“पीपर की छैयां”
पीपर की छैयां में बरगद की आस लिए
ढूंढे सुहाग सुर्ख प्रीतम को पास लिए
रूपवान कलश धरे मोहक शरीर पर
पल में ठगाय गयी खुरपाती प्यास लिए ||
खूबसूरत नाजुक सी भोरी सी गोरी
अल्हण उफानी में पकड़ी गयी चोरी
सोलहवें बसंत में भुला गयी खुद को
बाढ़ में छलक गयी नदी सी निगोरी ||
शिक्षासंग अंकुश निरंकुश न होती
उमर नादानी में शिकायत न ढोती
कुछ तो दम है संस्कारी दालान में
वरना उसी विस्तर पे खुशी न सोती ||
संस्कार की मडैया न छोडो सखी
किराये की चादर न पौढों सखी
पूरबी हवा छोड़ पश्चिम न जाओं
संग अपनी रजाई ही ओढ़ो सखी ||
बहुत हों चुका अब छलना छलाना
नई नई शोहरत पर जीना जिलाना
नए-नए नक्श देख कहता है आईना
लानत, किसी गैर के खँडहर में रहना ||
महातम मिश्र
बहुत खूब !
सादर धन्यवाद विजय कुमार सिंघल जी
सादर धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी
bahot badiya ..
सादर धन्यवाद सम्माननिया प्रीती दक्ष जी, पटल पर आप के आगमन से मनोबल बढ़ा महोदया, आभार
महातम भाई , किया खूब लिखा है आप ने , यह जो आज पछम का उद्धार लिए हुए संस्कार हैं यह एक छलावा ही तो है .
बहुत बहुत धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी, जी मान्यवर हमें खूब छल रहा है पश्चिमी आवरण……