कविता

शो प्लांट

शहर के पेड -पौधों की,
शुरु होने से पहले ही ,
समाप्त हो जाती हैं जड़ें
सीमित दायरा है उनका ,
रहने और बढने का।
पहले आ गये थे शहर में,
उन्हें कुछ ज्यादा नसीब हो गया है।
आज कल आने वाले पौधों को,
खिड्की और बालकनी में,
गमलों में टांग दिया जाता है।
इतने ऊँचाई पर हैं कि दिखते नही।
दिख भी गये तो,
न कोई उल्लास न कोई उमंग।
बस अपनी जिन्दगी जिये जा रहे हैं।
एक मुठ्ठी खाद और,
एक चुल्लू पानी है उनका जीवन।
झूठी चमक है उअनकी पत्तियों में,
एक दो फूल-फल दिख जाते हैं कभी।
न खुश्बू न स्वाद।
क्या किसी को छाया देगें,
जो खुद अपने अस्तित्व को जूझ रहे हैं।
शो प्लांट बन कर रह गये हैं ये पौधे.?

अजय कुमार मिश्र “अजयश्री”

2 thoughts on “शो प्लांट

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    शो प्लांट से ग्लो प्लांट महसूस होने लगे तो समझो कि इन का भी एक अस्तित्व है , आखर हम ने यह प्लांट लगाये ही क्यों , ज़िदगी कलरफुल हो जाने के लिए ना !

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कविता है
    !

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