कविता

क्या कभी सोचा?/नवगीत

 

क्या कभी सोचा कि चाहें,

गीत क्या विद्वान से?

 

आजकल ये सुप्त रहते

हैं अँधेरों में सिमटकर

क्योंकि मुखड़ा देख, इनका

जन चले जाते पलटकर

 

और कर जाते विभूषित

नित नए उपमान से

 

अंग कोई भंग करता

कोई रस ही चूस लेता

दाद खुद को दे सृजक फिर

नव-सृजन का नाम देता

 

गीत अदना सा भला कैसे

भिड़े इंसान से

 

भाव, भाषा, छंद, रस-लय

साथ सब ये गीत माँगें

ज्यों तरंगित हो उठें मन

और तन के रोम जागें

 

नव-पुरा का हो मिलन पर

शब्द हों आसान से

 

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- [email protected]

2 thoughts on “क्या कभी सोचा?/नवगीत

  • महातम मिश्र

    बहुत बढियां सम्माननिया कल्पना रामानी जी, बहुत सही कहाँ आप ने, गीत अदना सा भला कैसे भिड़े इन्शान से, धन्य है आप की कल्पनाशीलता……आभार महोदया…..

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! नवगीत अच्छा लगा !

Comments are closed.