शनिवार के इंतज़ार में
अकेले रात भर एक अजनबी शहर में
मेरी याद तेरे सिरहाने बैठकर
तुझे जगाये रखती है……..
हर पल ,पल पल
करवट बदल कर
खामोश बंद निगाहों से
ताका करते हो अपने सिरहाने
कुछ
कहते भी नही बनता
चुप रहते भी नही बनता
दिल में
उठती है सो सो आहे
अब उस से कैसे कहे……..
बस सोचा करते हो …..
मेरी देह गंध.जब तारो ताज़ा सी
तुम्हे अपनी साँसोंमें
महसूस होती है
मेरी हर अदा एक चलचित्र सी
तेरी आँखों से गुजरती है
मन की गहराइयो तक सोचते तुम
तुम तब मुझे पा लेते
हो
अपने अन्दर तक
मुझ पे चाह
जाते हो
और बेसुध होकर सो जाते हो
अब तुम ही सोचो
तुम्हारे इस शहर में
रात भर अकेले में
कैसे रात भर ताका करती हु
तुम्हारा सिरहाना
सिर्फ़ शनिवार क इन्तजार में……
नीलिमा शर्मा (निविया)
sundar kavita.. intzaar ko achche se varnit kiya aapne..
बहुत सुन्दर कविता !