संस्मरण

मेरी कहानी – 41

हमारे इम्तिहान हो गए थे और हम गाँव में घूमते  रहते। जैसे अक्सर होता है, उम्र के बढ़ने के साथ ही  हमारा हर चीज़ को देखने का नजरिया ही बदल जाता है, हम गाँव के इर्द गिर्द घूमते और नए नए दोस्त बनाते। जीत भजन बहादर और मेरी दोस्ती बहुत घनिष्ट हो गई थी और हमें कुछ लोग चौकड़ी भी कह देते थे। जीत के मोहल्ले में दो दुकाने होती थी ,एक अरोड़े कश्मीरी की जो पाकिस्तान से उजड़ कर आया था और एक थी एक कंबोज की जिस का नाम था निरंजन सिंह। वैसे तो दुकान  निरंजन सिंह ही चलाता था लेकिन उस का पिता भी वहीँ ही होता था। जैसे गियान की दुकान  पर जाते थे इसी तरह निरंजन सिंह की दुकान  पर जाते रहते। हमें इस दुकान  में जाना इस लिए अच्छा लगता था कि  निरंजन सिंह बातें बहुत किया करता था और उस का बूढ़ा पिता तो उस से भी ज़्यादा बातें करता था। जब भी हम दूकान में जाते हम कोई नई खबर ले कर जाते और जान बूझ कर उस बज़ुर्ग को सुना कर कह देते। खबर सुन कर निरंजन सिंह का पिता अंदर से आ जाता और इस खबर के बारे में अपनी राय देने लगता, हम उस को जवाब देते रहते और वोह बज़ुर्ग कुछ गरम हो जाता जिस की बातों को ले कर हम बाद में खूब हँसते। एक दिन हम दुकान में गए और बोले, “बाबा ! अमरीकनों ने चाँद की फोटो खींच ली है, वोह कहते हैं कि चाँद एक धरती है “. झूठ बोलते हैं यह अमरीकन ! बाबा गरम हो गिया , अग़र ऐसी बात है तो वहां पड़ी बाबा नानक की खडांव की फोटो ले कर दिखाते , भाई बिधी चंद ने जो पूंछों से पकड़ पकड़ कर हाथिओं को घुमा घुमा कर ऊपर फेंका था ,उन  की हडिओं की फोटो दिखाते। बाबा बहुत देर तक बोलता रहा ,हम भी जवाब देते रहे। जब हम दूकान से बाहर आये तो बहुत देर तक हँसते रहे।

कभी कभी हम कोई धार्मिक कहानी कहने ही लगते कि बाबा बोलने लगता ” एक दिन राजा जन्मेजा कही जंगल में जा रहा था ” इस के बाद बाबा तब तक कहानी सुनाता रहता जब तक हम जमाईआं न लेने लगते। इसी तरह जीत की गली शुरू होते ही एक नए नए डाक्टर गोपाल सिंह ने सर्जरी खोली थी और गोपाल सिंह का एक लड़का जो हम से साल दो साल बड़ा होता था ,उस से दोस्ती हो गई थी। इस लड़के का नाम मुझे याद नहीं है लेकिन यह भी एक चैटर बौक्स ही था। जब गोपाल सिंह सर्जरी में न होता तो हम इस लड़के से बातें करते रहते। यह लड़का हमें दुआयों को मिक्स करके कोई शरबत बनाता और हमें पिलाता जो हमें अच्छा लगता लेकिन इतनी सोच हमारी नहीं थी कि यह मिक्स्चर नुक्सान भी दे सकता है। एक दिन हमें बोला ,” तुमने अपनी आठवीं की किताबें बेच दी हैं ? जो नई आठवीं की क्लास आने वाली है उन को बेच दो ,नहीं तो  तुम्हारी किताबें बेकार पडी रह जाएंगी “. उस की यह बात हमें अच्छी लगी।

गाँव में घूम घूम कर हम यह पता करने लगे कि कौन कौन लड़के लड़किआं आठवीं क्लास में दाखल हो रहे थे । जल्दी ही हमें पता चल गिया और हम किताबों पे जो कीमत लिखी होती थी उस से आधी कीमत पर बेच देते। इस काम से हमें अपने लिए भी स्कूल सिलैक्ट करने का विचार आने लगा। हाई स्कूल की पढ़ाई हम ने फगवारे  करनी थी और फगवारे में उस वक्त तीन हाई स्कूल होते थे ,जे जे हाई स्कूल जिस में हम ने इम्तिहान दिए थे ,दूसरा था आर्य हाई  स्कूल जो हुशिआर पुर रोड पर था और तीसरा था रामगढ़ीआ हाई स्कूल। भजन मैं और जीत ने रामगढ़ीआ हाई स्कूल पसंद किया लेकिन बहादर को अपने चाचा मास्टर गुरदयाल सिंह के कहने पर जे जे  हाई स्कूल लेना पड़ा। स्कूल जाने के लिए हमें बाइसिकलों की जरुरत थी। वैसे तो हमारे घर में एक साइकल था लेकिन इस की जरुरत दादा जी को पड़ती थी ,इस लिए नया बाइसिकल लेने के लिए मैंने दादा जी को कहा। एक दिन मैं और दादा जी फगवारे गए और एक साइकलों की दूकान में चले गए। दूकान वाले को दादा जी पहले से ही जानते थे। यह पलाही गाँव का रहने वाला शख्स था जिस का नाम शायद सोहन सिंह था। फगवारे में इस की दूकान सब से बड़ीआ होती थी। वहां बहुत से नए बाइसिकल रखे हुए थे जो आधे फिट ही  थे।

सोहन सिंह ने बहुत साइकल दिखाए और फिलिप साइकल रिकमेंड किया जो मुझे भी अछा लगा। फिर उस ने साइकल की कीमत २०० रूपए बताई। जब हम ने फैसला कर लिया तो सोहन सिंह जैसे सब दुकानदार करते हैं कहने लगा ,” साइकल के रिम यह ले लो , टायर यह बढ़िया हैं , सीट जिस को काठी बोलते थे ,यह अच्छी है , मड गार्ड यह ले लो , फ्लाई वील यह अच्छा है “, ऐसे ऐसे कहता गिया और दादा जी हाँ हाँ कहते गए। फिर सोहन सिंह ने साइकल फिट करना शुरू कर दिया। थोह्ड़ा सा फिट करता तो कोई गाहक साइकल ठीक कराने के लिए आ जाता। सोहन सिंह हमारा काम छोड़ उस का काम करना शुरू कर देता। कुछ देर बाद फिर हमारा काम शुरू कर देता। फिर कोई और गाहक आ जाता तो उस का काम शुरू कर देता। इस तरह शाम हो गई। जब साइकल तैयार हो गिया तो सोहन सिंह एक एक चीज़ का हिसाब करने लगा और बिल बनाया तकरीबन २५०  रूपए। यहां आ दादा जी गुस्से हो गए और बोले ,”तुम ने तो २००   रूपए कहा था ” . सोहन सिंह बोला ,” दादा ! तुम ने अच्छी कुआलिटी के पार्ट्स डलवाए हैं , २०० रूपए  तो बेसिक कीमत थी “. दादा जी बोले ,”पहले क्यों नहीं बताया ,मैं तो  २०० रूपए ही दूंगा “. इस बात पर कितनी देर तक बहस चलती  रही और आखिर में २४०  रूपए पर बात खत्म हुई।

साइकल ले कर हम गाँव को रवाना हो गए। मैं तो पुराना साइकल ही चलाता था , अब नया साइकल चला कर तो मुझे मज़ा ही  आने लगा। मैं बहुत खुश था। सारी रात मैं बहुत खुश रहा। सुबह होते ही साइकल ले कर जीत को दिखाने चल पड़ा। जब उस के घर पौहंचा तो वोह दरवाज़े पर ही खड़ा था। मुझे देखते ही बोला ,”यह हुई ना बात , भई तेरीआं तो मौजां ही मौजां “. फिर हम अंदर चले गए। जीत का साइकल भी खड़ा था जिस के फ्रेम को बहुत से टांके लगे हुए थे , फ्रेम जगह जगह पर वैलड हुआ हुआ था।  हंस कर और अपने साइकल की तरफ इशारा करके जीत बोला ,” यह मेरा घोडा है ,देखना तेरे से आगे जाएगा ” और हंसने लगा। जीत में बचपन से ही बहुत सिफ़तें थीं , घर की हालत इतनी अच्छी नहीं थी लेकिन वोह इतना खुश तबियत था की वोह अमीर खानदान का ही लगता और यह बात उस ने स्कूल छोड़ने के बाद बंबे जा कर साबत कर दी। जीत की बातें करने लगूं  तो बताने को बहुत वक्त लगेगा।

हमारे नतीजे आ गए थे और सभी पास हो गए थे। हमें कोई पता नहीं चला कि किस के नंबर कितने थे ,ना ही कोई सर्टिफिकेट दिया गिया। बस हमें बता दिया गिया कि जिस ने भी आगे पड़ना है फगवारे का कोई भी स्कूल जॉइन कर लें । भजन मैं और जीत एक दिन फगवारे रामगढ़ीआ स्कूल जो हदिआबाद रोड पर है  चले गए। वहां जा कर हम हैड क्लर्क को मिले जिस ने खुद ही हमारे फ़ार्म भरे  और सारे सब्जेक्ट्स के बारे में समझाया और हमारी चॉएस पूछी। हम तीनों ने साइंस और ड्राइंग सिलैक्ट की। मैट्रिक में चार सेक्शन होते थे ABCD , जीत और मुझे A  सेक्शन मिला ,भजन को D मिला ,मुझे याद नहीं कितनी देर बाद हम ने स्कूल जाना था लेकिन उसी दिन हमें सारे क्लास रूम दिखा दिए गए। हमारे लिए हर एक बात नई थी। स्कूल के गेट के बाहर कुछ खाने पीने की रेहड़ीआं थीं। एक थी लुभाया राम  की रेहड़ी ,जिस पर वोह आलू छोले समोसे टिक्कीआं बेचता था। बहादर ने जे जे हाई स्कूल जॉएन कर लिया था लेकिन हम सभी ने  गाँव से इक्कठे ही जाय करना था और इक्कठे ही आया करना था। सारी क्लास में से हम चारों ने ही फगवारे जाना था , दूसरे सब लड़के लड़किआं के लिए स्कूल हमेशा के लिए खत्म हो गिया। कभी कभी सोचता हूँ ,कितनी बुरी बात थी यह कि हमारे चारों के बगैर और कोई भी नहीं था जो आगे पड़ सके। एक लड़का रावल तो बहुत ही हुशिआर था ,कुछ और लड़के भी अच्छे थे लेकिन घरों की मजबूरी के कारण वोह आगे जा नहीं सके। बिमला की तो आठवीं पास करने के बाद शादी ही हो गई और कुछ साल बाद अपने पति के साथ इंग्लैण्ड के शहर कौवेन्ट्री में आ गई थी । जब मेरी शादी हुई थी तो बिमला के सात आठ साल के दो बेटे थे।

फिर वोह दिन भी आ गिया जब हम ने स्कूल जाना था , आम के आचार और साथ में एक प्याज़ के साथ माँ  ने तीन  पराठे पका कर एक डिब्बे में रख दिए थे। इसी तरह जीत और भजन ने भी पराठे ले लिए। यह बात लिखनी मैं भूलूंगा नहीं कि हर रोज हम पराठे ही ले कर  जाते थे और इन को मज़े से खाते थे। लुभाया राम  की रेहड़ी से छोले लेते और वहीँ बैंच पर बैठ कर खाते। हम चारों दोस्त साइकलों पर सवार हो कर चल पड़े। बातें करते हुए जा रहे थे। पहले बार्न गाँव आया फिर प्लाही। अब तो प्लाही से सीधी सड़क फगवारे को जाती है लेकिन उन दिनों हम को पहले प्लाही की नहर के साथ साथ चल कर  हुशिआर पुर रोड को जाना होता था ,फिर हुशिआर पुर रोड पर सीधे फगवाड़ा पौहंचना होता था। यह दो मील का चक्क्र हमें और लगाना पड़ता था। यूं तो इस की हमें कोई तकलीफ नहीं थी लेकिन बारश के दिनों में नहर के साथ साथ जाता यह रास्ता बहुत बुरा हो जाता था। इस रास्ते की मट्टी गीली हो कर साइकलों में फंस जाती थी, इतनी फंसती कि साइकल खड़ा ही हो जाता और साइकल ले कर पैदल चलते तो हमारे जूतों को  यह कीचड़ इतना लग जाता कि चलना मुश्किल हो जाता था। हम अपने पजामे उतार कर साइकल की टोकरी में रख लेते। फिर जब हम हुशिआर पुर रोड पर पौहंचते तो पहले साइकलों में धंसे  मड को  गार्डों में से  निकालते ,फिर बारश के पानी से भरे गढ़ों के पास जा कर साइकल साफ़ करते और पैडल  को घुमा घुमा कर मड गार्ड साफ़ करते। उस के बाद पजामे पहन कर स्कूल को रवाना होते। जवानी की उम्र ,थकावट कहाँ ?

हम स्कूल पौहंच गए और एक नई दुनिआ में प्रवेश  हो गए। यह स्कूल सिर्फ लड़कों के लिए ही था। शहर के लड़के तो काफी हुशिआर थे लेकिन हमारे लिए सब कुछ नया था। सारे टीचरों का टाइम टेबल हमें दे दिया गिया था। पहली क्लास A सेक्शन वाले कमरे में मास्टर विद्या प्रकाश के साथ लगी जो टीचर इन चार्ज भी था। यह हमारे लिए एक अच्छी शुरुआत थी क्योंकि अब भी जब कभी स्कूल को याद करता हूँ तो मास्टर विद्या प्रकाश की याद ही  ज़्यादा आती है,इसी लिए मैंने बहुत वर्ष पहले स्कूल की विडिओ ली थी और ख़ास कर इस ए सैक्शन वाले कमरे की जो वैसे ही था जैसे हमारे वक्त में था,वोह ही डैस्क वोह ही ब्लैकबोर्ड ।  विद्या प्रकाश ने जो लैक्चर हमें दिया वोह तो मुझे याद नहीं है लेकिन जो हम सभी को हंसाया वोह अभी तक याद है। मास्टर विद्या प्रकाश कहानीआं बहुत सुनाया करते थे। कहानीआं तो छोटी और साधारह्ण ही होती थीं लेकिन जो वोह ऊपर से मसाला लगाते थे उस से हमें हंसी बहुत आती थी. इसी लिए मैंने उस की ऐक कहानी जो चींटी और बींड़े की थी , बहुत जगह उस का इस्तेमाल किया। वोह कहानी मैंने रेडिओ को भी भेजी थी। लिखते वक्त मेरे सामने विद्या प्रकाश और उस का हँसता अंदाज़ ही सामने था। उस ने यह कहानी जोक बना के सुनाई थी। विद्या प्रकाश हमें इंग्लिश पढ़ाते थे और बहुत अच्छा पढ़ाते थे।

ए सैक्शन वाले  कमरे में जिस किसी सब्जैक्ट का पीरीयड होता उस को पढ़ाने वाला टीचर वहीँ आ जाता था , सिर्फ साइंस और ड्राइंग के पीरियड में ही हमें उन कमरों में  जाना पड़ता था। हिसाब हमें पहले कपूर सिंह पढ़ाते थे जो नाक में बोलते थे , इसी लिए उस को हम नुणा बोलते थे। उस की एक ख़ास बात को लेकर हम उस की मिमक्री करते रहते  थे। वोह   बच्चू को नाक में बचूं बोलते थे। बार बार बोलते ,”बचूं  समझ आई कि नहीं ?”. कपूर सिंह ने हमें कुछ महीने ही पढ़ाया ,इस के बाद मास्टर मूलराज जी आ गए। मूलराज जी छोटे कुछ मोटे और  छोटी छोटी ऑंखें , सर के वालों के बगैर  अजीब से दिखाई देते थे लेकिन दिल के बहुत अच्छे और सब से अच्छी बात वोह पढ़ाते बहुत अच्छा थे। पढ़ाते वक्त कभी कभी बोल देते ,” यह सवाल दिली यूनिवर्सिटी में १९४८ में आया था”. कभी बोल देते ” यह सवाल पंजाब यूनिवर्सिटी में आया था “. मैट्रिक के फाइनल से दो महीने पहले मैं और जीत ने मूलराज जी से टयूशन भी ली थी और हम उस के घर जाय करते थे जो बाँसाँ वाले बाजार के नज़दीक ही एक तंग गली में था। उस की बीवी बहुत अच्छी थी और एक सात आठ वर्ष का उन का बेटा था जिस का नाम चमन था। वोह हम से बीस रूपए महीना ट्यूशन फी लेते थे। उस की बीवी चाय के बगैर हमें जाने ना देती। घर का वातावरण बहुत अच्छा होता था। उस की टयूशन  से हमें बहुत फायदा हुआ क्योंकि फाइनल में हिसाब में मुझे बहुत अच्छे मार्क्स मिले और जीत भी अच्छी तरह पास हो गिया। मूलराज की यह दी हुई टयूशन भी एक यादगार बन कर रह गई है।

चलता। ……………..

7 thoughts on “मेरी कहानी – 41

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की आत्मकथा पूरी पढ़ी। साइकिल की खरीददारी, नए स्कूल में प्रवेश व मित्रो से मिलना जुलना व हंसी मजाक की बाते पढ़कर आपके खुशमिजाज होने का अनुभव किया। आज जब मैं अपनी पुरानी जिंदगी के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने पढाई में बहुत लापरवाही व उपेक्षा की। पढाई का जो मतलब व महत्त्व आज अनुभव किया व जाना वह विद्यार्थीजीवन में समझ में नहीं आया था। काश आ जाता तो फिर बात कुछ और ही होती। लेकिन ईश्वर की कृपा है कि किन्ही पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से मुझे वैदिक साहित्य को पढ़ने का अवसर मिला जिससे संतुष्टि हुई परन्तु इस संस्कृत का पूर्ण ज्ञान न होने के कारन पूरा आनंद नहीं ले सका। महर्षि दयानंद ने लिखा है कि संस्कृत विद्या में ईश्वर की ही तरह अनंत आनंद है। शायद अगला जन्म किसी संस्कृत प्रेमी माता पिता के यहाँ परमात्मा प्रदान कर दे? हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , आप बहुत विद्वान हैं . किओंकि शुरू से मेरे विचार कुछ इलग्ग से होने के कारण मैं आप के लेखों को अच्छी तरह समझ नहीं पाता लेकिन इस का यह मतलब हरगिज़ नहीं कि मैं आप को इलग्ग से देखूं . आप की सोच बहुत धार्मिक होने के कारण बहुत बातें मैं पूरी लगन से नहीं पड़ता लेकिन मैं आप की कदर बहुत करता हूँ . विदिआर्थी जीवन में उस वक्त तो हमें भी कुछ नहीं पता होता था कि हम ने किया करना था और ना ही कोई गाइदैंस थी . एक बात है कि हम ने बचपन और सकूल कालज के दिन बहुत अछे बिताये, इसी लिए उन दिनों की याद एक सुनैहरी याद ही है . मनमोहन जी , आप जो कर रहे हैं उस की अब देश को बहुत जरुरत है किओंकि अंधविश्वासों के कारण हिन्दू धर्म श्रिंक हो रहा है . दो तीन दिन ही हुए ,मैंने नभाटा में खबर पड़ी थी कि अगले २५० सालों में भारत में हिन्दू आधे रह जायेंगे . कारण मैं समझ सकता हूँ कि जाकर नाएक जैसे हुशिआर लोग बड़े हुशिआर ढंग से इस्लाम को बड़ा रहे हैं और दुःख की बात यह है कि हिन्दुओं में ऐसा कोई है नहीं ,सिर्फ ठगने वाले बाबे ही रह गए हैं . यह जात पात का कोहड भी हिन्दू धर्म को श्रिंक कर रहा है .

      • Man Mohan Kumar Arya

        हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने प्रशंसा के जो शब्द लिखे हैं उसके लिए आपका हृदय से आभार एवं घन्यवाद। वस्तुतः मैं एक साधारण व्यक्ति हूं। शिक्षा भी अधिक अर्जित नहीं की। स्वाध्याय करने के बाद जो अन्तःप्रेरणा होती है उसे निष्पक्ष रूप से लिखने का प्रयास करता हूं। मुझ साधारण व्यक्ति को इस कार्य से जो आत्मसन्तोष हुआ व सम्मान मिला है उससे मैं अभिभूत हूं। आप मेरे बुजुर्ग, आदरणीय एवं पूज्य हैं। आपने नभाटा में जो खबर पढ़ी है उसका अनुमान मुझे व हमारे विद्वानों को विगत लम्बे समय से है परन्तु परिस्थितियों व साधनों की अल्पता के कारण सीमित कार्य ही हो पाता है। हमारे एक युवा विद्वान डा. विवेक आर्य जी इस विषय में कुछ अधिक लिखते हैं। उनके लेख जयविजय पर भी उपलब्ध हैं। मैंने आज हि जाति-पांति विषय पर एक लेख जयविजय पर अपलोड किया है जो आपको दृष्टिगोचर होगा। ईश्वर इस संसार व ब्रह्माण्ड का रचयिता व संचालक है। वह सर्वशक्तिमान है। उसने सृष्टि के आरम्भ में वेदों को प्रवृत्त कर धर्म को प्रचलित किया था। इन सब कार्यों में उनकी भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। हम जो कर सकते हैं हमें पूरी सिद्दत से करना चाहिये। एक भजन की पंक्तियां है – ‘‘अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में, है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में’’। आपका बहुत बहुत आभार एवं धन्यववाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा , विजय भाई ,यह यादें ही ऐसी हैं कि अगर इन को ना लिखूं तो मुझे मेरे साथ ही बेइंसाफी होगी. कभी कभी इतहास की किताबें पड़ते हैं तो उस ज़माने को सोच कर हैरान हो जाते हैं . यह हमारी पिछले पचास साल की जिंदगी भी एक इतहास ही है जो मुझ खुद को ही हैरान कर देती है किओंकि यह बीता हुआ ज़माना अब है ही नहीं .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब, भाई साहब. आपकी हर क़िस्त रोचक होती है. यह भी मजेदार है.

  • महातम मिश्र

    आप के बचपन की कहानी को पढकर और सायकल की रवानगी देखकर मै भी अपने गाँव की एक मात्र दुकान पर पहुँच गया और कुछ कम सुनने वाले सेठ को जस का तस बोरी पर बैठे हुए पाया, काश आज गांवों की दुकानों पर सामान के साथ पुरानी कहानी फिर से मुफ्त में मिलनी शुरू हों जाती तो हमारे संस्कारों की तहरीर जुबानी हों जाती पर आज तो न जाने कहाँ कहाँ से बेसिर पैर की बातें और जहरीले समान से दुकानों में खराब गंध ही आ रही है और बच्चों को न जाने क्या क्या खिला रहीं हैं | जहाँ किताबे आधे दामों पर किसी और को शिक्षा देती थी, जहाँ अपनत्व के धनी लोंग रहते थे और जहाँ निगाहों में मान- सम्मान हुआ करता था वहीं आज शिकवे और शिकायत का सतरंजी खेल गुमराही का सबब बाना हुआ है श्री गुरमेल सिंह भमरा जी, आप ने इसका संज्ञान लिया इसके लिए सादर धन्यवाद और हम लोगों को गाँव की शैर करायी इसके लिए हार्दिक आभार मान्यवर……

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      महातम मिश्र जी भाई , कुछ लोग भावुक होते हैं , उन में से मैं भी हूँ . यह मेरा ५० साल पुराना इतहास है . अब तो मुझे इंडिया आये १२ साल हो गए हैं लेकिन जब मैं आया करता था तो हर वक्त इतनी चेंज देखता था कि मुझे वोह पियार मुहबत दिखाई ही नहीं देता था . आज शो अप्प बहुत बड गिया है , दिली लगाव बहुत कम हो गिया है . जब भी मैं इंडिया आता था तो एक मास्टर जी अभी इस दुनीआं में थे और मैं हमेशा उन के चरण स्पर्श करने के लिए उन के घर जाया करता था . सभी टीचर गुरु सामान ही होते थे . वोह समय था कि लड़के लड़किओं को बुला नहीं सकते थे . अगर कोई लड़का हौसला करके हैलो कह देता था तो उस की शामत आ जाती थी लेकिन आज जो हो रहा है मुझे लिखने जरुरत नहीं . बजुर्गों की इज़त बहुत होती थी , किसान कोई भी सिऊसाइद नहीं करता था , जिंदगी सिम्पल थी और लोग एक दुसरे की मदद करते थे ,एक दुसरे की इज़त के सांझी होते थे . आज लोग धन से अमीर जरुर हो गए हैं लेकिन कर्म से फ़कीर हो गए हैं .

Comments are closed.