स्मृति के पंख – 41
13 अप्रैल, 1974 बैसाखी का दिन था। मैं आशु को गुलाब की टहनियों से पानी छपका रहा था, रसोई में ही बैठा था कि एक सज्जन से आए। बातचीत के बाद उसकी लड़की देखने भी गए। जब आगे बातचीत हुई तो लगा संजोग बन गया है? शायद इसलिए कि एक उसकी बातें मुझे अच्छी लगीं, दूसरे वो ज्यादा अमीर घराना न था, लेकिन वहाँ भी बात नहीं बनी। जितना ज्यादा मैं जल्दी करना चाहता था, उतनी ही ज्यादा देर हो रही थी। मुझे लगा अभी और खोजना बाकी है। काशीपुर से एक ठेकेदार ने कहा। मैंने वहाँ अनन्तराम को लिखकर पूछा खुद नहीं गया, लेकिन उसका जवाब भी न मिला था। बाद में उसने लिखा कि रमेश आर्टिस्ट है। आर्ट की निगाह से वह लड़की उसकी जीवन साथी बनने के अहल नहीं।
बाद में जब बात कहीं सिरे न चढ़ी, तो एक दिन राज चोपड़ा की बेटी वरशी (वर्षी) की बातचीत चली, जिसके लिए रमेश ने हामी भर दी और मुझे लगा यहाँ रिश्ता हो जायेगा। अव्वल तो राज मेरी बहुत इज्जत करती है, दूसरा वर्षी को किसी वक्त गशी भी आ जाती थी, जिसका मुझे राज ने जिक्र किया था कि जवान बेटी है और ऐसी तकलीफ पाई है। मुझे ऐसे भी लगा कि राज बहन का फिक्र भी दूर हो जायेगी। और वरशी तो अपने बच्चों की तरह ही है, रमेश को भी राज ने अच्छी तरह देखा भाला है। हमने राज से बातचीत की और यह भी कह दिया कि रमेश की भी उसमें दिलचस्पी है। जिस पर मुझे सौ फीसदी यकीन था उसी राज ने मुझे ’हां‘ या ’न‘ का जवाब तक न दिया। शायद राज बहन का इरादा न हो। इसलिए हमने खयाल ही छोड़ दिया। इसके बाद जहाँ भाई और बहन का प्यार और दुलार रहा था उसमें भी कुछ कमीं होने लगी। फिर खतोकिताबत का सिलसिला भी रुक गया।
1973 में राकेश ने बी0एस0सी0 का इम्तिहान सैंकेंड डिवीजन में पास कर लिया। आगे एम0ए0 में दाखिला लिया लेकिन छोड़ दिया। होम्योपैथिक कालेज लुधियाना में दाखिला ले लिया। वहाँ कालिज में अपनी हमक्लास लड़की ऊषा से इसे प्रेम हो गया। अपनी माता जी और दादी जी से भी राकेश ने जिक्र किया। आखिर मुझे पता चला कि राकेश की ख्वाहिश है कि लड़की हमारे घर आया जाया करे, बजाए बाहर घूमने के घर पर मिलना अच्छा होगा। तब बात चीत तुम्हारे सामने और तुम्हारी मंजूरी से होनी थी। लेकिन उसकी सलाह मुझे अच्दी लगी हमने ऊषा को घर आने की इजाजत दे दी। हमारे घर वो हप्पी (सुमन) की सहेली बन कर आती। तब मुझे उसको नजदीक से जानने का मौका मिला। शुरू से ही वह हमें माता पिता का सम्मान देती थी और कमलेश की बड़ी बहन का। आहिस्ता आहिस्ता वो हमें अपनी हप्पी की तरह मुझे भी अच्छी लगने लगी, लगता वो घर की ही मेम्बर है।
आशु के जन्मदिन तक का उसे ख्याल रहता और उसके जन्मदिन उसके लिए जरूर कोई न कोई तोहफा लाती। मुझे अब राकेश की पसन्द खूब अच्छी लगी? काफी समय तक उसका आना जाना रहा। जब मेरे दिल ने फैसला कर लिया, तो मैंने राकेश को कहा मुझे अभी तेरी शादी की जल्दी नहीं है। रमेश है, फिर केवल, बाद में तेरा नम्बर है, इन्तजार तो करना पड़ेगा। 1975 में राकेश की सर्विस इण्डियन ओवरसीज बैंक में लग गई, तब कालेज उसने छोड़ दिया लेकिन ऊषा का हमारे घर बदस्तूर आना जाना बना रहा। तब मुझे कई जगहों से राकेश के बारे में लड़की देखने को कहा गया। लेकिन हमने तो अपनी बहू का इन्तखाब कर रक्खा था इसलिए खामोश रहा। मैंने राकेश को कह दिया बेटा तेरी पसन्द की मैं कद्र करता हूँ, फिर भी उसको मां बाप से बातचीत होनी चाहिए। दूसरे इस उम्र में बुद्धि कम होती है। कल तुम्हें कोई आदमी या खूबसूरत लड़की का बाप बैंक में मिल कर रिश्ता देने को कहे, तो ऐसा नहीं होना चाहिए।
रमेश के बारे में परेशानी बराबर बनी रही। एक दिन मैं अपने ससुराल में था, पड़ोस में उनके एक औरत थी, उसने मुझसे जिक्र किया कि मेरे भाई की लड़की है। मेरठ में रहते हैं। लड़की बी0ए0, बी0एड0 है, सुन्दर है। आप देख लो अगर संजोग होगा तो बात बन जायेगी और उसने अपने भाई को लिख दिया। दूसरे तीसरे दिन वो लड़की का फोटो लेकर आ गई। फोटो मुझे अच्छी लगी और मैंने रमेश को लिख दिया। रमेश के आने पर मैं रमेश और उसकी माता जी मेरठ गये। लड़की मुझे अच्छी लगी। खूबसूरत थी, कद काठ भी बराबर था, तालीम भी अच्छी थी। मैंने उन लोगों को यकीन दिला दिया लेकिन रमेश ने ‘हां’ नहीं किया। जहाँ संजोग हो वहाँ बात तो बनेगी ही। चाहे रमेश की मंजूरी नहीं थी, तो भी हमने उन्हें ‘हां’ कह दी। मैंने कहा रमेश तो कहीं ‘हां’ कहता ही नहीं, फैसला तो मुझे ही लेना होगा। दूसरा, उसकी उम्र 30 साल हो चुकी है। जबकि मेरी शादी 20 साल की उम्र में हो गई थी। और बच्चों के बारे भी सोचने लगा। ऐसे ख्याल आते हुए कि मेरी अपनी शादी भी तो मनपसन्द किसी लड़की से नहीं हो पाई थी। फिर क्या अच्छा है, क्या बुरा है। इस बारे में हमें नहीं सोचना, ऊपर वाला जो फैसला करता है उसके आगे हंसी खुशी सिर झुका लेना ही अक्लमंदी है। संसार में सब कुछ तो मन चाहा होता नहीं, जिन्दगी में तो कई समझौते करने पड़ते हैं। शादी के बाद सब ठीक हो जायेगा।
रमेश के बिना स्वीकार किये यह फैसला तो कर लिया परन्तु यह नहीं सोचा कि रमेश की जिन्दगी और मेरे जीवन में कितना अन्तर है। कहाँ अनाज के ढेर और कहाँ पढ़े लिखे शिक्षित। परन्तु होना वही था जो उसकी इच्छा थी, इस प्रकार सम्बन्ध हो गया। यद्यपि रमेश ने मेरा मन मैला कर दिया, परन्तु शिववीर मुझे इतनी ही अच्छी लगी थी, जितनी बड़ी बहू। अगर मेरी बडी बहू लक्ष्मी थी, तो शिववीर सरस्वती और इसी प्रकार उसके प्रति मेरे मन में प्यार भरा हुआ था। इसी बीच रमेश का एक पत्र मेरे पास आया जिसमें उसने अपनी पूरी नाराजगी के साथ लिखा था, जबकि रमेश से मुझे ऐसे पत्र की उम्मीद नहीं थी। मैंने समझा था कि वह स्वयं समझ जायेगा। ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है और जो होना होता है अवश्य ही होता है। परन्तु रमेश का पत्र प्राप्त करके मुझे कष्ट हुआ जबकि वह अपने को सही मानता था। रमेश ने अपनी पढ़ाई निरन्तर जारी रखी और उसे पढ़ाई के लिए दूसरी जगह सायंकाल की कक्षा में पढ़ना होता था, इसलिए वह चला जाता था और शाम को अध्ययन करता था। मैंने सन 1979 में अपनी शिक्षा पूरी कर ली, जबकि रमेश का अध्ययन जारी था जो उसने सन 1980 में पूरा किया।
रमेश की शादी 17 नवम्बर, 1976 को तय हो गयी। शादी में अभी देर थी। रमेश के ससुर जी मुझसे मिलने और शादी के विषय में बात करने आये। उनके साथ एक दूसरे सज्जन भी थे, उन्होंने दहेज में फर्नीचर वगैरह देने को कहा और अनुमान लगाया कितना खर्च होगा। अन्य बातें जो दो परिवारों में होती हैं सम्पन्न हुई। मुझे दो सूट एवं जूते रमेश की पसन्द से क्रय करने के लिए कहा। बारात के स्वागत का प्रबन्ध अति उत्तम था। बैण्ड भी काफी अच्छे स्तर का था। सजावट और स्वागत बारात का प्रबन्ध मुझे बहुत अच्छा लगा, बरातियों के लिए नाश्ता और बैठने का प्रबन्ध भी सराहनीय था। बारातों में कारों का प्रबन्ध भी था, माताजी और अन्य सम्बन्धी कार में बैठे भी। बारात की शोभायात्रा अच्छी लग रही थी। सब लोग अपने-अपने में प्रसन्न थे। विवाह बेदी व मण्डप बहुत अच्छा था, परन्तु दूसरे दिन जो विदाई का दिन था, वातावरण मुझे अत्यन्त अच्छा नहीं लगा। हम लोग नाश्ता करके विदा की तैयारी में थे, परन्तु उधर से कोई विदाई करने आगे नहीं आया। वहाँ एक बिस्तर वाला बडा बक्स और एक छोटा बक्स रखा था। ऐसी विदाई व रवानगी आज तक मैंने देखी न थी। मैं कमरे में गया। शिवबीर को हाथ पकडकर उठाया और कहा चलो, चलें। मुझे बहुत दुख हुआ। अगर कोई बात थी या किसी ने कुछ कहा था, तो मुझसे बात हो सकती थी तथा दोनों परिवार खुश रहकर प्रसन्नता से विदा होती और इस प्रकार कितना अच्छा लगता, परन्तु ऐसा हुआ नहीं।
भारतीय समाज में यह अन्धविश्वास है कि रिश्ते स्वर्ग से तय होकर आते हैं. वास्तविकता यह है कि रिश्ते अपने पारिवारिक और आर्थिक स्वार्थों के आधार पर तय किये जाते हैं. आज की पीढ़ी तो माँ बाप को रिश्ते तय करने का अधिकार भी नहीं देना चाहती. उनको केवल सूचना दे दी जाती है जिसे मानने के लिए वे बाध्य होते हैं.
विजय भाई , हम डींगें मारते रहते हैं कि हमारा सिस्टम बहुत अच्छा है जब कि पेरेंट्स बच्चों पर अपनी थोंपना चाहते हैं जिस से बहुत गड़बड़ी हो जाती है और बाद में किस्मत में ऐसा ही लिखा था कह कर तससली कर लेते हैं . इंडिया का तो मुझे इतना गियान नहीं कि आज किया हो रहा है लेकिन यहाँ बच्चे जात पात को मानते ही नहीं किओंकि सारे बच्चे पड़े लिखे हैं . यहाँ भी जितने रिश्ते माँ बाप ने अपनी मर्जी से तय किये ,उन में से आधे तलाक हो गए . हमारी जो औरतें यहाँ इंडिया से आईं थीं ,अभी तक वोह ही बातें मन में बिठाए हुए बैठी हैं जब कि बच्चे मानते ही नहीं . हमारे एक रिश्तेदार की बेटी की शादी दो हफ्ते तक हो रही है जिस का पहले एक साल बाद ही तलाक हो गिया था ,किओंकि वोह पैसे वाले हैं ,उन्होंने साठ सत्तर हजार पाऊंड खर्च किया था जो वेस्ट हो गिया , अब फिर उतना ही पैसा खर्च कर रहे हैं .मेरी पत्नी ने उन को बहुत समझाया कि शादी सिम्पल करो लेकिन मानते ही नहीं . मैंने अपने तीनों बच्चों को पहले ही कह दिया था कि बेटा अगर तुम्हारे मन जो भी हो बस हमें बता देना . कोई गोरा काला न हो , इंडियन हो ,किसी भी जाती का हो लेकिन यहाँ तक बात आई ही नहीं . अब मेरी बहु की छोटी बहन ने मुम्बई से आये हुए एक पटेल से शादी की है , दोनों खुश हैं ,लड़का हमारे घर भी आता है और हमारे बच्चे उस से घुल मिल गए हैं . हम लोग समय के साथ चलते नहीं बल्कि पचीस तीस साल पीछे रहते हैं . कोई रिश्ता सवर्ग से नहीं आता ,अगर आता होता तो इतने तलाक भी नहीं होते .
पूरी किश्त पढ़ी। रोचक है। अंत में विदाई के समय कुछ अप्रिय स्थिति बनी है। श्री राधा कृष्ण कपूर जी का व्यक्तित्व एक सज्जन पुरुष का है। वह आकर्षित करता है। श्री राधा कृष्ण जी एक कर्मयोगी कहे जा सकते हैं।