आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 20)
विश्व संवाद केन्द्र से जुड़ाव
लिखने-पढ़ने में मेरी प्रारम्भ से ही रुचि रही है और राजनीतिक घटनाओं में भी। मैं प्रायः प्रारम्भ से ही समाचार पत्रों में सम्पादक के नाम पत्र लिखा करता था। पहले खेल-कूद, क्रिकेट आदि पर लिखता था और फिर सामाजिक विषयों, राजनीति आदि पर भी लिखने लगा। परन्तु यह सब रहा शौकिया ही। कभी इसको गम्भीरता से नहीं लिया। केवल रामजन्मभूमि मन्दिर आन्दोलन के समय ही मैं नियमित लिखता था और प्रत्येक पत्र एक साथ 20-25 समाचार पत्रों में भेजता था। इनमें से बहुत से छाप भी देते थे और मित्रों की कृपा से कुछ की कतरनें भी मेरे पास पहुँच जाती थीं। राम जन्मभूमि मन्दिर आन्दोलन ठण्डा पड़ने पर उसका सिलसिला भी समाप्त हो गया। इसके बारे में मैं अपनी आत्मकथा के भाग-2 (दो नम्बर का आदमी) में विस्तार से लिख चुका हूँ।
कानपुर आने पर समाचार पत्रों में छुटपुट पत्र लिखने का काम चलता रहा। कई उनमें से छप भी जाते थे। लेकिन नियमित रूप से राजनैतिक विषयों पर लिखना कानपुर में ही प्रारम्भ हुआ। वास्तव में संघ ने अपने प्रचार कार्य के लिए कई प्रमुख शहरों में विश्व संवाद केन्द्र खोले थे। उ.प्र. में लखनऊ के बाद कानपुर में भी ऐसा केन्द्र गाँधी नगर में खोला गया, जो जियामऊ मार्केट के पास पी.रोड. से थोड़ा हटकर था। यह मेरे तत्कालीन निवास स्थान अशोक नगर से लगभग 1 या सवा किमी दूर पड़ता था। इसलिए कभी भी समय होने पर मैं पैदल ही चला जाता था। इसकी प्रमुख गतिविधि थी आस-पास के क्षेत्र के समाचार एकत्र करना और उनको बुलेटिन के रूप में रूप में कम्प्यूटर से तैयार करके छपवाना और भेजना।
इस कार्य के लिए वहाँ एक पूर्णकालिक प्रचारक नियुक्त किये गये थे, जिनका नाम है श्री राजेन्द्र सक्सेना। वे बाँदा की ओर के रहने वाले हैं और देखने में बड़ी-बड़ी मूँछों के कारण नेता लगते हैं। उनसे मेरा परिचय डा. अशोक वार्ष्णेय, जो उस समय राँची में झारखण्ड प्रान्त के सह प्रान्त प्रचारक का दायित्व निभा रहे थे, के निर्देश पर मुझसे कराया गया, क्योंकि उन्हें मालूम था कि मैं कम्प्यूटर विशेषज्ञ होने के साथ-साथ लिखने-पढ़ने और सम्पादन में भी रुचि रखता हूँ। कानपुर के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक मा. नवल किशोर जी से भी तभी मेरा घनिष्ट परिचय हुआ।
धीरे-धीरे विश्व संवाद केन्द्र का कार्य बढ़ने लगा। मैं बुलेटिन तो नियमित निकालता ही था, पत्र लेखक मंच में भी सक्रिय भाग लेता था। यह मंच हमने विभिन्न समाचार पत्रों में सम्पादक के नाम पत्र लिखकर अपने पक्ष में वातावरण बनाने के लिए बनाया था। प्रारम्भ में कुछ ही कार्यकर्ता इसके सदस्य थे, लेकिन धीरे-धीरे इसकी संख्या बढ़ने लगी और 30-40 को पार कर गई, जिनमें कई महिलायें भी थीं। इसकी मासिक बैठकें नियमित हुआ करती थीं, जिनमें सामयिक विषयों पर चर्चा की जाती थी। कभी-कभी कवि गोष्ठी भी आयोजित की जाती थी, जिनमें मैं भी अपनी एकाध कविता सुना देता था। हमारे एक श्रेष्ठ कार्यकर्ता थे श्री सलिल जी, जो डाक-तार विभाग में बाबू थे। वे भी कवितायें करते थे और ऐसी गोष्ठियों के आयोजक थे।
एक बार हमने विश्व संवाद केन्द्र की वार्षिक स्मारिका के प्रकाशन की योजना बनायी। इस स्मारिका का मुख्य विषय था- कानपुर और आस-पास के धार्मिक स्थान। इस स्मारिका के लिए मा. राजेन्द्र जी सक्सेना ने बहुत मेहनत की। उनका कार्य था अपने परिचय और विचार परिवार के लोगों से विज्ञापन एकत्र करना। उन्होंने शीघ्र ही लगभग डेढ़ लाख रुपये के विज्ञापन एकत्र कर दिये। स्मारिका के सम्पादन का दायित्व श्री रमेश जी शर्मा को दिया गया था, जो किसी विद्यालय में प्राध्यापक थे और पनकी में रहते थे। मुझे इसके सहसम्पादन का दायित्व दिया गया। शर्मा जी क्योंकि दूर रहते थे, इसलिए वे इस कार्य में समय नहीं दे पाते थे। परिणामस्वरूप इस स्मारिका का लगभग सारा सम्पादन कार्य मैंने ही किया। शर्मा जी ने केवल सम्पादकीय ही लिखा था। वे तो कह रहे थे कि सम्पादकीय भी तुम ही लिख दो, लेकिन मैंने दृढ़ता से मना कर दिया और उनसे ही लिखवाया। कुछ विज्ञापनों के साथ प्रकाशन के लिए लेख और चित्र भी आते थे। कई लेख प्रायः ऐसे होते थे जिनकी एक लाइन भी छापने लायक नहीं होती थी। लेकिन मजबूरीवश हम उनको छोटा करके एक या डेढ़ पेज में लगा दिया करते थे।
जब स्मारिका छपकर आयी तो सभी बहुत संतुष्ट हुए। इसका मुखपृष्ठ भी हमने काफी सोच-विचार कर तय किया था। इस स्मारिका का विमोचन कानपुर में प्रचारकों के एक कार्यक्रम के समय कराया गया। विमोचन संघ के तत्कालीन सह सरकार्यवाह मा. मदन दास जी के कर कमलों से हुआ। संयोग से स्मारिका के मुख्य सम्पादक श्री रमेश जी शर्मा इस कार्यक्रम में भी नहीं आ सके। फलतः मुझे ही उनकी ओर से 2-3 मिनट बोलना पड़ा। मैंने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में स्मारिका में सहयोग करने वाले सभी कार्यकर्ताओं और विज्ञापनदाताओं को धन्यवाद दिया तथा मा. सह सरकार्यवाह जी से विमोचन करने का निवेदन किया। सबने मेरे वक्तव्य की बहुत प्रशंसा की।
अगले वर्ष फिर स्मारिका का प्रकाशन करने की योजना बनी। मा. नवल किशोर जी ने मुझसे पूछा कि आप सम्पादक बनेंगे? मैंने कहा कि आप सम्पादक किसी को भी बना दीजिए, पर काम मैं कर लूँगा। उन्होंने कहा कि अगर काम आप करेंगे, तो नाम भी आपका ही रहेगा। मैंने कह दिया कि ‘जो आज्ञा।’ इस पर उन्होंने पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी। इस बार की स्मारिका का मुख्य विषय था- स्वतंत्रता संग्राम में कानुपर और आस-पास के क्षेत्र के लोगों का योगदान। इस स्मारिका के लिए विज्ञापन तो मा. राजेन्द्र जी ने ही एकत्र किये, लेकिन सामग्री एकत्र करने में मैंने बहुत मेहनत की। इससे स्मारिका बहुत ही अच्छी निकली। इसमें पिछली स्मारिका के विमोचन के चित्र भी छापे गये थे। इस बार फिर इसका विमोचन हुआ, लेकिन अलग से कार्यक्रम आयोजित करके।
विश्व संवाद केन्द्र की गतिविधियाँ और भी थीं। कई बार हमने विभिन्न विषयों पर व्याख्यान मालायें भी आयोजित कीं। दो बार मैं भी एक वक्ता के रूप में व्याख्यान मालाओं में शामिल हुआ था। ये व्याख्यान मालायें जवाहर नगर में एक इंटर कालेज के सभागार में हुई थीं। उसके प्रधानाचार्य श्री राम मिलन सिंह जी बहुत उत्साह से इनका आयोजन करते थे।
एक बार हमने तीन दिवसीय पत्रकारिता कार्यशाला का आयोजन किया। इसमें शिक्षकों के रूप में मुख्यतः पत्रकारों को बुलाया गया था, ताकि वे नये या संभावित पत्रकारों को पत्रकारिता का प्रारम्भिक ज्ञान प्रदान करें। आशा थी कि इससे प्रोत्साहित होकर कुछ लोग पत्रकारिता की ओर खिंचेंगे और नये पत्रकार निकलेंगे। इस कार्यशाला में एक दिन मुझे भी सहभागियों को कम्प्यूटर का प्रारम्भिक ज्ञान प्रदान करने के लिए बुलाया गया। मुझे लगभग डेढ़ घंटे का समय मिला, जिसमें मैंने उन्हें कम्प्यूटर की कार्यप्रणाली बहुत सरल शब्दों में समझायी। सहभागियों ने इसको बहुत पसन्द किया।
मकान मालिक का देहान्त
हमारे मकान मालिक श्री एन.के. सिंह मुँह के कैंसर से पीड़ित थे। वे तम्बाकू-गुटखा बहुत खाते थे। इससे कैंसर हो गया था। उनका इलाज बहुत दिनों तक कानपुर के लाला लाजपतराय अस्पताल में चला था, जिसे बोलचाल में हैलट कहते हैं। वे लगभग ठीक हो गये थे। जनवरी 2003 में मुझे एक बार बैंक के कार्य से आगरा जाना पड़ा। वहीं मुझे उनका अचानक देहान्त होने का समाचार मिला। उनकी उम्र अधिक नहीं थी, केवल 4-5 साल पहले ही रिटायर हुए थे। जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूँ उनके पुत्र भी शराब के व्यसनी थे और एक बार उनमें बहुत झगड़ा भी हुआ था। मकान मालिक अंकल जी का देहान्त होने पर स्वाभाविक ही मुझे उनकी पत्नी यानी मकान मालकिन आंटी जी की सुरक्षा की चिन्ता हुई। मैं शीघ्र ही आगरा से लौटा और सबसे पहले आन्टी जी से मिला। मैंने उनको आश्वासन दिया कि ‘आप किसी तरह की चिन्ता मत करना। मैं आपके साथ हूँ।’ सौभाग्य से मेरे सामने उनको अपने पुत्र की ओर से कोई समस्या पैदा नहीं हुई।
मकान मालिक के देहान्त के लगभग 6 माह बाद हमारे फ्लैट के किराये की लीज समाप्त हो रही थी। यह पहले से तय था कि हम 20 प्रतिशत किराया बढ़ाकर लीज को फिर तीन साल के लिए आगे बढ़ा सकते हैं। हमने ऐसा ही किया। वैसे भी मुझे कानपुर में रहते हुए लगभग 8 वर्ष हो गये थे और मैं जानता था कि अब कभी भी मेरा स्थानांतरण हो सकता है। वैसे उस मकान में हमें कोई समस्या नहीं थी, इसलिए मकान बदलने का प्रश्न ही नहीं था।
बाबूलाल जी मिश्र का देहावसान
मैं पीछे इनके बारे में विस्तार से लिख चुका हूँ। वे काफी वृद्ध स्वयंसेवक थे और संघचालक भी रह चुके थे। फरवरी 2003 में अचानक उनका देहावसान हो गया। उस समय उनकी उम्र 92 या 93 वर्ष थी। मेरे ऊपर उनका बहुत स्नेह था। उस समय तक मुझे कानपुर में रहते हुए 6 वर्ष हो गये थे, परन्तु एक बार भी मुझे वहाँ के श्मशान घाट (भैरों घाट) नहीं जाना पड़ा था। बाबूलाल जी की अन्त्येष्टि के समय ही पहली बार मैं वहाँ गया। उसके बाद मुझे दुर्भाग्य से एक-एक महीने के अन्तर से लगातार चार बार श्मशान घाट जाना पड़ा।
कुमार साहब की बीमारी और देहावसान
जब श्री दौलतानी हमारे मंडलीय कार्यालय के सहायक महा प्रबंधक थे, तो हमारे मुख्य प्रबंधक थे श्री महाराज रोहित कुमार। वे बिहार के रहने वाले थे और किसी अच्छे जमींदार खानदान के थे। देखने में भी बहुत आकर्षक लगते थे। प्रारम्भ में वे कानपुर मुख्य शाखा के मुख्य प्रबंधक थे। तभी उनको कैंसर की बीमारी हो गयी। चाय के अलावा उनको कोई व्यसन भी नहीं था। इस बीमारी का पता समय पर चल गया, तो उनका इलाज हो गया और आॅपरेशन के बाद वे लगभग ठीक हो गये, हालांकि उनका मुँह बहुत टेढ़ा हो गया था। इतना ही होता तो गनीमत थी, लेकिन कुछ समय बाद उनके सिर में कहीं ट्यूमर जैसी बीमारी हो गयी। वह ट्यूमर ऐसा था कि अगर तत्काल न निकलवाया जाता, तो लगातार बढ़ता ही जाता था और उसके कारण उनकी जान को भी खतरा होता जाता था। इसलिए आॅपरेशन कराना जरूरी था। वैसे आॅपरेशन भी अपने आप में खतरनाक था और उसके सफल होने की कोई गारंटी नहीं थी। अन्ततः लखनऊ के पी.जी.आई. अस्पताल में उनका आॅपरेशन हुआ। दुर्भाग्य से आॅपरेशन के समय ही वे गहरी बेहोशी (काॅमा) में चले गये। वे कई महीने तक काॅमा में ही रहे और काॅमा में ही उनका देहावसान हो गया।
एक बार मैं तथा कु. तेजविन्दर कौर आईटी अधिकारियों के एक सम्मेलन में शामिल होने लखनऊ गये थे। उधर से हम श्री दौलतानी जी के साथ कार में लौटे थे। लौटने से पहले वे कुमार साहब को देखने गये। हम भी उनके साथ ही गये। उनके वार्ड में बहुत धुआँ जैसा भरा हुआ था, जिससे आँखों में जलन होती थी। कभी-कभी लगता था कि वे काॅमा से बाहर आ रहे हैं, लेकिन नहीं आये। थोड़ी हालत सुधरने पर उन्हें घर ले आया गया। परन्तु एक दिन अचानक हालत बिगड़ जाने पर उन्हें कानपुर के रीजेंसी अस्पताल में लाया गया। वहीं अगले दिन ही उनका देहान्त हो गया।
कुमार साहब का देहान्त होने पर जब दौलतानी जी वहाँ पहुँचे, तो उनके पहुँचते ही कुमार साहब की पत्नी ने अपनी चूड़ियाँ उतारकर दौलतानी जी के ऊपर फेंक मारीं और चिल्लाकर कहा- ‘अब तेरे को शान्ति मिल गयी?’ उनकी धारणा थी कि दौलतानी जी ने कुमार साहब के इलाज के लिए समय पर धनराशि मंजूर नहीं की, जिससे इलाज अच्छा नहीं हुआ। इसमें कितना सत्य था, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस घटना का कई रूपों में बैंक में कुप्रचार हो गया, जिससे दौलतानी जी की छवि पर बहुत विपरीत असर पड़ा।
कुमार साहब की अन्त्येष्टि के लिए मुझे मार्च 2003 में दूसरी बार फिर श्मशान घाट जाना पड़ा था। तीसरी बार मुझे श्मशान घाट एक माह बाद अप्रैल 2003 में तब फिर जाना पड़ा जब हमारे एक प्रमुख स्वयंसेवक संतोष जी ने घरेलू कारणों से फिनायल पीकर आत्महत्या कर ली थी।
विजय भाई, सारा पड़ा ,ख़ास कर इस किश्त का आख़री भाग जो दुखद ही कहूँगा.
नमस्ते, भाई साहब. सुख और दुःख जीवन के अंग हैं. सबको सब कुछ भुगतना पड़ता है. समय सब घावों को भर देता है.
किसके रोने से कौन कब रुका है यहाँ?
जाने को सब आये हैं सब जायेंगे
चलने की तैयारी ही तो जीवन है,
कुछ सुबह गए कुछ डेरा शाम उठायेंगे
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। आपने संघ के विश्व संवाद केंद्र को अपनी सेवाएं दी और उसकी दो स्मारिकाओं का संपादन किया, यह आपकी साहित्यिक रूचि का प्रमाण है। इसके लिए समरिका के विषय के व्यापक ज्ञान एवं संपादन कला के अनुभव की आवश्यकता होती है। कार्य का सफलता से निर्वाह करने के लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं। आपकी संपादन कला में मर्मज्ञता के दर्शन हमें ईपत्रिका “जयविजय” के सभी अंकों में होते हैं। हार्दिक बधाई।
आभार, मान्यवर !