दुकानदार से पुछा तो वोह कहने लगा ,” ज़्यादा दूर नहीं है , बंगा रोड पर सीधे चले जाओ , खेत ही खेत मिलेंगे”. खेत देखने के लिए हम बंगा रोड पर चल पड़े। जैसा कि दुकानदार ने बताया था ,हमें बहुत दूर नहीं जाना पड़ा। खेतों की तस्सली करके हम वापस कमरे में अ गए और दूसरे पेपर की तैयारी में मसरूफ हो गए। याद नहीं दूसरे दिन कौन सा पेपर था लेकिन हम रात भर पड़ते रहे और सो गए। जब सुबह मैं उठा और अपनी गजरेले वाली पीपी खोली तो देख कर ही हैरान हो गिया क्योंकि पीपी आधी ही थी। मैंने पहले जीत से पुछा तो वोह बोला ,” तुझे वहम है , मेरे पास तो अपना ही  बहुत बेसन है ,मैं क्यों चोरी करूँ , ले ऐसा कर ,तू मुझ से बेसन ले ले “. अब यह बात साधाहरण सी हो गई थी और कोई इन बातों की परवाह न करता। दिन में हम कभी बाँसाँ वाले बाजार में घुमते रहते ,नाथ का सोढा पीते ,कभी बोहड़ के नीचे बैठे सरदार जी से छोले कुलचे खाते। दूर दूर तक हम शहर की सैर करते। हम फगवारे के वाक़फ़ कुछ ही दिनों में हो गए थे। शहर से हमारा लगाओ बड़ गिया था जो आगे चल कर हमारा दूसरा घर ही बन गिया था।
पता ही नहीं चला इतनी जल्दी यह इम्तिहान खत्म हो गए और हम वापस जाने की तैयारी में जुट गए। जब हम घर आये तो मन बहुत उदास था। लगता था ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा खत्म हो गिया था। अब हम सब इम्तिहान के नतीजों का इंतज़ार करने लगे और आगे मैट्रिक के लिए कौन सा स्कूल चुनना था , इस की सोच में डूब गए।
चलता …………..

7 thoughts on “मेरी कहानी – 40

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    हमेशा की तरह जिज्ञासा बनी रह गई
    बचपन बहुत खूबसूरत रहता है

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      बहन जी , धन्यवाद . बचपन को याद करके एक आनंद सा प्राप्त होता है .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, हमने भी कक्षा ८ की परीक्षा अपने गाँव से दूर बल्देव कसबे में जाकर दी थी. वहीँ रहना पड़ा था. आपकी क़िस्त से वहां की याद ताज़ा हो गयी.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , यह याद बहुत मजेदार है , इस दौरान और भी बहुत कुछ किया , जीत ने बहुत शरारतें कीं . वोह दिन !!!

  • Man Mohan Kumar Arya

    बहुत रोचक चित्रण किया है आदरणीय श्री गुरमेल जी आपने पुरानी घटनाओं का। आश्चर्य है कि आपकी स्मृति इस उम्र में भी इतनी अच्छी है। ईश्वर की कृपा है आप पर यह। मुझे यह तो पता है कि मैंने पांचवी तथा आठवी की परीक्षा किसी बाहर केंद्र पर जाकर दी थी परन्तु उस विद्यालय का नाम याद नहीं है। दशवी की परीक्षा का याद है। यह घर से लगभग १ किमी दूरी पर था। बारह्वी की भी ठीक से याद नहीं है। यह भी याद है कि हाई स्कूल की परीक्षा में केंद्र पर पहुँच कर हरबराहट में सड़क क्रॉस करते हुए किसी साइकिल या स्कूटर से टकरा गया था और माथे से खून बह रहा था। उसी हालत में परीक्षा दी थी। तीन घंटे तक खून बहता रहा था। आप जैसी स्मरण शक्ति ईश्वर सभी को दे। बहुत प्रसन्नता है इस बात की। आशा है कि आपने स्वामी श्रद्धानन्द जी लिखित ग्राम तलवन जिला जालंधर की जानकारी देख ली होगी। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , धन्यवाद . इस समरण शक्ति के कारण ही मुझे डिसेबिलिटी की कोई परवाह नहीं किओंकि मेरा धियान यह निऊज़ पेपर और पतार्काएं पड़ने में लगा रहता है . हाई सकूल के एग्जाम के वक्त आप का एक्सीडैंट हुआ था ,आप के लिए मुश्किल वक्त होगा .तलवण का पड़ कर अच्छा लगा .

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

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